जेता मीठा बोलणा, तेता साध न जाणि । पहली थाह दिखाइ करि, उंडै देसी आणि ॥1॥ उज्ज्वल देखि न धीजिये, बग ज्यूं मांडै ध्यान । धौरे बैठि चपेटसी, यूं ले बूड़ै ग्यान ॥2॥ `कबीर' संगत साध की, कदे न निरफल होइ । चंदन होसी बांवना,नींब न कहसी कोइ ॥3॥ `कबीर' संगति साध की, बेगि करीजै जाइ । दुर्मति दूरि गंवाइसी, देसी सुमति बताइ ॥4॥ मथुरा जाउ भावै द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ । साध-संगति हरि-भगति बिन, कछू न आवै हाथ ॥5॥ मेरे संगी दोइ जणा, एक वैष्णौ एक राम । वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम ॥6॥ `कबीर' बन बन में फिरा, कारणि अपणैं राम । राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सबरे काम ॥7॥ जानि बूझि सांचहि तजै, करैं झूठ सूं नेहु । ताकी संगति रामजी, सुपिनें ही जिनि देहु ॥8॥ `कबीर' तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै । नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजन को सहै ॥9॥