धर्मदास: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
|||
Line 21: | Line 21: | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
{{cite book | last =| first = | title =हिन्दी साहित्य का इतिहास| edition =| publisher =कमल प्रकाशन, नई दिल्ली| location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिन्दी | pages =67-68| chapter =खण्ड | {{cite book | last =| first = | title =हिन्दी साहित्य का इतिहास| edition =| publisher =कमल प्रकाशन, नई दिल्ली| location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिन्दी | pages =67-68| chapter =खण्ड }} | ||
==बाहरी कड़ियाँ== | ==बाहरी कड़ियाँ== |
Revision as of 07:03, 29 July 2011
धर्मदास बांधवगढ़ के रहने वाले और जाति से बनिये थे। बाल्यावस्था से ही धर्मदास के हृदय में भक्ति का अंकुर था और ये साधुओं का सत्संग, दर्शन, पूजा, तीर्थाटन आदि किया करते थे। मथुरा से लौटते समय कबीरदास के साथ इनका साक्षात्कार हुआ। उन दिनों संत समाज में कबीर की पूरी प्रसिद्धि हो चुकी थी। कबीर के मुख से मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, देवार्चन आदि का खंडन सुनकर इनका झुकाव 'निर्गुण' संतमत की ओर हुआ। अंत में ये कबीर से सत्य नाम की दीक्षा लेकर उनके प्रधान शिष्यों में हो गए और संवत् 1575 में कबीरदास के परलोकवास पर उनकी गद्दी इन्हीं को मिली।
- कबीर के शिष्य
कहते हैं कबीरदास के शिष्य होने पर इन्होंने अपनी सारी संपत्ति, जो बहुत अधिक थी, लुटा दी। ये कबीरदास की गद्दी पर 20 वर्ष तक लगभग रहे और अत्यंत वृद्ध होकर इन्होंने शरीर छोड़ा। इनकी शब्दावली का भी संतों में बड़ा आदर है। इनकी रचना थोड़ी होने पर भी कबीर की अपेक्षा अधिक सरल भाव लिए हुए है, उसमें कठोरता और कर्कशता नहीं है। इन्होंने 'पूरबी भाषा' का ही व्यवहार किया है। इनकी अन्योक्तियों के व्यंजक चित्र अधिक मार्मिक हैं क्योंकि इन्होंने 'खंडन मंडन' से विशेष प्रयोजन न रख प्रेमतत्व को लेकर अपनी वाणी का प्रसार किया है। धर्मदास के कुछ पद हैं -
झरि लागै महलिया गगन घहराय।
खन गरजै, खन बिजली चमकै, लहरि उठै शोभा बरनि न जाय।
सुन्न महल से अमृत बरसै, प्रेम अनंद ह्नै साधु नहाय
खुली केवरिया, मिटी अन्धियरिया, धानि सतगुरु जिन दिया लखाय।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय
मितऊ मड़ैया सूनी करि गैलो
अपना बलम परदेस निकरि गैलो, हमरा के किछुवौ न गुन दै गैलो।
जोगिन होइके मैं वन वन ढूँढ़ौ, हमरा के बिरह बैराग दै गैलो
सँग की सखी सब पार उतरि गइलीं, हम धानि ठाढ़ि अकेली रहि गैलो।
धरमदास यह अरजु करतु है, सार सबद सुमिरन दै गैलो
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
“खण्ड”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 67-68।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख