जाबालोपनिषद: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "रूण" to "रुण")
Line 24: Line 24:
{{शुक्ल यजुर्वेदीय उपनिषद}}
{{शुक्ल यजुर्वेदीय उपनिषद}}
[[Category:दर्शन कोश]]
[[Category:दर्शन कोश]]
[[Category:उपनिषद]]
[[Category:उपनिषद]][[Category:संस्कृत साहित्य]]
   
   
__INDEX__
__INDEX__

Revision as of 13:44, 13 October 2011

शुक्ल यजुर्वेद के इस उपनिषद में कुल छह खण्ड हैं।

  1. प्रथम खण्ड में भगवान बृहस्पति और ऋषि याज्ञवल्क्य के संवाद द्वारा प्राण-विद्या का विवेचन किया गया है।
  2. द्वितीय खण्ड में अत्रि मुनि और याज्ञवल्क्य के संवाद द्वारा 'अविमुक्त' क्षेत्र को भृकुटियों के मध्य बताया गया है।
  3. तृतीय खण्ड में ऋषि याज्ञवल्क्य द्वारा मोक्ष-प्राप्ति का उपाय बताया गया है।
  4. चतुर्थ खण्ड में विदेहराज जनक के द्वारा संन्यास के विषय में पूछे गये प्रश्नों का उत्तर याज्ञवल्क्य देते हैं।
  5. पंचम खण्ड में अत्रि मुनि संन्यासी के यज्ञोपवीत, वस्त्र, भिक्षा आदि पर याज्ञवल्क्य से मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं और
  6. षष्ठ खण्ड में प्रसिद्ध संन्यासियों आदि के आचरण की समीक्षा की गयी है और दिगम्बर परमंहस का लक्षण बताया गया है।

प्रथम खण्ड / प्राण-विद्या का स्थान कहां है?

याज्ञवल्क्य ऋषि ने प्राण का स्थान ब्रह्मसदन या 'अविमुक्त' (ब्रह्मरन्ध्र काशी) क्षेत्र बताया है। उसे ही इन्द्रियों का देवयजन कहा है। इसी ब्रह्मसदन की उपासना से 'मोक्ष' प्राप्त किया जा सकता है।

द्वितीय खण्ड / 'आत्मा' को कैसे जानें?

'आत्मा' को जानने के लिए 'अविमुक्त' (ब्रह्मरन्ध्र)की ही उपासना करनी चाहिए; क्योंकि वह अनन्त, अव्यक्त आत्मा यहीं पर प्रतिष्ठित है। यह 'वरणा' और 'नासी' के मध्य विराजमान है। इन्द्रियों द्वारा किये समस्त पापों का निवरण 'वरणा' करती है और उन पापों को नष्ट करने का कार्य 'नासी' करती है। भृकुटि और नासिका के सन्धिस्थल पर इनका स्थान है। यही 'द्युलोक' और 'परलोक' का संगम है। ब्रह्मविद्या में 'आत्मा' की उपासना इसी सन्धिस्थल पर की जाती है।

तृतीय खण्ड /मोक्ष कैसे प्राप्त हो?

ऋषि याज्ञवल्क्य ने ब्रह्मचारी शिष्यों को बताया कि 'शतरुद्रीय' जप करने से 'मोक्ष' प्राप्त किया जा सकता है। इसके द्वारा साधक मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है।

चतुर्थ खण्ड / संन्यास क्या है?

इस खण्ड में ऋषि राजा जनक को संन्यास के विषय में बताते हुए 'ब्रह्मचर्य' को संन्यासी के लिए सर्वप्रथम शर्त बताते हैं। ब्रह्मचर्य के उपरान्त गृहस्थी, उसके बाद वानप्रस्थी और फिर प्रव्रज्या ग्रहण करके संन्यास ग्रहण करना चाहिए। विषयों से विरक्त होने के उपरान्त किसी भी आश्रम के उपरान्त संन्यासी बना जा सकता है। संन्यासी को मोक्ष मन्त्र 'ॐ' का जाप हर पल करना चाहिए। वही 'ब्रह्म' है और उपासना के योग्य है।

पंचम खण्ड / ब्राह्मण कौन है? संन्यासी कौन है?

अत्रि मुनि के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए ऋषि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि ब्राह्मण वही है, जिसका आत्मा ही उसका यज्ञोपवीत है। जो जल से तीन बार प्रक्षालन और आचमन करे, भगवा वस्त्र धारण करे, अपरिग्राही बनकर लोक-मंगल के लिए भिक्षा-वृत्ति से जीवन-यापन करे, मन और वाणी से विषयों का त्याग करे, वही संन्यासी है, लोक-हितैषी है।

षष्ठ खण्ड / परमहंस संन्यासी कौन है?

संवर्तक, आरुणि, श्वेतकेतु, दुर्वासा, ऋभु, निदाघ, जड़भरत, दत्तात्रेय और रैवतक आदि परमहंस संन्यासी हुए हैं। वे सभी संन्यास के चिह्नों से रहित थे। वे भीतर से उन्मत्त न होते हुए भी बाहर से उन्मत्त लगते थे। ऐसे संन्यासी निश्छल और निस्पृह होते हैं। वे निर्द्वन्द्व, अपरिग्रही, तत्त्व-ब्रह्म में निरन्तर गतिमान तथा शुद्ध मन वाले होते हैं। वे जीवन्मुक्त, ममता-रहित, सात्विक, अध्यात्मनिष्ठ, शुभ-अशुभ कर्मों को निर्मूल मानने वाले होते हैं। वे परमहंस होते हैं।

संबंधित लेख

श्रुतियाँ