नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते । उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते । ताब बेताब हुई हठ भी हटी नाम अभिमान का भी छोड़ दिया । देखा तो थी माया की डोर कटी सुना व' कहते हैं, हाँ खूब किया । पर अहो पास छोड़ आते ही वह सब भूत फिर सवार हुए । मुझे गफलत में ज़रा पाते ही फिर वही पहले के से वार हुए । एक भी हाथ सँभाला न गया और कमज़ोरों का बस क्या है । कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया, मुझे दु:ख देने में जस क्या है । रात को सोते य' सपना देखा कि व' कहते हैं "तुम हमारे हो भला अब तो मुझे अपना देखा, कौन कहता है कि तुम हारे हो । अब अगर कोई भी सताये तुम्हें तो मेरी याद वहीं कर लेना नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें प्रेम के भाव तुर्त भर लेना" ।