इंद्रद्युम्न (मालवा नरेश)

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इंद्रद्युम्न नामक एक मालवा के राजा का उल्लेख पुराणों में मिलता है, जो भगवान विष्णु का भक्त था। उज्जयिनी उसकी राजधानी थी।

  • एक दिन इंद्रद्युम्न को पता चला कि नीलांचल (पुरी, उड़ीसा) पर एक विष्णु मूर्ति है, जिसकी देवता पूजा करते हैं। वह मूर्ति के दर्शनों के लिए चल पड़ा। उसके पहुंचने से पहले ही देवता मूर्ति को स्वर्ग ले जा चुके थे। राजा इंद्रद्युम्न को बहुत निराशा हुई। उसी समय आकाशवाणी हुई कि "तुमको अब काष्ठ प्रतिमा के रूप में जगन्नाथ जी दर्शन देंगे।"
  • इंद्रद्युम्न दर्शनों की आशा में नीलांचल के पास ही रहने लगा। एक दिन उसे समुद्र में बड़ी लकड़ी तैरती दिखाई दी। राजा ने इसी काष्ठ से कृष्ण और बहन सुभद्रा की मूर्ति बनाने का कार्य एक वृद्ध बढ़ई को सौंप दिया। बढ़ई और कोई नहीं स्वयं विश्वकर्मा थे।
  • बढ़ई इस शर्त पर बंद कमरे में मूर्तियां बनाने को तैयार हो गया कि उसके कहने पर ही कमरा खोला जाएगा। जब कई दिन तक बढ़ई ने कमरा खोलने के लिए नहीं कहा तो राजा की रानी गुंडीचा को चिंता हुई और उसने कमरा खुलवा दिया। बढ़ई अंतर्ध्यान हो चुका था और तीनों मूर्तियां अधबनी थीं। उसी समय राजा के कानों में आवाज पड़ी कि हमारी इच्छा अधबनी मूर्तियों में ही रहने की है। उसने मंदिर का निर्माण कराया और मूर्तियों की स्थापना की। यही पुरी का वर्तमान जगन्नाथ मंदिर है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 87 |

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