रामचंद्र: Difference between revisions
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Latest revision as of 12:25, 8 January 2012
रामचंद्र ने अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया है। 'भाषा महिम्न' के कर्ता काशीवासी मनियारसिंह ने अपने को 'चाकर अखंडित श्री रामचंद्र पंडित के' लिखा है। मनियारसिंह ने अपना 'भाषा महिम्न' संवत् 1841 में लिखा। अत: इनका समय संवत् 1840 माना जा सकता है। इनकी एक पुस्तक 'चरणचंद्रिका' ज्ञात है। जिस पर इनका सारा यश स्थिर है। यह भक्तिरसात्मक ग्रंथ केवल 62 कवित्तों का है। इसमें पार्वती जी के चरणों का वर्णन अत्यंत रुचिकर और अनूठे ढंग से किया गया है। इस वर्णन से अलौकिक सुषमा, विभूति, शक्ति और शांति फूटी पड़ती है। उपास्य के एक अंग में अनंत ऐश्वर्य की भावना भक्ति की चरम भावुकता के भीतर ही संभव है। भाषा लाक्षणिक और पांडित्यपूर्ण है। -
नूपुर बजत मानि मृग से अधीन होत,
मीन होत जानि चरनामृत झरनि को।
खंजन से नचैं देखि सुषमा सरद की सी,
सचैं मधुकर से पराग केसरनि को
रीझि रीझि तेरी पदछबि पै तिलोचन के
लोचन ये, अंब! धारैं केतिक धारनि को।
फूलत कुमुद से मयंक से निरखि नख;
पंकज से खिलै लखि तरवा तरनि को
मानिए करींद्र जो हरींद्र को सरोष हरै,
मानिए तिमिर घेरै भानु किरनन को।
मानिए चटक बाज जुर्रा को पटकि मारै,
मानिए झटकि डारै भेक भुजगन को
मानिए कहै जो वारिधार पै दवारि औ
अंगार बरसाइबो बतावै बारिदन को।
मानिए अनेक विपरीत की प्रतीति, पै न
भीति आई मानिए भवानी - सेवकनको
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 256।
बाहरी कड़ियाँ
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