मणिदेव: Difference between revisions
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Revision as of 10:18, 10 August 2011
मणिदेव बंदीजन भरतपुर राज्य के 'जहानपुर' नामक गाँव के रहनेवाले थे और अपनी विमाता के दुर्व्यवहार से रुष्ट होकर काशी चले आए थे। काशी में वे गोकुलनाथ जी के यहाँ ही रहते थे। और स्थानों पर भी उनका बहुत मान हुआ था। जीवन के अंतिम दिनों में वे कभी कभी विक्षिप्त भी हो जाया करते थे। उनका परलोकवास संवत् 1920 में हुआ।
गोकुलनाथ, गोपीनाथ और मणिदेव, इन तीनों महानुभावों ने मिलकर हिन्दी साहित्य में बड़ा भारी काम किया है। इन्होंने समग्र महाभारत और हरिवंश [1] का अनुवाद अत्यंत मनोहर विविध छंदों में पूर्ण कवित्त के साथ किया है। कथा प्रबंध का इतना बड़ा काव्य हिन्दी साहित्य में दूसरा नहीं बना। यह लगभग दो हजार पृष्ठों में समाप्त हुआ है। इतना बड़ा ग्रंथ होने पर भी न तो इसमें कहीं शिथिलता आई है और न ही रोचकता और काव्यगुण में कमी हुई है। छंदों का विधान इन्होंने ठीक उसी रीति से किया है जिस रीति से इतने बड़े ग्रंथ में होना चाहिए। जो छंद उठाया है उसका कुछ दूर तक निर्वाह किया है। केशवदास की तरह छंदों का तमाशा नहीं दिखाया है। छंदों का चुनाव भी बहुत उत्तम हुआ है। रूपमाला, घनाक्षरी, सवैया आदि मधुर छंद अधिक रखे गए हैं, बीच बीच में दोहे और चौपाइयाँ भी हैं। भाषा प्रांजल और सुव्यवस्थित है। अनुप्रास का अधिक आग्रह न होने पर भी आवश्यक विधान है। रचना सब प्रकार से साहित्यिक और मनोहर है और लेखकों की काव्यकुशलता का परिचय देती है। इस ग्रंथ के बनने में भी पचास वर्ष से ऊपर लगे हैं। अनुमानत: इसका आरंभ संवत् 1830 में हो चुका था और संवत् 1884 में जाकर समाप्त हुआ है। इसकी रचना काशी नरेश महाराज उदितनारायण सिंह की आज्ञा से हुई जिन्होंने इसके लिए लाखों रुपये व्यय किए। इस बड़े भारी साहित्यिक यज्ञ के अनुष्ठान के लिए हिन्दी प्रेमी उक्त महाराज के सदा कृतज्ञ रहेंगे।
बचन यह सुनि कहत भो चक्रांग हंस उदार।
उड़ौगे मम संग किमि तुम कहहु सो उपचार
खाय जूठो पुष्ट, गर्वित काग सुनि ये बैन।
कह्यौ जानत उड़न की शत रीति हम बल ऐन
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो महाभारत का ही परिशिष्ट माना जाता है
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 254-55।
बाहरी कड़ियाँ
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