Revision as of 09:00, 27 January 2022 by रविन्द्र प्रसाद(talk | contribs)('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र=Neelam-Prabha.j...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कोई सौ एक बरस से पहले की बात है
इक रोज़ -
कातिब फुरसत में
अपने आरामगाह के पास बहती
धनक की झील में
अपनी कलम डुबो कर
बड़े सुकून, बड़ी तबीयत से
लकीरें खींच रहा था
और खींचता गया
फिर सारी लकीरें का गट्ठर बांधकर
पांच आबे-रवां की जमीन पर बसे
गुजरांवाला की मिट्टी की कोख में रख दिया
जहां से निकला
जिंदगी की छेनी से तराशा गया
वो मुजस्सिमा
इश्क की पाक दास्तान का
आबे-हयात सी सूरत
चांदनी में सरापा तर -ब -तर
धूप ने बांहों में भरकर कहा -
"तू जबतक चाहे
अपनी मर्ज़ी से जी
कि मौत की दस्तक से
तेरे नाम का बुलंद दरवाज़ा
सदा महफूज़ रहेगा"
और बादे -सबा ने
उसकी पेशानी को चूम
कानों में कहा,
" बात सुन,
महुए में लगे फूल,
बौराए आम के बाग,
गेहूं के होठों पर मुस्कान सी खिली
पहली बाली जैसी
दिखने वाली
तुझे क्या नाम दूं !
ओ अमृता !"