श्री हठी: Difference between revisions

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श्री हठी [[हितहरिवंश|श्री हितहरिवंश जी]] की शिष्य परंपरा में बड़े ही साहित्य मर्मज्ञ और कला कुशल कवि हो गए हैं। इन्होंने [[संवत्]] 1837 में 'राधासुधाशतक' बनाया जिसमें 11 दोहे और 103 कवित्त सवैया हैं। अधिकांश भक्तों की अपेक्षा इनमें विशेषता यह है कि इन्होंने कला पक्ष पर भी पूरा जोर दिया है। इनकी रचना में यमक, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि [[अलंकार|अलंकारों]]का बाहुल्य पाया जाता है। पर साथ ही [[भाषा]] या वाक्य विन्यास में लद्धड़पन नहीं आने पाया है। वास्तव में 'राधासुधाशतक' छोटा होने पर भी अपने ढंग का अनूठा ग्रंथ है। [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]] को यह ग्रंथ अत्यंत प्रिय था। उससे कुछ अवतरण नीचे दिए जाते हैं -   
श्री हठी [[हितहरिवंश|श्री हितहरिवंश जी]] की शिष्य परंपरा में बड़े ही साहित्य मर्मज्ञ और कला कुशल कवि हो गए हैं। इन्होंने [[संवत्]] 1837 में 'राधासुधाशतक' बनाया जिसमें 11 दोहे और 103 कवित्त सवैया हैं। अधिकांश भक्तों की अपेक्षा इनमें विशेषता यह है कि इन्होंने कला पक्ष पर भी पूरा ज़ोर दिया है। इनकी रचना में यमक, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि [[अलंकार|अलंकारों]]का बाहुल्य पाया जाता है। पर साथ ही [[भाषा]] या वाक्य विन्यास में लद्धड़पन नहीं आने पाया है। वास्तव में 'राधासुधाशतक' छोटा होने पर भी अपने ढंग का अनूठा ग्रंथ है। [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]] को यह ग्रंथ अत्यंत प्रिय था। उससे कुछ अवतरण नीचे दिए जाते हैं -   
<poem>कलप लता के किधौं पल्लव नवीन दोऊ,
<poem>कलप लता के किधौं पल्लव नवीन दोऊ,
हरन मंजुता के कंज ताके बनिता के हैं।
हरन मंजुता के कंज ताके बनिता के हैं।

Latest revision as of 14:44, 27 May 2012

श्री हठी श्री हितहरिवंश जी की शिष्य परंपरा में बड़े ही साहित्य मर्मज्ञ और कला कुशल कवि हो गए हैं। इन्होंने संवत् 1837 में 'राधासुधाशतक' बनाया जिसमें 11 दोहे और 103 कवित्त सवैया हैं। अधिकांश भक्तों की अपेक्षा इनमें विशेषता यह है कि इन्होंने कला पक्ष पर भी पूरा ज़ोर दिया है। इनकी रचना में यमक, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारोंका बाहुल्य पाया जाता है। पर साथ ही भाषा या वाक्य विन्यास में लद्धड़पन नहीं आने पाया है। वास्तव में 'राधासुधाशतक' छोटा होने पर भी अपने ढंग का अनूठा ग्रंथ है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को यह ग्रंथ अत्यंत प्रिय था। उससे कुछ अवतरण नीचे दिए जाते हैं -

कलप लता के किधौं पल्लव नवीन दोऊ,
हरन मंजुता के कंज ताके बनिता के हैं।
पावन पतित गुन गावैं मुनि ताके छबि
छलै सबिता के जनता के गुरुताके हैं
नवौं निधि ताके सिद्ध ता के आदि आलै हठी,
तीनौ लोकता के प्रभुता के प्रभु ताके हैं।
कटै पाप ताकै बढ़ै पुन्य के पताके जिन,
ऐसे पद ताके वृषभानु की सुता के हैं

गिरि कीजै गोधान मयूर नव कुंजन को,
पसु कीजै महराज नंद के नगर को।
नर कौन, तौन जौन राधो राधो नाम रटै,
तट कीजै बर कूल कालिंदी कगर को
इतने पै जोई कछु कीजिए कुँवर कान्ह,
राखिए न आन फेर हठी के झगर को।
गोपी पद पंकज पराग कीजै महाराज,
तृन कीजै रावरेई गोकुल नगर को



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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 247।

बाहरी कड़ियाँ

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