गुमान मिश्र: Difference between revisions

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Latest revision as of 12:23, 8 January 2012

गुमान मिश्र महोबा के रहनेवाले 'गोपालमणि' के पुत्र थे। इनके तीन भाई और थे -

  1. दीपसाहि,
  2. खुमान और
  3. अमान।

गुमान ने पिहानी के राजा अकबरअली खाँ के आश्रय में संवत् 1800 में श्रीहर्ष कृत 'नैषधकाव्य' का पद्यानुवाद नाना छंदों में किया। यही ग्रंथ इनका प्रसिद्ध है और प्रकाशित भी हो चुका है। इसके अतिरिक्त खोज में इनके दो ग्रंथ और मिले हैं - 'कृष्णचंद्रिका' और 'छंदाटवी' (पिंगल)। कृष्णचंद्रिका का निर्माणकाल संवत् 1838 है। अत: इनका कविताकाल संवत् 1800 से 1840 तक माना जा सकता है। इन तीनों ग्रंथों के अतिरिक्त रस, नायिका भेद, अलंकार आदि कई और ग्रंथ सुने जाते हैं।

काव्यसौष्ठव

यहाँ केवल इनके 'नैषधा' के संबंध में ही कुछ कहा जा सकता है। इस ग्रंथ में इन्होंने बहुत से छंदों का प्रयोग किया है और बहुत जल्दी जल्दी छंद बदले हैं। इंद्रवज्रा, वंशस्थ, मंदाक्रांता, शार्दूलविक्रीड़ित आदि कठिन वर्णवृत्तों से लेकर दोहा चौपाई तक मौजूद हैं। ग्रंथारंभ में अकबरअली खाँ की प्रशंसा में जो बहुत से कवित्त इन्होंने कहे हैं, उनसे इनकी चमत्कारप्रियता स्पष्ट प्रकट होती है। उनमें परिसंख्या अलंकार की भरमार है।

भाषा

गुमान जी अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और काव्यकुशल थे, इसमें कोई संदेह नहीं। भाषा पर भी इनका पूरा अधिकार था। जिन श्लोकों के भाव जटिल नहीं हैं उनका अनुवाद बहुत ही सरस और सुंदर है। वह स्वतंत्र रचना के रूप में प्रतीत होता है पर जहाँ कुछ जटिलता है वहाँ की वाक्यावली उलझी हुई और अर्थ अस्पष्ट है। बिना मूल श्लोक सामने आए ऐसे स्थानों का स्पष्ट अर्थ निकालना कठिन ही है। अत: सारी पुस्तक के संबंध में यही कहना चाहिए कि अनुवाद में वैसी सफलता नहीं हुई है। संस्कृत के भावों के सम्यक् अवतरण में यह असफलता गुमान ही के सिर नहीं मढ़ी जा सकती। रीतिकाल के जिन जिन कवियों ने संस्कृत से अनुवाद करने का प्रयत्न किया है उनमें बहुत से असफल हुए हैं। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल में जिस मधुर रूप में ब्रजभाषा का विकास हुआ वह सरल व्यंजना के तो बहुत ही अनुकूल हुआ पर जटिल भावों और विचारों के प्रकाश में वैसा समर्थ नहीं हुआ। कुलपति मिश्र ने 'रसरहस्य' में 'काव्यप्रकाश' का जो अनुवाद किया है उसमें भी जगह जगह इसी प्रकार अस्पष्टता है।

उत्तम कवि

गुमान जी उत्तम श्रेणी के कवि थे, इसमें संदेह नहीं। जहाँ वे जटिल भाव भरने की उलझन में नहीं पड़े हैं वहाँ की रचना अत्यंत मनोहारिणी हुई है -

दुर्जन की हानि, बिरधापनोई करै पीर,
गुन लोप होत एक मोतिन के हार ही।
टूटे मनिमालै निरगुन गायताल लिखै,
पोथिन ही अंक, मन कलह विचारही
संकर बरन पसु पच्छिन में पाइयत,
अलक ही पारै अंसभंग निराधार ही।
चिर चिर राजौ राज अली अकबर, सुरराज
के समाज जाके राज पर बारही

दिग्गज दबत दबकत दिगपाल भूरि,
धूरि की धुंधोरी सों अंधेरी आभा भान की।
धाम औ धारा को, माल बाल अबला को अरि,
तजत परान राह चाहत परान की
सैयद समर्थ भूप अली अकबर दल,
चलत बजाय मारू दुंदुभी धुकान की।
फिर फिर फननि फनीस उलटतु ऐसे,
चोली खोलि ढोली ज्यों तमोली पाके पानकी

न्हाती जहाँ सुनयना नित बावलीमें,
छूटे उरोजतल कुंकुम नीर ही में।
श्रीखंड चित्र दृग अंजन संग साजै,
मानौ त्रिबेनि नित ही घर ही बिराजै

हाटक हंस चल्यो उड़िकै नभ में दुगुनी तन ज्योति भई।
लीक सी खैंचि गयो छन में छहराय रही छबि सोनमई।
नैनन सों निरख्यो न बनायकै कै उपमा मन माहिं लई।
स्यामल चीर मनौ पसरयो तेहि पै कल कंचन बेलि नई


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 247-48।

बाहरी कड़ियाँ

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