पंचजन (शंखासुर): Difference between revisions
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*कृष्ण को अद्वितीय मान गुरु दक्षिणा में संदीपन ने कृष्ण से मांगा कि उनका पुत्र प्रभास | *कृष्ण को अद्वितीय मान गुरु दक्षिणा में संदीपन ने कृष्ण से मांगा कि उनका पुत्र [[प्रभास]] में [[जल]] में डूबकर मर गया था, वे उसे पुनजीर्वित कर दें। | ||
*बलराम और कृष्ण प्रभास क्षेत्र के समुद्र तट पर गए और सागर जल से कहा कि वे गुरु के पुत्र को लौटा दें। | *बलराम और कृष्ण प्रभास क्षेत्र के समुद्र तट पर गए और सागर जल से कहा कि वे गुरु के पुत्र को लौटा दें। | ||
*सागर ने उत्तर दिया और बोला कि यहाँ पर कोई बालक नहीं है। | *सागर ने उत्तर दिया और बोला कि यहाँ पर कोई बालक नहीं है। |
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चित्र:Disamb2.jpg पंचजन | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- पंचजन (बहुविकल्पी) |
पंचजन सागर का एक दैत्य था, जिसे शंखासुर नाम से भी जाना जाता था। कृष्ण ने अपने गुरु संदीपन को गुरु दक्षिणा में गुरु पुत्र को वापस लाने का वचन दिया था, जो सागर में डूबकर मृत्यु को प्राप्त हो गया था। पंचजन राक्षस की तलाश में श्री कृष्ण सागर में उतरे और उन्होंने उसका वध किया।
- गुरु संदीपन के आश्रम में कृष्ण-बलराम और सुदामा ने वेद-पुराण का अध्ययन प्राप्त किया था।
- कृष्ण को अद्वितीय मान गुरु दक्षिणा में संदीपन ने कृष्ण से मांगा कि उनका पुत्र प्रभास में जल में डूबकर मर गया था, वे उसे पुनजीर्वित कर दें।
- बलराम और कृष्ण प्रभास क्षेत्र के समुद्र तट पर गए और सागर जल से कहा कि वे गुरु के पुत्र को लौटा दें।
- सागर ने उत्तर दिया और बोला कि यहाँ पर कोई बालक नहीं है।
- सागर ने बताया कि पंचजन नामक सागर दैत्य, जो शंखासुर नाम से भी प्रसिद्ध है, उसने सम्भवतया बालक को चुरा लिया होगा।
- कृष्ण बालक की खोज में सागर में उतरे, दैत्य को तलाशा और उसे मार डाला।
- दैत्य का उदर चीरा तो कृष्ण को वहाँ पर कोई बालक नहीं मिला।
- शंखासुर के शरीर का शंख लेकर कृष्ण और बलराम यम के पास पहुँचे।
- यमलोक में शंख बजाने पर अनेक गण उत्पन्न हो गए।
- यमराज ने कृष्ण की माँग पर गुरु पुत्र उन्हें लौटा दिया।
- वे बालक के साथ गुरु संदीपन के पास गए और गुरु पुत्र के रूप में गुरु को गुरु दक्षिणा दी।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 459 |
- ↑ श्रीमदभागवत, 10/45, हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, अध्याय 33