निरालम्बोपनिषद: Difference between revisions

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Revision as of 13:43, 13 October 2011

शुक्ल यजुर्वेदीय इस उपनिषद में ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति, जगत, ज्ञान व कर्म आदि का सुन्दर विवचेन किया गया है। इस उपनिषद में कितने ही प्रश्न उठाये गये हैं, यथा-ब्रह्म क्या है? ईश्वर कौन है? जीव, प्रकृति, परमात्मा, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र, सूर्य, यम, चन्द्र आदि देवगण कौन हैं? असुर-पिशाच कौन है? मनुष्य, स्त्री, पशु आदि क्या हैं? जाति, कर्म-अकर्म क्या हैं? ज्ञान-अज्ञान क्या है? सुख-दु:ख क्या है। स्वर्ग-नरक, बन्धन और मुक्ति क्या है? शिष्य,विद्वान और मूर्ख कौन हैं? तप और परम पद क्या है? संन्यासी कौन है? आदि-आदि। इन प्रश्नों का उत्तर इस उपनिषद में दिया गया है। महान तत्त्व, अहम्, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, समस्त ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला, कर्म और ज्ञान को देने वाला, नाम, रूप और उपाधियों से रहित, सर्वशक्तिमान, आदि-अन्तविहीन, शुद्ध, शिव, शान्त, निर्गुण और अनिर्वचनीय तेजस्वी चैतन्य स्वरूप ब्रह्म, परमात्मा तथा ईश्वर कहलाता है। जब वह चैतन्य-स्वरूप 'ब्रह्म' अनेक देवी-देवताओं तथा लौकिक शरीरों की भिन्नता में जीवनी-शक्ति के रूप में अपने आपको अभिव्यक्त करता है, तब यह 'जीव' कहलाने लगता है। ब्रह्म की प्रेरणा से चित्र-विचित्र संसार को रचने वाली शक्ति प्रकृति कहलाती है। कहा भी है- यह विश्व ही 'ब्रह्म' है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है-

  • सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन॥9॥ शरीर का चर्म, रक्त, मांस, अस्थियां, 'आत्मा' नहीं होतीं। इसी भांति इन्द्रियों द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को कर्म कहते हैं। 'ब्रह्म' द्वारा निर्मित विभिन्न जीव-रूपों में भेद मानना अज्ञान कहलाता है। सत-चित-आनन्द-स्वरूप परमात्मा के ज्ञान से जो आनन्दपूर्ण स्थिति बनती है, वही सुख है। नश्वर विषयों का विचार करना दु:ख कहलाता है। सत्य और सत्संग का समागम ही स्वर्ग है। और नश्वर संसार के मोह-बन्धन में पड़े रहना ही नरक है। 'मैं हूं' का विचार ही बन्धन है। सभी प्रकार का योग, वर्ण और आश्रम-व्यवस्था तथा धर्म-कर्म के संकल्प भी बन्धन-स्वरूप हैं। मोक्ष पर विचार करना, आत्मगुणों का संकल्प, यज्ञ, व्रत, तप, दान आदि का विधि-विधान आदि भी बन्धन के ही रूप हैं।

जब सभी नित्य-अनित्य, सुख-दु:ख, मोह-ममता आदि नष्ट हो जायें, तब उस स्थिति को मोक्ष कहते हैं। जिसके हृदय में ब्रह्मरूप ज्ञान ही शेष रह जाये, उसे शिष्य और आत्मतत्त्व के विज्ञानमय स्वरूप को जानने वाला विद्वान अथवा गुरु होता है। जो 'मैं ही करता हूं' या 'मैंने किया है' भाव से लिप्त रहता है, वह मूर्ख है। 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' के भाव को धारण करके की जाने वाली साधना, तप कहलाती है। प्राण, इन्द्रिय, अन्त:करण आदि से भिन्न सच्चिदानन्दस्वरूप और नित्य, मुक्त, ब्रह्म का स्थान परमपद कहा जाता है। जो समस्त धर्मों तथा कर्मों में ममता एवं अहंकार का परित्याग करके 'ब्रह्म' की शरण में जाकर उसी को सब कुछ समझता है, वह साधक या पुरुष संन्यासी कहलाता है। वही मुक्त, पूज्य, योगी, परमहंस, अवधूत और ब्राह्मण होता है। उसका पुनरार्वतन नहीं होता। यही इस उपनिषद का रहस्य है। 'निरावलम्ब, 'अर्थात ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य के अधीन जो नहीं होता, वही 'मोक्ष' का अधिकारी होता है।

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