भिखारी दास: Difference between revisions

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लाज को अंचै कै, कुलधरम पचै कै, वृथा
लाज को अंचै कै, कुलधरम पचै कै, वृथा
बंधान सँचै कै भई मगन गोपाल में</poem></blockquote>
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Revision as of 09:04, 2 January 2015

[[चित्र:Bhikharidas keertistambh pratapgarh.jpg|200px|thumb|right|प्रतापगढ़ के टेउंगा ग्राम में स्थित आचार्य भिखारीदास जी का कीर्तिस्तंभ]] भिखारी दास रीति काल के कवि थे जो प्रतापगढ़, अवध के पास टयोंगा गाँव के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने अपना वंश परिचय दिया है। इनके पिता कृपालदास, पितामह वीरभानु, प्रपितामह राय रामदास और वृद्ध प्रपितामह राय नरोत्तम दास थे। भिखारी दास जी के पुत्र अवधेश लाल और पौत्र गौरीशंकर थे जिनके अपुत्र मर जाने से वंश परंपरा खंडित हो गई। भिखारी दास जी के निम्न ग्रंथों का पता लगा है -

  1. रससारांश संवत [1],
  2. छंदार्णव पिंगल [2]
  3. काव्यनिर्णय [3],
  4. शृंगार निर्णय [4],
  5. नामप्रकाश कोश [5],
  6. विष्णुपुराण भाषा [6];
  7. छंद प्रकाश,
  8. शतरंजशतिका,
  9. अमरप्रकाश [7]

कविता काल

'काव्यनिर्णय' में भिखारी दास जी ने प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीसिंह के भाई बाबू हिंदूपतिसिंह को अपना आश्रयदाता लिखा है। राजा पृथ्वीपति संवत 1791 में गद्दी पर बैठे थे और 1807 में दिल्ली के वज़ीर सफदरजंग द्वारा छल से मारे गए थे। ऐसा जान पड़ता है कि संवत 1807 के बाद इन्होंने कोई ग्रंथ नहीं लिखा अत: इनका कविता काल संवत 1785 से लेकर संवत 1807 तक माना जा सकता है।

काव्यांगों का निरूपण

काव्यांगों के निरूपण में भिखारी दास को सर्वप्रधान स्थान दिया जाता है क्योंकि इन्होंने छंद, रस, अलंकार, रीति, गुण, दोष शब्दशक्ति आदि सब विषयों का औरों से विस्तृत प्रतिपादन किया है। इनकी विषय प्रतिपादन शैली उत्तम है और आलोचनशक्ति भी इनमें कुछ पाई जाती है; जैसे हिन्दी काव्यक्षेत्र में इन्हें परकीया के प्रेम की प्रचुरता दिखाई पड़ी, जो रस की दृष्टि से रसाभास के अंतर्गत आता है। बहुत से स्थलों पर तो राधाकृष्ण का नाम आने से देवकाव्य का आरोप हो जाता है और दोष का कुछ परिहार हो जाता है, पर सर्वत्र ऐसा नहीं होता। इससे भिखारी दास ने स्वकीया का लक्षण ही कुछ अधिक व्यापक करना चाहा और कहा,

श्रीमाननि के भौन में भोग्य भामिनी और।
तिनहूँ को सुकियाह में गनैं सुकवि सिरमौर

साहित्यदर्पण में नायिकाओं के स्वभावज अलंकार 18 कहे गए हैं - लीला, विलास, विच्छित्ति, विव्वोक, किलकिंचित, मोट्टायित्ता, कुट्टमित्ता, विभ्रम, ललित, विहृत, मद, तपन, मौग्धय, विक्षेप, कुतूहल, हसित, चकित और केलि। इनमें से अंतिम आठ को लेकर भिखारी दास ने भाषा में प्रचलित दस हावों में जोड़ दिया। इन्हें जानने के लिए हिन्दी में संस्कृत के मुख्य सिध्दांत ग्रंथों के सब विषयों का यथावत समावेश कर साहित्यशास्त्र का सम्यक् अध्ययन करना होगा।

भिखारी दास का आचार्यत्व

देव की भाँति भिखारी दास का स्थान है। यद्यपि इस क्षेत्र में औरों को देखते भिखारी दास ने अधिक काम किया है, पर सच्चे आचार्य का पूरा रूप इन्हें भी प्राप्त नहीं हो पाया है। परिस्थिति से ये भी लाचार थे। इनके लक्षण भी व्याख्या के बिना अपर्याप्त और कहीं कहीं भ्रामक हैं और उदाहरण भी कुछ स्थलों पर अशुद्ध हैं। जैसे - उपादान लक्षणा, इसका लक्षण भी अशुद्ध है और उसी के अनुरूप उदाहरण भी अशुद्ध है। अत: भिखारी दास भी औरों के समान वस्तुत: कवि के रूप में ही हमारे सामने आते हैं।

परिमार्जित भाषा

भिखारी दास ने साहित्यिक और परिमार्जित भाषा का व्यवहार किया है। शृंगार ही उस समय का मुख्य विषय था। देव ने भिन्न भिन्न देशों और जातियों की स्त्रियों के वर्णन के लिए 'जातिविलास' लिखा, जिसमें नाइन, धोबिन, सब हैं, पर भिखारी दास ने रसाभाव या मर्यादा का ध्यान रख इनको आलंबन के रूप में न रखकर दूती के रूप में रखा है। इनके 'रससारांश' में नाइन, नटिनी, धोबिन, कुम्हारिन, बरइन, सब प्रकार की दूतियाँ हैं।

शैली

भिखारी दास में देव की अपेक्षा अधिक रसविवेक था। इनका 'शृंगारनिर्णय' अपने ढंग का अनूठा काव्य है। उदाहरण मनोहर और सरस है। भाषा में शब्दाडंबर नहीं है। न ये शब्द चमत्कार पर टूटे हैं, न दूर की सूझ के लिए व्याकुल हुए हैं। इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भावपक्ष में रंजनकारिणी है। विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त इन्होंने नीति की सूक्तियाँ भी बहुत सी कही हैं जिनमें उक्ति वैचित्रय अपेक्षित होता है। देव की सी ऊँची आकांक्षा या कल्पना जिस प्रकार इनमें कम पाई जाती है उसी प्रकार उनकी सी असफलता भी कहीं नहीं मिलती। जिस बात को ये जिस ढंग से,चाहे वह ढंग बहुत विलक्षण न हो, कहना चाहते थे उस बात को उस ढंग से कहने की पूरी सामर्थ्य इनमें थी।

वाही घरी तें न सान रहै, न गुमान रहै, न रहै सुघराई।
दास न लाज को साज रहै न रहै तनकौ घरकाज की घाई
ह्याँ दिखसाधा निवारे रहौ तब ही लौ भटू सब भाँति भलाई।
देखत कान्हैं न चेत रहै, नहिं चित्त रहै, न रहै चतुराई

नैनन को तरसैए कहाँ लौं, कहाँ लौ हियो बिरहागि मै तैए।
एक घरी न कहूँ कल पैए, कहाँ लगि प्रानन को कलपैए?
आवै यही अब जी में बिचार सखी चलि सौति हुँ, कै घर जैए।
मान घटै ते कहा घटि है जु पै प्रानपियारे को देखन पैए

ऊधो! तहाँई चलौ लै हमें जहँ कूबरि कान्ह बसैं एक ठौरी।
देखिए दास अघाय अघाय तिहारे प्रसाद मनोहर जोरी
कूबरी सों कछु पाइए मंत्र, लगाइए कान्ह सों प्रीति की डोरी।
कूबरिभक्ति बढ़ाइए बंदि, चढ़ाइए चंदन बंदन रोरी

कढ़ि कै निसंक पैठि जाति झुंड झुंडन में,
लोगन को देखि दास आनंद पगति है।
दौरि दौरि जहीं तहीं लाल करि डारति है,
अंक लगि कंठ लगिबे को उमगति है
चमक झमक वारी, ठमक जमक वारी,
रमक तमक वारी ज़ाहिर जगति है।
राम! असि रावरे की रन में नरन में,
निलज बनिता सी होरी खेलन लगति है

अब तो बिहारी के वे बानक गए री, तेरी
तन दूति केसर को नैन कसमीर भो।
श्रौन तुव बानी स्वाति बूँदन के चातक भे,
साँसन को भरिबो दु्रपदजा को चीर भो
हिय को हरष मरु धारनि को नीर भो, री!
जियरो मनोभव सरन को तुनीर भो।
एरी! बेगि करि कैं मिलापु थिर थापु, न तौ
आपु अब चहत अतनु को सरीर भो

अंखियाँ हमारी दईमारी सुधि बुधि हारीं,
मोहूँ तें जु न्यारी दास रहै सब काल में।
कौन गहै ज्ञानै, काहि सौंपत सयाने, कौन
लोक ओक जानै, ये नहीं हैं निज हाल में
प्रेम पगि रही, महामोह में उमगि रहीं,
ठीक ठगि रहीं, लगि रहीं बनमाल में।
लाज को अंचै कै, कुलधरम पचै कै, वृथा
बंधान सँचै कै भई मगन गोपाल में


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रससारांश 1799
  2. छंदार्णव पिंगल संवत 1799
  3. काव्यनिर्णय संवत 1803
  4. शृंगारनिर्णय संवत 1807
  5. नामप्रकाश कोश संवत 1795
  6. विष्णुपुराण भाषा दोहे चौपाई में
  7. संस्कृत अमरकोष भाषा पद्य में

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