रसनिधि: Difference between revisions

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रसनिधि का नाम 'पृथ्वीसिंह' था और ये [[दतिया]] के एक ज़मींदार थे। इनका [[संवत्]] 1717 तक वर्तमान रहना पाया जाता है। ये अच्छे कवि थे। इन्होंने [[बिहारी सतसई]] के अनुकरण पर 'रतनहजारा' नामक दोहों का एक ग्रंथ बनाया। कहीं कहीं तो [[बिहारी]] के वाक्य तक रख लिए हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने और भी बहुत से दोहे बनाए जिनका संग्रह 'बाबू जगन्नाथ प्रसाद' (छत्रपुर) ने किया है। 'अरिल्ल और माँझों का संग्रह भी खोज में मिला है। ये [[शृंगार रस]] के कवि थे। अपने दोहों में इन्होंने [[फ़ारसी भाषा|फारसी]] कविता के भाव भरने और चतुराई दिखाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है। फारसी की आशिकी कविता के शब्द भी इन्होंने इस परिमाण में कहीं कहीं रखे हैं कि सुकवि और साहित्यिक शिष्टता को आघात पहुँचाता है। पर जिस ढंग की कविता इन्होंने की है उसमें इन्हें सफलता प्राप्त हुई है -
रसनिधि का नाम 'पृथ्वीसिंह' था और ये [[दतिया]] के एक ज़मींदार थे। इनका [[संवत्]] 1717 तक वर्तमान रहना पाया जाता है। ये अच्छे कवि थे। इन्होंने [[बिहारी सतसई]] के अनुकरण पर 'रतनहजारा' नामक दोहों का एक ग्रंथ बनाया। कहीं कहीं तो [[बिहारी]] के वाक्य तक रख लिए हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने और भी बहुत से दोहे बनाए जिनका संग्रह 'बाबू जगन्नाथ प्रसाद' (छत्रपुर) ने किया है। 'अरिल्ल और माँझों का संग्रह भी खोज में मिला है। ये [[श्रृंगार रस]] के कवि थे। अपने दोहों में इन्होंने [[फ़ारसी भाषा|फारसी]] कविता के भाव भरने और चतुराई दिखाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है। फारसी की आशिकी कविता के शब्द भी इन्होंने इस परिमाण में कहीं कहीं रखे हैं कि सुकवि और साहित्यिक शिष्टता को आघात पहुँचाता है। पर जिस ढंग की कविता इन्होंने की है उसमें इन्हें सफलता प्राप्त हुई है -
<poem>अद्भुत गति यहि प्रेम की, बैनन कही न जाय।
<poem>अद्भुत गति यहि प्रेम की, बैनन कही न जाय।
दरस भूख लागै दृगन, भूखहिं देत भगाय
दरस भूख लागै दृगन, भूखहिं देत भगाय

Latest revision as of 07:56, 7 November 2017

रसनिधि का नाम 'पृथ्वीसिंह' था और ये दतिया के एक ज़मींदार थे। इनका संवत् 1717 तक वर्तमान रहना पाया जाता है। ये अच्छे कवि थे। इन्होंने बिहारी सतसई के अनुकरण पर 'रतनहजारा' नामक दोहों का एक ग्रंथ बनाया। कहीं कहीं तो बिहारी के वाक्य तक रख लिए हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने और भी बहुत से दोहे बनाए जिनका संग्रह 'बाबू जगन्नाथ प्रसाद' (छत्रपुर) ने किया है। 'अरिल्ल और माँझों का संग्रह भी खोज में मिला है। ये श्रृंगार रस के कवि थे। अपने दोहों में इन्होंने फारसी कविता के भाव भरने और चतुराई दिखाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है। फारसी की आशिकी कविता के शब्द भी इन्होंने इस परिमाण में कहीं कहीं रखे हैं कि सुकवि और साहित्यिक शिष्टता को आघात पहुँचाता है। पर जिस ढंग की कविता इन्होंने की है उसमें इन्हें सफलता प्राप्त हुई है -

अद्भुत गति यहि प्रेम की, बैनन कही न जाय।
दरस भूख लागै दृगन, भूखहिं देत भगाय
लेहु न मजनू गोर ढिग, कोऊ लैला नाम।
दरदवंत को नेकु तौ, लेन देहु बिसराम

चतुर चितेरे तुव सबी लिखत न हिय ठहराय।
कलस छुवत कर ऑंगुरी कटी कटाछन जाय
मनगयंद छबि मद छके तोरि जँजीर भगात।
हिय के झीने तार सों सहजै ही बँधि जात



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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 237-38।

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