श्रीभट्ट: Difference between revisions

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'''श्रीभट्ट''' [[निंबार्क संप्रदाय]] के प्रसिद्ध विद्वान 'केशव कश्मीरी' के प्रधान शिष्य थे। इनका जन्म [[संवत्]] 1595 में अनुमान किया जाता है अत: इनका कविताकाल संवत् 1625 या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। इनकी कविता सीधी सादी और चलती [[भाषा]] में है। पद भी प्राय: छोटे छोटे हैं। इनकी कृति भी अधिक विस्तृत नहीं है पर 'युगल शतक' नाम का इनका 100 पदों का एक ग्रंथ कृष्णभक्तों में बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है। 'युगल शतक' के अतिरिक्त इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'आदि वाणी' भी मिलती है। ऐसा प्रसिद्ध है कि जब ये तन्मय होकर अपने पद गाने लगते थे तब कभी कभी उस पद के ध्यानानुरूप इन्हें भगवान की झलक प्रत्यक्ष मिल जाती थी। एक बार वे यह मलार गा रहे थे -
<poem>भीजत कब देखौं इन नैना।
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स्यामाजू की सुरँग चूनरी, मोहन को उपरैना
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Latest revision as of 08:57, 11 September 2012

श्रीभट्ट निंबार्क संप्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान 'केशव कश्मीरी' के प्रधान शिष्य थे। इनका जन्म संवत् 1595 में अनुमान किया जाता है अत: इनका कविताकाल संवत् 1625 या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। इनकी कविता सीधी सादी और चलती भाषा में है। पद भी प्राय: छोटे छोटे हैं। इनकी कृति भी अधिक विस्तृत नहीं है पर 'युगल शतक' नाम का इनका 100 पदों का एक ग्रंथ कृष्णभक्तों में बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है। 'युगल शतक' के अतिरिक्त इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'आदि वाणी' भी मिलती है। ऐसा प्रसिद्ध है कि जब ये तन्मय होकर अपने पद गाने लगते थे तब कभी कभी उस पद के ध्यानानुरूप इन्हें भगवान की झलक प्रत्यक्ष मिल जाती थी। एक बार वे यह मलार गा रहे थे -

भीजत कब देखौं इन नैना।
स्यामाजू की सुरँग चूनरी, मोहन को उपरैना

  • कहते हैं कि राधा कृष्ण इसी रूप में इन्हें दिखाई पड़ गए और इन्होंने पद इस प्रकार पूरा किया -

स्यामा स्याम कुंजतर ठाढ़े, जतन कियो कछु मैं ना।
श्रीभट उमड़ि घटा चहुँ दिसि से घिरि आई जल सेना

  • इनके 'युगल शतक' से दो पद उध्दृत किए जाते हैं -

ब्रजभूमि मोहनि मैं जानी।
मोहन कुंज, मोहन वृंदावन, मोहन जमुना पानी
मोहन नारि सकल गोकुल की बोलति अमरित बानी।
श्रीभट्ट के प्रभु मोहन नागर, 'मोहनि राधा रानी'

बसौ मेरे नैननि में दोउ चंद।
गोर बदनि बृषभानु नंदिनी, स्यामबरन नँदनंद
गोलक रहे लुभाय रूप में निरखत आनंदकंद।
जय श्रीभट्ट प्रेमरस बंधान, क्यों छूटै दृढ़ फंद


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 5”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 135।

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