बसंत के झरोखे खुले हुए हैं -नीलम प्रभा

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बसंत के झरोखे खुले हुए हैं -नीलम प्रभा
कवि नीलम प्रभा
जन्म 12 जुलाई
जन्म स्थान बक्सर, बिहार
अन्य नीलम प्रभा की वर्ष 1971 से वर्ष 1979 तक रचनाएं साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी, धर्मयुग में नियमित प्रकाशित हुई।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
नीलम प्रभा की रचनाएँ

सतरह का सरापा सुर्ख सुनहरा समां
सत्तर की सिली सिली सी सर्द सराय
नाखत्म सजीले सिलसिले वो सपनों के
दहलीज पे जगते कदम बड़े अपनों के
मन बंजारा बन भाग कहीं चलता था,
कोई चेहरा ख्वाहिश की तरह
धड़कन के सहन में ओट लिए
सतरह के सतरंगी दामन की
छुप छुप कर पलता था
मन बंजारा बन भाग कहीं चलता था
फिर लगे निकलने साल साल के स्टेशन
है बड़ी दुरंत, द्रुतगामी जीवन की ट्रेन
कि बीच में आया भी जो भूले से जंक्शन
तो चायवाले की धुआं उड़ाती केतली से
निकली ही चाय कि खिसक चली -
कब रुकी कहां, कब चल दी
करती मनमानी
ना सीटी बजी, ना झंडी हरी दिखी हिलती
ना सिग्नल ना सूचना कोई
और इसी तरह तय हुआ सफ़र
करके पूरे सत्तर कोस
इस सराय तक पहुंच गए -
कितनी दूर है जाना और अभी आगे
यह पता नहीं,
शिथिल शिथिल सा तन लगता है
हारा हारा सा लगता है मन बंजारा
मौसम के आसार भी लगते ठीक नहीं
पर जाना है तो जाना है -
जाने कहां दिखेगा पानी
जाने कहां पड़ा अपने हिस्से का
बाकी दाना है .......!
रहने भी दूं, सोच सोचकर क्या करना है !
माना सत्तर की सराय की हवा सर्द है,
माना लंबे सफ़र के कारण उठा दर्द है
लेकिन सतरह के बसंत के खुले झरोखे
बंद तो नहीं किए हैं मैंने
और सराय सत्तर की भी खुली हुई है
सफ़र भी जारी -
कातिब को भी खबर न होगी
पलक झपकते
सारी थकन खुलेगी
खुलकर खो जाएगी
सतरह के सीने से लगकर
सत्तर की बुझती अंगीठी
दहकता शोला हो जाएगी ...!

नीलम प्रभा

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