अनन्त चतुर्दशी: Difference between revisions

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{{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय
|चित्र=God-Vishnu.jpg
|चित्र का नाम=भगवान विष्णु तथा लक्ष्मी
|विवरण='अनन्त चतुर्दशी' के व्रत में अनन्त के रूप में भगवान [[विष्णु|श्रीहरि विष्णु]] की [[पूजा]] होती है। इसमें चौदह गाँठों वाला अनंत सूत्र पुरुषों द्वारा दाहिने तथा स्त्रियों द्वारा बायें हाथ में बाँधा जाता है।
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|पाठ 1=[[हिन्दू]] तथा प्रवासी भारतीय हिन्दू
|शीर्षक 2=तिथि
|पाठ 2=[[भाद्रपद मास]], [[शुक्ल पक्ष]] की [[चतुर्दशी]]
|शीर्षक 3=सम्बन्धित देवता
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}}
'''अनन्त चतुर्दशी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Anant Chaturdashi'') का व्रत [[भाद्रपद मास]] के [[शुक्ल पक्ष]] की [[चतुर्दशी|चतुर्दशी तिथि]] को किया जाता है। इस व्रत में अनन्त के रूप में [[विष्णु|भगवान श्रीहरि विष्णु]] की [[पूजा]] होती है। अनन्त चतुर्दशी के दिन पुरुष दाहिने हाथ में तथा नारियाँ बाँये हाथ में अनन्त धारण करती हैं। अनन्त [[कपास]] या रेशम के धागे से बने होते हैं, जो कुंकमी रंग में रंगे जाते हैं तथा इनमें चौदह गाँठे होती हैं। इन्हीं धागों से अनन्त का निर्माण होता है। यह व्यक्तिगत पूजा है, इसका कोई सामाजिक या धार्मिक उत्सव नहीं होता। '[[अग्नि पुराण]]'<ref>अग्नि पुराण 192।7-10</ref> में इसका विवरण है। चतुर्दशी को दर्भ से बनी श्रीहरि की प्रतिमा, जो कलश के [[जल]] में रखी होती है, की [[पूजा]] होती है। व्रती को [[धान]] के एक प्रस्थ (प्रसर) आटे से रोटियाँ (पूड़ी) बनानी होती हैं, जिनकी आधी वह [[ब्राह्मण]] को दे देता है और शेष अर्धांश स्वयं प्रयोग में लाता है।
==पौराणिक उल्लेख==
'अनन्त चतुर्दशी' का व्रत नदी-तट पर किया जाना चाहिए और वहाँ हरि की कथाएँ सुननी चाहिए। हरि से इस प्रकार की प्रार्थना की जाती है-


==अनन्त चतुर्दशी / Anant Chaturdashi==
"हे वासुदेव, इस अनन्त संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करो तथा उन्हें अनन्त के रूप का [[ध्यान]] करने में संलग्न करो, अनन्त रूप वाले तुम्हें नमस्कार।"<ref>अग्नि पुराण 192।9</ref>
भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी का व्रत किया जाता है। इसका उल्लेख कृत्यकल्पतरू में नहीं है। इसमें अनन्त के रूप में हरि की पूजा होती है। पुरुष दाहिने तथा नारियां बाँये हाथ में अनन्त धारण करती हैं रूई या रेशम के धागे कुंकमी रंग में रंगे होते हैं और उनमें चौदह गाँठे होती हैं। इन्हीं धागों से अनन्त का निर्माण होता है। यह व्यक्तिगत पूजा है, इसका कोई सामाजिक धार्मिक उत्सव नहीं होता। [[अग्नि पुराण]]<balloon title="(अग्नि पुराण 192।7-10)" style="color:blue">*</balloon> में इसका विवरण है। चतुर्दशी को दर्भ से बनी हरि की प्रतिमा की, जो कलश के जल में रखी होती है, पूजा होती है। व्रती को धान के एक प्रस्थ (प्रसर) आटे से रोटियाँ (पूड़ी) बनानी होती हैं जिनकी आधी वह ब्राह्मण को दे देता है और शेष अर्धांश स्वयं प्रयोग में लाता है। यह व्रत नदी-तट पर किया जाना चाहिए, जहाँ हरि की कथाएँ सुननी चाहिए। हरि से इस प्रकार की प्रार्थना की जाती है--'हे वासुदेव, इस अनन्त संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करो तथा उन्हें अनन्त के रूप का ध्यान करने में संलग्न करो, अनन्त रूप वाले तुम्हें नमस्कार।'<balloon title="(अग्नि पुराण 192।9)" style="color:blue">*</balloon> इस मन्त्र से हरि की पूजा करके तथा अपने हाथ के ऊपरी भाग में या गले में धागा बाँधकर या लटकाकर (जिस पर मन्त्र पढ़ा गया हो) व्रती अनन्त व्रत करता है तथा प्रसन्न होता है। यदि हरि अनन्त हैं तो 14 गाँठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की द्योतक हैं।<balloon title="हेमाद्रि (व्रत, भाग 2, पृ0 26-36)" style="color:blue">*</balloon> में अनन्त व्रत का विवरण विशद रूप से आया है, उसमें [[कृष्ण]] द्वारा [[युधिष्ठिर]] से कही गयी कौण्डिन्य एवं उसकी स्त्री शीला की गाथा भी आयी है। कृष्ण का कथन है कि 'अनन्त' उनके रूपों का एक रूप है और वे काल हैं जिसे अनन्त कहा जाता है। अनन्त व्रत चन्दन, धूप, पुष्प, नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। इस व्रत के विषय में अन्य बातों के लिए।<balloon title="देखिए वर्षकियाकौमुदी (पृ0 324-339), तिथितत्त्व (पृ0 123), का0 नि0 (पृ0 279) वतार्क आदि" style="color:blue">*</balloon> ऐसा आया है कि यदि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाय तो व्रती विष्णुलोक की प्राप्ति कर सकता है।<balloon title="(हेमाद्रि, व्रत, भाग 2, पृ0 35)" style="color:blue">*</balloon>  
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इस दिन व्रती को चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कलश की स्थापना करें। कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनन्त की स्थापना की जाती है। इसके आगे कुंकुम, केसर या हल्दी से रंगकर बनाया हुआ कच्चे डोरे का चौदह गांठों वाला 'अनन्त' भी रखा जाता है।
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इस व्रत के उपयुक्त एवं तिथि के विषय में कई मत प्रकाशित हो गये हैं। माधव<balloon title="(का0 नि0 279)" style="color:blue">*</balloon> के अनुसार इस व्रत में मध्याह्न कर्मकाल नहीं है किन्तु वह तिथि, जो सूर्योदय के समय तीन मुहर्तों तक अवस्थित रहती है, अनन्त व्रत के लिए सर्वोत्तम है। किन्तु नि0 सि0<balloon title="(नि0 सि0 पृ0 142)" style="color:blue">*</balloon> ने इस मत का खण्डन किया है। आजकल अनन्त चतुर्दशी व्रत किया जाता है, किन्तु व्रतियों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है।


इस [[मन्त्र]] से हरि की [[पूजा]] करके तथा अपने हाथ के ऊपरी भाग में या गले में धागा बाँधकर या लटका कर<ref>जिस पर मन्त्र पढ़ा गया हो</ref> व्रती अनन्त व्रत करता है तथा प्रसन्न होता है। यदि हरि अनन्त हैं तो 14 गाँठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की द्योतक हैं। हेमाद्रि<ref>हेमाद्रि (व्रत, भाग 2, पृ. 26-36</ref> में अनन्त व्रत का विवरण विशद रूप से आया है, उसमें भगवान [[श्रीकृष्ण]] द्वारा [[युधिष्ठिर]] से कही गयी कौण्डिन्य एवं उसकी स्त्री शीला की गाथा भी आयी है। कृष्ण का कथन है कि 'अनन्त' उनके रूपों का एक रूप है और वे काल हैं, जिसे अनन्त कहा जाता है। अनन्त व्रत [[चन्दन]], धूप, [[पुष्प]], नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। इस व्रत के विषय में अन्य बातों के लिए।<ref>देखिए वर्षकियाकौमुदी (पृ. 324-339), तिथितत्त्व (पृ. 123), कालनिर्णय (पृ. 279) वतार्क आदि</ref> ऐसा आया है कि यदि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाय तो व्रती विष्णु लोक की प्राप्ति कर सकता है।<ref>हेमाद्रि, व्रत, भाग 2, पृ. 35</ref> इस व्रत के उपयुक्त एवं तिथि के विषय में कई मत प्रकाशित हो गये हैं। माधव<ref>कालनिर्णय 279</ref> के अनुसार इस व्रत में मध्याह्न कर्मकाल नहीं है, किन्तु वह तिथि, जो सूर्योदय के समय तीन मुहर्तों तक अवस्थित रहती है, अनन्त व्रत के लिए सर्वोत्तम है। किन्तु निर्णयसिन्धु<ref>निर्णयसिन्धु, पृ. 142</ref> ने इस मत का खण्डन किया है। आजकल अनन्त चतुर्दशी व्रत किया तो जाता है, किन्तु व्रतियों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है।
==व्रत विधि==
इस दिन भगवान [[विष्णु]] की कथा होती है। इसमें उदय तिथि ली जाती है। [[पूर्णिमा]] का सहयोग होने से इसका बल बढ़ जाता है। यदि मध्याह्न तक [[चतुर्दशी]] हो तो ज़्यादा अच्छा है। जैसा इस व्रत के नाम से लक्षित होता है कि यह दिन उस अंत न होने वाले सृष्टि के कर्ता निर्गुण [[ब्रह्मा]] की भक्ति का दिन है। इस दिन भक्तगण लौकिक कार्यकलापों से मन को हटाकर ईश्वर भक्ति में अनुरक्त हो जाते हैं। इस दिन [[वेद]] ग्रंथों का पाठ करके भक्ति की स्मृति का डोरा बांधा जाता है। इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है। इस दिन व्रती को चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कलश की स्थापना करें। कलश पर अष्टदल [[कमल]] के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनन्त की स्थापना की जाती है। इसके आगे कुंकुम, [[केसर]] या [[हल्दी]] से रंगकर बनाया हुआ कच्चे डोरे का चौदह गांठों वाला 'अनन्त' भी रखा जाता है।
कुश के अनन्त की वंदना करके, उसमें भगवान विष्णु का आह्वान तथा [[ध्यान]] करके गंध, अक्षत, [[पुष्प]], [[धूपबत्ती|धूप]], [[दीपक|दीप]], नैवेद्य आदि से पूजन करें। तत्पश्चात् अनन्त देव का [[ध्यान]] करके शुद्ध अनन्त को अपनी दाहिनी भुजा पर बांध लें। यह डोरा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनन्त फल देने वाला माना गया है। यह व्रत धन पुत्रादि की कामना से किया जाता है। इस दिन नए डोरे के अनन्त को धारण करके पुराने का त्याग कर देना चाहिए। इस व्रत का [[पारण]] [[ब्राह्मण]] को दान करके करना चाहिए। अनन्त की चौदह गांठे चौदह लोकों की प्रतीत मानी गई हैं। उनमें अनन्त भगवान विद्यमान हैं। भगवान सत्यनारायण के समान ही अनन्त देव भी भगवान विष्णु का ही एक नाम है। यही कारण है कि इस दिन सत्यनारायण का व्रत और कथा का आयोजन प्राय: किया जाता है, जिसमें [[सत्यनारायण व्रत कथा|सत्यनारायण की कथा]] के साथ-साथ अनन्त देव की कथा भी सुनी जाती है।
==कथा==
==कथा==
इस दिन भगवान [[विष्णु]] की कथा होती है। इसमें उदय तिथि ली जाती है। पूर्णिमा का सहयोग होने से इसका बल बढ़ जाता है। यदि मध्याह्न तक चतुर्दशी हो तो ज्यादा अच्छा है। जैसा इस व्रत के नाम से लक्षित होता है कि यह दिन उस अंत न होने वाले सृष्टि के कर्ता निर्गुण [[ब्रह्मा]] की भक्ति का दिन है। इस दिन भक्तगण लौकिक कार्यकलापों से मन को हटाकर ईश्वर भक्ति में अनुरक्त हो जाते हैं। इस दिन [[वेद]] ग्रंथों का पाठ करके भक्ति की स्मृति का डोरा बांधा जाता है। इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है।
एक बार महाराज [[युधिष्ठिर]] ने [[राजसूय यज्ञ]] किया। उस समय यज्ञ मण्डप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था। वह यज्ञ मण्डप इतना मनोरम था कि [[जल]] व स्थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मण्डप में धोखा खा चुके थे। एक बार कहीं से टहलते-टहलते [[दुर्योधन]] भी उस यज्ञ-मण्डप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। [[द्रौपदी]] ने यह देखकर 'अंधों की संतान अंधी' कहकर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया। यह बात उसके [[हृदय]] में [[बाण अस्त्र|बाण]] के समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने [[पाण्डव|पाण्डवों]] से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पाण्डवों को द्यूत-क्रीड़ा में हराकर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पाण्डवों को जुए में पराजित कर दिया। पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पाण्डवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पाण्डव अनेक कष्ट सहते रहे।
 
[[चित्र:Anant-Sutra.jpg|thumb|250px|अनन्त सूत्र]]
इस दिन व्रती को चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कलश की स्थापना करें। कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनन्त की स्थापना की जाती है। इसके आगे कुंकुम, केसर या हल्दी से रंगकर बनाया हुआ कच्चे डोरे का चौदह गांठों वाला 'अनन्त' भी रखा जाता है। कुश के अनन्त की वंदना करके, उसमें भगवान विष्णु का आह्वान तथा ध्यान करके गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन करें। तत्पश्चात अनन्त देव का ध्यान करके शुद्ध अनन्त को अपनी दाहिनी भुजा पर बांध लें। यह डोरा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनन्त फल देने वाला माना गया है। यह व्रत धन पुत्रादि की कामना से किया जाता है।
====श्रीकृष्ण द्वारा कथा वाचन====
एक दिन भगवान [[कृष्ण]] जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दु:ख कहा और दु:ख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- "हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।" इस संदर्भ में श्रीकृष्ण एक कथा सुनाते हुए बोले-
इस दिन नए डोरे के अनन्त को धारण करके पुराने का त्याग कर देना चाहिए। इस व्रत का पारण ब्राह्मण को दान करके करना चाहिए। अनन्त की चौदह गांठे चौदह लोकों की प्रतीत मानी गई हैं। उनमें अनन्त भगवान विद्यमान हैं। भगवान सत्यनारायण के समान ही अनन्तदेव भी भगवान विष्णु का ही एक नाम है। यही कारण है कि इस दिन सत्यनारायण का व्रत और कथा का आयोजन प्राय: किया जाता है। जिसमें सत्यनारायण की कथा के साथ-साथ अनन्तदेव की कथा भी सुनी जाती है।


एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मण्डप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मण्डप इतना मनोरम था कि जल व स्थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मण्डप में धोखा खा चुके थे। एक बार कहीं से टहलते-टहलते [[दुर्योधन]] भी उस यज्ञ-मण्डप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। [[द्रौपदी]] ने यह देखकर 'अंधों की संतान अंधी' कहकर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया। यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पाण्डवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए [[पाण्डव|पाण्डवों]] को द्यूत-क्रीड़ा में हराकर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पाण्डवों को जुए में पराजित कर दिया।
प्राचीन काल में सुमन्त नाम का एक नेक तपस्वी [[ब्राह्मण]] था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसके एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी, जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी के मरने के बाद सुमन्त ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा [[विवाह]] कर लिया। सुशीला का विवाह उस ब्राह्मण ने कौडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांधकर दे दिए। कौडिन्य ऋषि दु:खी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने [[आश्रम]] की ओर चल दिए। परन्तु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर सन्ध्या करने लगे। सुशीला ने देखा वहाँ पर बहुत-सी स्त्रियाँ सुंदर वस्त्र धारण कर किसी [[देवता]] की [[पूजा]] पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनन्त व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांधकर ऋषि कौडिन्य के पास आ गई।
पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पाण्डवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा वन में रहते हुए पाण्डव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा-'हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।' इस संदर्भ में श्रीकृष्ण एक कथा सुनाते हुए बोले-


प्राचीन काल में सुमन्त नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसके एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी। जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी के मरने के बाद सुमन्त ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह उस ब्राह्मण ने कौडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांधकर दे दिए। कौडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परन्तु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर सन्ध्या करने लगे। सुशीला ने देखा-वहां पर बहुत सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी [[देवता]] की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनन्त व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांधकर ऋषि कौडिन्य के पास आ गई।
कौडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़कर [[अग्नि]] में डाल दिया इससे भगवान अनन्त जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौडिन्य दु:खी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनन्त भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं। पश्चाताप करते हुए ऋषि कौडिन्य अनन्त डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनन्त भगवान प्रकट होकर बोले- "हे कौडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दु:खी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनन्त व्रत करो। चौदह वर्ष पर्यन्त व्रत करने से तुम्हारा दु:ख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से सम्पन्न हो जाओगे।" कौडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई। श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनन्त भगवान का व्रत किया, जिसके प्रभाव से [[पाण्डव]] [[महाभारत]] के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।
कौडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़कर अग्नि में डाल दिया इससे भगवान अनन्त जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनन्त भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं। पश्चाताप करते हुए ऋषि कौडिन्य अनन्त डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनन्त भगवान प्रकट होकर बोले- 'हे कौडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनन्त व्रत करो। चौदह वर्ष पर्यन्त व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से सम्पन्न हो जाओगे। कौडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।' श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनन्त भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पाण्डव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।


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Latest revision as of 05:25, 5 September 2017

अनन्त चतुर्दशी
विवरण 'अनन्त चतुर्दशी' के व्रत में अनन्त के रूप में भगवान श्रीहरि विष्णु की पूजा होती है। इसमें चौदह गाँठों वाला अनंत सूत्र पुरुषों द्वारा दाहिने तथा स्त्रियों द्वारा बायें हाथ में बाँधा जाता है।
अनुयायी हिन्दू तथा प्रवासी भारतीय हिन्दू
तिथि भाद्रपद मास, शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी
सम्बन्धित देवता विष्णु
संबंधित लेख विष्णु, श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर
अन्य जानकारी अनन्त चतुर्दशी व्रत में धारण किये जाने वाले अनन्त सूत्र कपास या रेशम के धागे से बने होते हैं, जो कुंकमी रंग में रंगे जाते हैं। इस सूत्र में चौदह गाँठे होती हैं। अनन्त की चौदह गांठे चौदह लोकों की प्रतीत मानी गई हैं।

अनन्त चतुर्दशी (अंग्रेज़ी: Anant Chaturdashi) का व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किया जाता है। इस व्रत में अनन्त के रूप में भगवान श्रीहरि विष्णु की पूजा होती है। अनन्त चतुर्दशी के दिन पुरुष दाहिने हाथ में तथा नारियाँ बाँये हाथ में अनन्त धारण करती हैं। अनन्त कपास या रेशम के धागे से बने होते हैं, जो कुंकमी रंग में रंगे जाते हैं तथा इनमें चौदह गाँठे होती हैं। इन्हीं धागों से अनन्त का निर्माण होता है। यह व्यक्तिगत पूजा है, इसका कोई सामाजिक या धार्मिक उत्सव नहीं होता। 'अग्नि पुराण'[1] में इसका विवरण है। चतुर्दशी को दर्भ से बनी श्रीहरि की प्रतिमा, जो कलश के जल में रखी होती है, की पूजा होती है। व्रती को धान के एक प्रस्थ (प्रसर) आटे से रोटियाँ (पूड़ी) बनानी होती हैं, जिनकी आधी वह ब्राह्मण को दे देता है और शेष अर्धांश स्वयं प्रयोग में लाता है।

पौराणिक उल्लेख

'अनन्त चतुर्दशी' का व्रत नदी-तट पर किया जाना चाहिए और वहाँ हरि की कथाएँ सुननी चाहिए। हरि से इस प्रकार की प्रार्थना की जाती है-

"हे वासुदेव, इस अनन्त संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करो तथा उन्हें अनन्त के रूप का ध्यान करने में संलग्न करो, अनन्त रूप वाले तुम्हें नमस्कार।"[2]

इस मन्त्र से हरि की पूजा करके तथा अपने हाथ के ऊपरी भाग में या गले में धागा बाँधकर या लटका कर[3] व्रती अनन्त व्रत करता है तथा प्रसन्न होता है। यदि हरि अनन्त हैं तो 14 गाँठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की द्योतक हैं। हेमाद्रि[4] में अनन्त व्रत का विवरण विशद रूप से आया है, उसमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर से कही गयी कौण्डिन्य एवं उसकी स्त्री शीला की गाथा भी आयी है। कृष्ण का कथन है कि 'अनन्त' उनके रूपों का एक रूप है और वे काल हैं, जिसे अनन्त कहा जाता है। अनन्त व्रत चन्दन, धूप, पुष्प, नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। इस व्रत के विषय में अन्य बातों के लिए।[5] ऐसा आया है कि यदि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाय तो व्रती विष्णु लोक की प्राप्ति कर सकता है।[6] इस व्रत के उपयुक्त एवं तिथि के विषय में कई मत प्रकाशित हो गये हैं। माधव[7] के अनुसार इस व्रत में मध्याह्न कर्मकाल नहीं है, किन्तु वह तिथि, जो सूर्योदय के समय तीन मुहर्तों तक अवस्थित रहती है, अनन्त व्रत के लिए सर्वोत्तम है। किन्तु निर्णयसिन्धु[8] ने इस मत का खण्डन किया है। आजकल अनन्त चतुर्दशी व्रत किया तो जाता है, किन्तु व्रतियों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है।

व्रत विधि

इस दिन भगवान विष्णु की कथा होती है। इसमें उदय तिथि ली जाती है। पूर्णिमा का सहयोग होने से इसका बल बढ़ जाता है। यदि मध्याह्न तक चतुर्दशी हो तो ज़्यादा अच्छा है। जैसा इस व्रत के नाम से लक्षित होता है कि यह दिन उस अंत न होने वाले सृष्टि के कर्ता निर्गुण ब्रह्मा की भक्ति का दिन है। इस दिन भक्तगण लौकिक कार्यकलापों से मन को हटाकर ईश्वर भक्ति में अनुरक्त हो जाते हैं। इस दिन वेद ग्रंथों का पाठ करके भक्ति की स्मृति का डोरा बांधा जाता है। इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है। इस दिन व्रती को चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कलश की स्थापना करें। कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनन्त की स्थापना की जाती है। इसके आगे कुंकुम, केसर या हल्दी से रंगकर बनाया हुआ कच्चे डोरे का चौदह गांठों वाला 'अनन्त' भी रखा जाता है।

कुश के अनन्त की वंदना करके, उसमें भगवान विष्णु का आह्वान तथा ध्यान करके गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन करें। तत्पश्चात् अनन्त देव का ध्यान करके शुद्ध अनन्त को अपनी दाहिनी भुजा पर बांध लें। यह डोरा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनन्त फल देने वाला माना गया है। यह व्रत धन पुत्रादि की कामना से किया जाता है। इस दिन नए डोरे के अनन्त को धारण करके पुराने का त्याग कर देना चाहिए। इस व्रत का पारण ब्राह्मण को दान करके करना चाहिए। अनन्त की चौदह गांठे चौदह लोकों की प्रतीत मानी गई हैं। उनमें अनन्त भगवान विद्यमान हैं। भगवान सत्यनारायण के समान ही अनन्त देव भी भगवान विष्णु का ही एक नाम है। यही कारण है कि इस दिन सत्यनारायण का व्रत और कथा का आयोजन प्राय: किया जाता है, जिसमें सत्यनारायण की कथा के साथ-साथ अनन्त देव की कथा भी सुनी जाती है।

कथा

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मण्डप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था। वह यज्ञ मण्डप इतना मनोरम था कि जल व स्थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मण्डप में धोखा खा चुके थे। एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मण्डप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर 'अंधों की संतान अंधी' कहकर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया। यह बात उसके हृदय में बाण के समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पाण्डवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पाण्डवों को द्यूत-क्रीड़ा में हराकर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पाण्डवों को जुए में पराजित कर दिया। पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पाण्डवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पाण्डव अनेक कष्ट सहते रहे। thumb|250px|अनन्त सूत्र

श्रीकृष्ण द्वारा कथा वाचन

एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दु:ख कहा और दु:ख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- "हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।" इस संदर्भ में श्रीकृष्ण एक कथा सुनाते हुए बोले-

प्राचीन काल में सुमन्त नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसके एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी, जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी के मरने के बाद सुमन्त ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह उस ब्राह्मण ने कौडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांधकर दे दिए। कौडिन्य ऋषि दु:खी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परन्तु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर सन्ध्या करने लगे। सुशीला ने देखा वहाँ पर बहुत-सी स्त्रियाँ सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनन्त व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांधकर ऋषि कौडिन्य के पास आ गई।

कौडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़कर अग्नि में डाल दिया इससे भगवान अनन्त जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौडिन्य दु:खी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनन्त भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं। पश्चाताप करते हुए ऋषि कौडिन्य अनन्त डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनन्त भगवान प्रकट होकर बोले- "हे कौडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दु:खी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनन्त व्रत करो। चौदह वर्ष पर्यन्त व्रत करने से तुम्हारा दु:ख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से सम्पन्न हो जाओगे।" कौडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई। श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनन्त भगवान का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पाण्डव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अग्नि पुराण 192।7-10
  2. अग्नि पुराण 192।9
  3. जिस पर मन्त्र पढ़ा गया हो
  4. हेमाद्रि (व्रत, भाग 2, पृ. 26-36
  5. देखिए वर्षकियाकौमुदी (पृ. 324-339), तिथितत्त्व (पृ. 123), कालनिर्णय (पृ. 279) वतार्क आदि
  6. हेमाद्रि, व्रत, भाग 2, पृ. 35
  7. कालनिर्णय 279
  8. निर्णयसिन्धु, पृ. 142

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