जय अखंड भारत -आरसी प्रसाद सिंह: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
('{{पुनरीक्षण}} {| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
m (Text replace - "गलत" to "ग़लत")
 
Line 42: Line 42:


रोग, पावक, पाप, रिपु प्रारंभ में लघु हों भले ही किन्तु, वे ही अंत में दुर्दम्य हो जाते उमड़कर ।
रोग, पावक, पाप, रिपु प्रारंभ में लघु हों भले ही किन्तु, वे ही अंत में दुर्दम्य हो जाते उमड़कर ।
पूर्व इस भय के की वातावरण में विष फैल जाए, विषधरों के विष उगलते दंश को रख दो कुचलकर ।
पूर्व इस भय के की वातावरण में विष फैल जाए, विषधरों के विष उग़लते दंश को रख दो कुचलकर ।


झेलते तूफ़ान ऐसे सैकड़ो आए युगों से, हम इसे भी ऐतिहासिक भूमिका में झेल लेंगे ।
झेलते तूफ़ान ऐसे सैकड़ो आए युगों से, हम इसे भी ऐतिहासिक भूमिका में झेल लेंगे ।

Latest revision as of 14:19, 1 October 2012

चित्र:Icon-edit.gif इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"
जय अखंड भारत -आरसी प्रसाद सिंह
कवि आरसी प्रसाद सिंह
जन्म 19 अगस्त 1911
जन्म स्थान एरौत गाँव, बिहार
मृत्यु 15 नवंबर 1996
मुख्य रचनाएँ नन्ददास, रजनीगंधा
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
आरसी प्रसाद सिंह की रचनाएँ

शक्ति ऐसी है नहीं संसार में कोई कहीं पर, जो हमारे देश की राष्ट्रीयता को अस्त कर दे ।
ध्वान्त कोई है नहीं आकाश में ऐसा विरोधी, जो हमारी एकता के सूर्य को विध्वस्त कर दे !

राष्ट्र की सीमांत रेखाएँ नहीं हैं बालकों के खेल का कोई घरौंदा, पाँव से जिसको मिटा दे ।
देश की स्वाधीनता सीता सुरक्षित है, किसी दश-कंठ का साहस नहीं, ऊँगली कभी उसपर उठा दे ।

देश पूरा एक दिन हुंकार भी समवेत कर दे, तो सभी आतंकवादियों का बगुला टूट जाए ।
किन्तु, ऐसा शील भी क्या, देखता सहता रहे जो आततायी मातृ-मंदिर की धरोहर लूट जाए ।

रोग, पावक, पाप, रिपु प्रारंभ में लघु हों भले ही किन्तु, वे ही अंत में दुर्दम्य हो जाते उमड़कर ।
पूर्व इस भय के की वातावरण में विष फैल जाए, विषधरों के विष उग़लते दंश को रख दो कुचलकर ।

झेलते तूफ़ान ऐसे सैकड़ो आए युगों से, हम इसे भी ऐतिहासिक भूमिका में झेल लेंगे ।
किन्तु, बर्बर और कायरता कलंकित कारनामों की पुनरावृति को निश्चेष्ट होकर हम सहेंगे ।

संबंधित लेख