रसलीन: Difference between revisions

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*[[रीति काल]] के कवि रसलीन का नाम 'सैयद ग़ुलाम नबी' था।  
*[[रीति काल]] के कवि रसलीन का नाम 'सैयद ग़ुलाम नबी' था।  
*रसलीन प्रसिद्ध बिलग्राम, जिला हरदोई के रहने वाले थे, जहाँ अच्छे अच्छे विद्वान [[मुसलमान]] होते आए हैं।  
*रसलीन प्रसिद्ध बिलग्राम, ज़िला हरदोई के रहने वाले थे, जहाँ अच्छे अच्छे विद्वान [[मुसलमान]] होते आए हैं।  
*यहाँ के लोग अपने नाम के आगे 'बिलगरामी' लगाना एक बड़े सम्मान की बात समझते थे।  
*यहाँ के लोग अपने नाम के आगे 'बिलगरामी' लगाना एक बड़े सम्मान की बात समझते थे।  
*ग़ुलाम नबी ने अपने पिता का नाम 'बाकर' लिखा है।  
*ग़ुलाम नबी ने अपने पिता का नाम 'बाकर' लिखा है।  

Revision as of 07:48, 2 July 2011

  • रीति काल के कवि रसलीन का नाम 'सैयद ग़ुलाम नबी' था।
  • रसलीन प्रसिद्ध बिलग्राम, ज़िला हरदोई के रहने वाले थे, जहाँ अच्छे अच्छे विद्वान मुसलमान होते आए हैं।
  • यहाँ के लोग अपने नाम के आगे 'बिलगरामी' लगाना एक बड़े सम्मान की बात समझते थे।
  • ग़ुलाम नबी ने अपने पिता का नाम 'बाकर' लिखा है।
  • इन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'अंग दर्पण' संवत 1794 में लिखी जिसमें अंगों का, उपमा उत्प्रेक्षा से युक्त चमत्कारपूर्ण वर्णन है। सूक्तियों के चमत्कार के लिए यह ग्रंथ काव्य रसिकों में विख्यात चला आया है। यह प्रसिद्ध दोहा जिसे जनसाधारण बिहारी का समझा करते हैं, 'अंग दर्पण' का ही है -

अमिय हलाहल मदभरे सेत स्याम रतनार।
जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवत इक बार

  • 'अंगदर्पण' के अतिरिक्त रसलीन ने संवत 1798 में 'रस प्रबोध' नामक रस निरूपण का ग्रंथ दोहों में बनाया। इसमें 1155 दोहे हैं और रस, भाव, नायिका भेद, षट्ऋतु, बारहमासा आदि अनेक प्रसंग आए हैं। रसविषय का अपने ढंग का यह छोटा सा अच्छा ग्रंथ है। रसलीन ने स्वयं कहा है कि इस छोटे से ग्रंथ को पढ़ लेने पर रस का विषय जानने के लिए और ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता न रहेगी। किंतु यह ग्रंथ अंग दर्पण के समान प्रसिद्ध न हुआ।
  • रसलीन ने अपने को दोहों की रचना तक ही रखा। चमत्कार और उक्ति वैचित्रय की ओर इन्होंने अधिक ध्यान रखा -

धारति न चौकी नगजरी यातें उर में लाय।
छाँह परे पर पुरुष की जनि तिय धरम नसाय
चख चलि स्रवन मिल्यो चहत कच बढ़ि छुवन छवानि।
कटि निज दरब धारयो चहत वक्षस्थल में आनि
कुमति चंद प्रति द्यौस बढ़ि मास मास कढ़ि आय।
तुव मुख मधुराई लखे फीको परि घटि जाय
रमनी मन पावत नहीं लाज प्रीति को अंत।
दुहुँ ओर ऐंचो रहै, जिमि बिबि तिय को कंत
तिय सैसव जोबन मिले भेद न जान्यो जात।
प्रात समय निसि द्यौस के दुवौ भाव दरसात



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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