बनारसी दास: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replace - "जोर" to "ज़ोर")
Line 24: Line 24:
काया सों विचार प्रीति, माया ही मेंहार जीत,  
काया सों विचार प्रीति, माया ही मेंहार जीत,  
लिए हठ रीति जैसे हारिल की लकरी।
लिए हठ रीति जैसे हारिल की लकरी।
चंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि,
चंगुल के ज़ोर जैसे गोह गहि रहै भूमि,
त्यौं ही पाँय गाड़ै पै न छाँडै टेक पकरी।
त्यौं ही पाँय गाड़ै पै न छाँडै टेक पकरी।
मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावैं,  
मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावैं,  

Revision as of 15:58, 8 July 2011

  • बनारसी दास जौनपुर के रहने वाले एक जैन जौहरी थे, जो आमेर में भी रहा करते थे।
  • इनके पिता का नाम खड़गसेन था।
  • बनारसी दास संवत 1643 में उत्पन्न हुए थे।
  • संवत् 1698 तक का अपना जीवनवृत्त 'अर्द्ध कथानक' नामक ग्रंथ में दिया है।
  • पुराने हिन्दी साहित्य में यही एक आत्मचरित मिलता है, इससे इसका महत्व बहुत अधिक है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि युवावस्था में इनका आचरण अच्छा न था और इन्हें कुष्ट रोग भी हो गया था। पर बाद में ये सँभल गए। ये पहले श्रृंगार रस की कविता किया करते थे, पर बाद में ज्ञान हो जाने पर इन्होंने वे सब कविताएँ गोमती नदी में फेंक दीं और ज्ञानोपदेशपूर्ण कविताएँ करने लगे।
  • कुछ उपदेश इनके ब्रजभाषा गद्य में भी हैं।
  • इन्होंने जैन धर्म संबंधी अनेक पुस्तकों के सारांश हिन्दी में कहे हैं। अब तक इनकी इतनी पुस्तकों का पता चला है -
  1. बनारसी विलास (फुटकल कवित्तों का संग्रह),
  2. नाटक समयसार (कुंदकुंदाचार्य कृत ग्रंथ का सार),
  3. नाममाला (कोश),
  4. अर्द्ध कथानक,
  5. बनारसी पद्धति
  6. मोक्षपदी,
  7. धारुव वंदना,
  8. कल्याणमंदिर भाषा,
  9. वेदनिर्णय पंचाशिका,
  10. मारगन विद्या।
  • इनकी रचना शैली पुष्ट है और इनकी कविता दादू पंथी सुंदर दास जी की कविता से मिलती जुलती है -

भोंदू! ते हिरदय की ऑंखें।
जे करबैं अपनी सुख संपति भ्रम की संपति भाखैं
जिन ऑंखिन सों निरखि भेद गुन ज्ञानी ज्ञान विचारैं।
जिन ऑंखिन सों लखि सरूप मुनि ध्यान धारना धारैं

काया सों विचार प्रीति, माया ही मेंहार जीत,
लिए हठ रीति जैसे हारिल की लकरी।
चंगुल के ज़ोर जैसे गोह गहि रहै भूमि,
त्यौं ही पाँय गाड़ै पै न छाँडै टेक पकरी।
मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावैं,
धावैं चहुँ ओर ज्यौं बढ़ावैं जाल मकरी।
ऐसी दुरबुद्धि भूलि, झूठ के झरोखे भूलि,
फूली फिरैं ममता जँजीरन सों जकरी।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख