ध्रुवदास: Difference between revisions

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'''ध्रुवदास''' स्वप्न में [[हितहरिवंश|श्री हितहरिवंश जी]] के शिष्य  हुए थे। इसके अतिरिक्त इनका कुछ जीवनवृत्त नहीं प्राप्त हुआ है। ये अधिकतर [[वृंदावन]] ही में रहा करते थे। इनकी रचना बहुत ही विस्तृत है और इन्होंने पदों के अतिरिक्त दोहे, चौपाई, कवित्त, सवैये आदि अनेक छंदों में भक्ति और प्रेमतत्व का वर्णन किया है।  
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Revision as of 14:39, 10 September 2012

ध्रुवदास स्वप्न में श्री हितहरिवंश जी के शिष्य हुए थे। इसके अतिरिक्त इनका कुछ जीवनवृत्त नहीं प्राप्त हुआ है। ये अधिकतर वृंदावन ही में रहा करते थे। इनकी रचना बहुत ही विस्तृत है और इन्होंने पदों के अतिरिक्त दोहे, चौपाई, कवित्त, सवैये आदि अनेक छंदों में भक्ति और प्रेमतत्व का वर्णन किया है।

रचनाएँ

छोटे मोटे सब मिलाकर इनके लगभग चालीस ग्रंथ मिले हैं जिनके नाम ये हैं - वृंदावनसत, सिंगारसत, रसरत्नावली, नेहमंजरी, रहस्यमंजरी, सुखमंजरी, रतिमंजरी, वनविहार, रंगविहार, रसविहार, आनंददसाविनोद, रंगविनोद, नृत्यविलास, रंगहुलास, मानरसलीला, रहसलता, प्रेमलता, प्रेमावली, भजनकुंडलिया, भक्तनामावली, मनसिंगार, भजनसत, प्रीतिचौवनी, रसमुक्तावली, बामन बृहत् पुराण की भाषा, सभा मंडली, रसानंदलीला, सिध्दांतविचार, रसहीरावली, हित सिंगार लीला, ब्रजलीला, आनंदलता, अनुरागलता, जीवदशा, वैद्यलीला, दानलीला, व्याहलो।

समय

नाभा जी के भक्तमाल के अनुकरण पर इन्होंने 'भक्तनामावली' लिखी है जिसमें अपने समय तक के भक्तों का उल्लेख किया है। इनकी कई पुस्तकों में संवत् दिए हैं जैसे - सभामंडली 1681, वृंदावनसत 1686 और रसमंजरी 1698। अत: इनका रचनाकाल संवत् 1660 से 1700 तक माना जा सकता है। इनकी रचना के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं

रूपजल उठत तरंग हैं कटाछन के,
अंग अंग भौंरन की अति गहराई है।
नैनन को प्रतिबिंब परयो है कपोलन में,
तेई भए मीन तहाँ, ऐसी उर आई है
अरुन कमल मुसुकान मानो फबि रही,
थिरकन बेसरि के मोती की सुहाई है।
भयो है मुदित सखी लाल को मराल मन,
जीवन जुगल ध्रुव एक ठाँव पाई है[1]

प्रेम बात कछु कहि नहिं जाई । उलटी चाल तहाँ सब भाई
प्रेम बात सुनि बौरो होई। तहाँ सयान रहै नहिं कोई
तन मन प्रान तिही छिनहारे । भली बुरी कछुवै न विचारे
ऐसो प्रेम उपजिहै जबहीं । हित ध्रुव बात बनैगी तबहीं [2]

बहु बीती थोरी रही, सोऊ बीती जाय।
हित ध्रुव बेगि बिचारि कै बसि वृंदावन आय
बसि वृंदावन आय त्यागि लाजहि अभिमानहि।
प्रेमलीन ह्वै दीन आपको तृन सम जानहि
सकल सार कौ सार, भजन तू करि रस रीती।
रे मन सोच विचार, रही थोरी, बहु बीती[3]


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प्रारम्भिक
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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'सिंगारसत' से
  2. 'नेहमंजरी' से
  3. 'भजनसत' से

आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 5”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 136।

बाहरी कड़ियाँ

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