वे आँखें -सुमित्रानंदन पंत: Difference between revisions

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     उन आँखों से डरता है मन,
     उन आँखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
भरा दूर तक उनमें दारुण
     दैन्‍य दुख का नीरव रोदन!
     दैन्‍य दु:ख का नीरव रोदन!
अह, अथाह नैराश्य, विवशता का
अह, अथाह नैराश्य, विवशता का
     उनमें भीषण सूनापन,
     उनमें भीषण सूनापन,
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     रहती तब आँखों में उस क्षण!
     रहती तब आँखों में उस क्षण!
हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,
हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,
     दुख दैन्य न जीवन का आकर्षण!
     दु:ख दैन्य न जीवन का आकर्षण!


उस अवचेतन क्षण में मानो
उस अवचेतन क्षण में मानो

Latest revision as of 14:05, 2 June 2017

वे आँखें -सुमित्रानंदन पंत
कवि सुमित्रानंदन पंत
जन्म 20 मई 1900
जन्म स्थान कौसानी, उत्तराखण्ड, भारत
मृत्यु 28 दिसंबर, 1977
मृत्यु स्थान प्रयाग, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ वीणा, पल्लव, चिदंबरा, युगवाणी, लोकायतन, हार, आत्मकथात्मक संस्मरण- साठ वर्ष, युगपथ, स्वर्णकिरण, कला और बूढ़ा चाँद आदि
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
सुमित्रानंदन पंत की रचनाएँ

अंधकार की गुहा सरीखी
    उन आँखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
    दैन्‍य दु:ख का नीरव रोदन!
अह, अथाह नैराश्य, विवशता का
    उनमें भीषण सूनापन,
मानव के पाशव पीड़न का
    देतीं वे निर्मम विज्ञापन!

फूट रहा उनसे गहरा आतंक,
    क्षोभ, शोषण, संशय, भ्रम,
डूब कालिमा में उनकी
    कँपता मन, उनमें मरघट का तम!
ग्रस लेती दर्शक को वह
    दुर्ज्ञेय, दया की भूखी चितवन,
झूल रहा उस छाया-पट में
    युग युग का जर्जर जन जीवन!

वह स्‍वाधीन किसान रहा,
    अभिमान भरा आँखों में इसका,
छोड़ उसे मँझधार आज
    संसार कगार सदृश बह खिसका!
लहराते वे खेत दृगों में
    हुया बेदख़ल वह अब जिनसे,
हँसती थी उनके जीवन की
    हरियाली जिनके तृन तृन से!

आँखों ही में घूमा करता
    वह उसकी आँखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
    गया जवानी ही में मारा!
बिका दिया घर द्वार,
    महाजन ने न ब्‍याज की कौड़ी छोड़ी,
रह रह आँखों में चुभती वह
    कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!

उजरी उसके सिवा किसे कब
    पास दुहाने आने देती?
अह, आँखों में नाचा करती
    उजड़ गई जो सुख की खेती!
बिना दवा दर्पन के घरनी
    स्‍वरग चली,--आँखें आतीं भर,
देख रेख के बिना दुधमुँही
    बिटिया दो दिन बाद गई मर!

घर में विधवा रही पतोहू,
    लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मँगाया कोतवाल ने,
    डूब कुँए में मरी एक दिन!
ख़ैर, पैर की जूती, जोरू
    न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
    साँप लोटते, फटती छाती!

पिछले सुख की स्‍मृति आँखों में
    क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्‍य में गड़ वह चितवन
    तीखी नोंक सदृश बन जाती।
मानव की चेतना न ममता
    रहती तब आँखों में उस क्षण!
हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,
    दु:ख दैन्य न जीवन का आकर्षण!

उस अवचेतन क्षण में मानो
    वे सुदूर करतीं अवलोकन
ज्योति तमस के परदों पर
    युग जीवन के पट का परिवर्तन!
अंधकार की अतल गुहा सी
    अह, उन आँखों से डरता मन,
वर्ग सभ्यता के मंदिर के
    निचले तल की वे वातायन!

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