कुंतक

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कुंतक अलंकारशास्त्र के एक मौलिक विचारक विद्वान। ये अभिधावादी आचार्य थे। इनका काल निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हैं, किंतु विभिन्न अलंकार ग्रंथों के अंत:साक्ष्य के आधार पर ऐसा समझा जाता है कि ये दसवीं शती ई. के आसपास ये हुए होंगे।[1]

  • कुंतक अभिधावादी आचार्य थे, जिनकी दृष्टि में अभिधा शक्ति ही कवि के अभीष्ट अर्थ के द्योतन के लिए सर्वथा समर्थ होती है। परंतु यह अभिधा संकीर्ण आद्या शब्दवृत्ति नहीं है। अभिधा के व्यापक क्षेत्र के भीतर लक्षण और व्यंजना का भी अंतर्भाव पूर्ण रूप से हो जाता है। वाचक शब्द द्योतक तथा व्यंजक उभय प्रकार के शब्दों का उपलक्षण है। दोनों में समान धर्म अर्थप्रतीतिकारिता है। इसी प्रकार प्रत्येयत्व (ज्ञेयत्व) धर्म के सादृश्य से द्योत्य और व्यंग्य अर्थ भी उपचारदृष्ट्या वाच्य कहे जा सकते हैं। इस प्रकार कुंतक अभिधा की सर्वातिशायिनी सत्ता स्वीकार करने वाले आचार्य थे।
  • उनकी एकमात्र रचना 'वक्रोक्तिजीवित' है, जो अधूरी ही उपलब्ध हैं। वक्रोक्ति को वे काव्य का जीवित अंश (जीवन, प्राण) मानते थे। पूरे ग्रंथ में वक्रोक्ति के स्वरूप तथा प्रकार का बड़ा ही प्रौढ़ तथा पांडित्यपूर्ण विवेचन है। 'वक्रोक्ति' का अर्थ है- 'वदैग्ध्यभंगीभणिति' अर्थात 'सर्वसाधारण द्वारा प्रयुक्त वाक्य से विलक्षण कथनप्रकार'।

वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगीभणितिरु च्यते।[2]

  • कविकर्म की कुशलता का नाम है- वैदग्ध्य या विदग्धता। 'भंगी' का अर्थ है- 'विच्छित', 'चमत्कार' या 'चारुता'। भणिति से तात्पर्य है- 'कथन प्रकार'। इस प्रकार वक्रोक्ति का अभिप्राय है- "कविकर्म की कुशलता से उत्पन्न होने वाले चमत्कार के ऊपर आश्रित रहने वाला कथन प्रकार"।
  • कुंतक का सर्वाधिक आग्रह कविकौशल या कविव्यापार पर है अर्थात्‌ इनकी दृष्टि में काव्य कवि के प्रतिभाव्यापार का सद्य:प्रसूत फल हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुंतक (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 18 जून, 2014।
  2. वक्रोक्तिजीवित 1।10

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