मंझन: Difference between revisions
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;कथासार | ;कथासार | ||
'''कनेसर नगर''' के राजा सूरजभान के पुत्र '''मनोहर''' नामक एक सोए हुए राजकुमार को अप्सराएँ रातोंरात महारस नगर की राजकुमारी '''मधुमालती''' की चित्रसारी में रख आईं। वहाँ जागने पर दोनों का साक्षात्कार हुआ और दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए। पूछने पर मनोहर ने अपना परिचय दिया और कहा 'मेरा अनुराग तुम्हारे ऊपर कई जन्मों का है इससे जिस दिन मैं इस संसार में आया उसी दिन से तुम्हारा प्रेम मेरे हृदय में उत्पन्न हुआ।' बातचीत करते करते दोनों एक साथ सो गए और अप्सराएँ राजकुमार को उठाकर फिर उसके घर पर रख आईं। दोनों जब अपने अपने स्थान पर जगे तब प्रेम में बहुत व्याकुल हुए। राजकुमार वियोग से विकल होकर घर से निकल पड़ा और उसने समुद्र मार्ग से यात्रा की। मार्ग में | {{main|मधुमालती}} | ||
'''कनेसर नगर''' के राजा सूरजभान के पुत्र '''मनोहर''' नामक एक सोए हुए राजकुमार को अप्सराएँ रातोंरात महारस नगर की राजकुमारी '''मधुमालती''' की चित्रसारी में रख आईं। वहाँ जागने पर दोनों का साक्षात्कार हुआ और दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए। पूछने पर मनोहर ने अपना परिचय दिया और कहा 'मेरा अनुराग तुम्हारे ऊपर कई जन्मों का है इससे जिस दिन मैं इस संसार में आया उसी दिन से तुम्हारा प्रेम मेरे हृदय में उत्पन्न हुआ।' बातचीत करते करते दोनों एक साथ सो गए और अप्सराएँ राजकुमार को उठाकर फिर उसके घर पर रख आईं। दोनों जब अपने अपने स्थान पर जगे तब प्रेम में बहुत व्याकुल हुए। राजकुमार वियोग से विकल होकर घर से निकल पड़ा और उसने समुद्र मार्ग से यात्रा की। मार्ग में तूफ़ान आया जिसमें इष्ट मित्र इधर उधर बह गए। राजकुमार एक पटरे पर बहता हुआ एक जंगल में जा लगा, जहाँ एक स्थान पर एक सुंदर स्त्री पलँग पर लेटी दिखाई पड़ी। पूछने पर जान पड़ा कि वह चितबिसरामपुर के राजा चित्रसेन की कुमारी प्रेमा थी जिसे एक राक्षस उठा लाया था। मनोहर कुमार ने उस राक्षस को मारकर प्रेमा का उध्दार किया। प्रेमा ने मधुमालती का पता बता कर कहा कि मेरी वह सखी है। मैं उसे तुझसे मिला दूँगी। मनोहर को लिए हुए प्रेमा अपने पिता के नगर में आई। मनोहर के उपकार को सुनकर प्रेमा का पिता उसका विवाह मनोहर के साथ करना चाहता है। पर प्रेमा यह कहकर अस्वीकार करती है कि मनोहर मेरा भाई है और मैंने उसे उसकी प्रेमपात्री मधुमालती से मिलाने का वचन दिया है। | |||
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इसके आगे प्रति खंडित है। पर कथा के झुकाव से अनुमान होता है कि प्रेमा और ताराचंद का भी विवाह हो गया होगा। | इसके आगे प्रति खंडित है। पर कथा के झुकाव से अनुमान होता है कि प्रेमा और ताराचंद का भी विवाह हो गया होगा। | ||
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*ईश्वर का विरह सूफियों के यहाँ भक्त की प्रधान संपत्ति है जिसके बिना साधना के मार्ग में कोई प्रवृत्त नहीं हो सकता, किसी की ऑंख नहीं खुल सकती | *ईश्वर का विरह सूफियों के यहाँ भक्त की प्रधान संपत्ति है जिसके बिना साधना के मार्ग में कोई प्रवृत्त नहीं हो सकता, किसी की ऑंख नहीं खुल सकती | ||
<poem>बिरह अवधि अवगाह अपारा । कोटि माहिं एक परै त पारा | <poem>बिरह अवधि अवगाह अपारा । कोटि माहिं एक परै त पारा | ||
बिरह कि | बिरह कि जगत् अबिरथा जाही?। बिरह रूप यह सृष्टि सबाही | ||
नैन बिरह अंजन जिन सारा । बिरह रूप दरपन संसारा | नैन बिरह अंजन जिन सारा । बिरह रूप दरपन संसारा | ||
कोटि माहिं बिरला जग कोई । जाहि सरीर बिरह | कोटि माहिं बिरला जग कोई । जाहि सरीर बिरह दु:ख होई | ||
रतन की सागर सागरहिं, गजमोती गज कोइ। | रतन की सागर सागरहिं, गजमोती गज कोइ। | ||
चंदन कि बन बन ऊपजै, बिरह कि तन तन होइ?</poem> | चंदन कि बन बन ऊपजै, बिरह कि तन तन होइ?</poem> | ||
*जिसके हृदय में वह विरह होता है उसके लिए यह संसार स्वच्छ दर्पण हो जाता है और इसमें परमात्मा के आभास | *जिसके हृदय में वह विरह होता है उसके लिए यह संसार स्वच्छ दर्पण हो जाता है और इसमें परमात्मा के आभास अनेक रूपों में पड़ते हैं। तब वह देखता है कि इस सृष्टि के सारे रूप, सारे व्यापार उसी का विरह प्रकट कर रहे हैं। ये भाव प्रेममार्गी संप्रदाय के सब कवियों में पाए जाते हैं। | ||
;समय | ;समय | ||
मंझन की रचना का यद्यपि ठीक ठीक संवत् नहीं ज्ञात हो सका है पर यह निस्संदेह है कि रचना [[विक्रम संवत्]] 1550 और 1595, [[पद्मावत]] का रचनाकाल के, बीच में और बहुत संभव है कि [[ | मंझन की रचना का यद्यपि ठीक ठीक संवत् नहीं ज्ञात हो सका है पर यह निस्संदेह है कि रचना [[विक्रम संवत्]] 1550 और 1595, [[पद्मावत]] का रचनाकाल के, बीच में और बहुत संभव है कि [[मृगावती]] के कुछ पीछे हुई। इस [[शैली]] के सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रंथ 'पद्मावत' में [[जायसी]] ने अपने पूर्व के बने हुए इस प्रकार के काव्यों का संक्षेप में उल्लेख किया है - | ||
<poem>विक्रम धँसा प्रेम के बारा । सपनावति कहँ गयउ पतारा॥ | <poem>विक्रम धँसा प्रेम के बारा । सपनावति कहँ गयउ पतारा॥ | ||
मधूपाछ मुगधावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी॥ | मधूपाछ मुगधावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी॥ | ||
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*इन पद्यों में जायसी के पहले के चार काव्यों का उल्लेख है मुग्धावती, मृगावती, मधुमालती और प्रेमावती। इनमें से मृगावती और मधुमालती का पता चल गया है, शेष दो अभी नहीं मिले हैं। जिस क्रम से ये नाम आए हैं वह यदि रचनाकाल के क्रम के अनुसार माना जाय तो मधुमालती की रचना कुतबन की मृगावती के पीछे ठहरती है। | *इन पद्यों में जायसी के पहले के चार काव्यों का उल्लेख है मुग्धावती, मृगावती, मधुमालती और प्रेमावती। इनमें से मृगावती और मधुमालती का पता चल गया है, शेष दो अभी नहीं मिले हैं। जिस क्रम से ये नाम आए हैं वह यदि रचनाकाल के क्रम के अनुसार माना जाय तो मधुमालती की रचना कुतबन की मृगावती के पीछे ठहरती है। | ||
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जायसी का जो उद्धरण दिया गया है उसमें मधुमालती के साथ 'मनोहर' का नाम नहीं है, 'खंडावत' नाम है। 'पद्मावत' की हस्तलिखित प्रतियाँ प्राय: फारसी अक्षरों में ही मिलती हैं। मैंने चार ऐसी प्रतियाँ देखी हैं जिन सब में नायक का ऐसा नाम लिखा है जिसे खंडावत, कुंदावत, कंडावत, गंधावत इत्यादि ही पढ़ सकते हैं। केवल एक हस्तलिखित प्रति [[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय|हिंदू विश्वविद्यालय]] के पुस्तकालय में ऐसी है जिसमें | जायसी का जो उद्धरण दिया गया है उसमें मधुमालती के साथ 'मनोहर' का नाम नहीं है, 'खंडावत' नाम है। 'पद्मावत' की हस्तलिखित प्रतियाँ प्राय: फारसी अक्षरों में ही मिलती हैं। मैंने चार ऐसी प्रतियाँ देखी हैं जिन सब में नायक का ऐसा नाम लिखा है जिसे खंडावत, कुंदावत, कंडावत, गंधावत इत्यादि ही पढ़ सकते हैं। केवल एक हस्तलिखित प्रति [[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय|हिंदू विश्वविद्यालय]] के पुस्तकालय में ऐसी है जिसमें साफ़ 'मनोहर' पाठ है। उसमान की 'चित्रावली' में मधुमालती का जो उल्लेख है उसमें भी कुँवर का नाम 'मनोहर' ही | ||
है।<ref><poem>मधुमालति होइ रूप देखावा। प्रेम मनोहर होइ तहँ आवा | है।<ref><poem>मधुमालति होइ रूप देखावा। प्रेम मनोहर होइ तहँ आवा | ||
यही नाम 'मधुमालती' की उपलब्ध प्रतियों में भी पाया जाता है।</poem></ref> | यही नाम 'मधुमालती' की उपलब्ध प्रतियों में भी पाया जाता है।</poem></ref> | ||
*'पद्मावत' के पहले 'मधुमालती' की बहुत अधिक प्रसिद्धि थी। [[जैन]] कवि 'बनारसी दास' ने अपने आत्मचरित में [[संवत्]] 1660 के आसपास की अपनी इश्कबाजी वाली जीवनचर्या का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस समय मैं हाट | *'पद्मावत' के पहले 'मधुमालती' की बहुत अधिक प्रसिद्धि थी। [[जैन]] कवि 'बनारसी दास' ने अपने आत्मचरित में [[संवत्]] 1660 के आसपास की अपनी इश्कबाजी वाली जीवनचर्या का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस समय मैं हाट बाज़ार में जाना छोड़, घर में पड़े पड़े 'मृगावती' और 'मधुमालती' नाम की पोथियाँ पढ़ा करता था।<ref><poem>तब घर में बैठे रहैं, नाहिंन हाट बाज़ार। | ||
मधुमालती, मृगावती पोथी दोय उचार</poem></ref> | मधुमालती, मृगावती पोथी दोय उचार</poem></ref> | ||
*इसके उपरांत दक्षिण के 'शायर नसरती' ने भी<ref>संवत् 1700</ref> 'मधुमालती' के आधार पर '''दक्खिनी उर्दू''' में 'गुलशने इश्क' नाम से एक प्रेम कहानी लिखी। | *इसके उपरांत दक्षिण के 'शायर नसरती' ने भी<ref>संवत् 1700</ref> 'मधुमालती' के आधार पर '''दक्खिनी उर्दू''' में 'गुलशने इश्क' नाम से एक प्रेम कहानी लिखी। | ||
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Latest revision as of 14:00, 29 October 2017
मंझन के संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। केवल इनकी रची हुई 'मधुमालती' की एक खंडित प्रति मिली है जिससे इनकी कोमल कल्पना और स्निग्ध सहृदयता का पता लगता है। मृगावती के समान 'मधुमालती' में भी पाँच चौपाइयों[1] के उपरांत एक 'दोहे' का क्रम रखा गया है। पर मृगावती की अपेक्षा इसकी कल्पना भी विशद है और वर्णन भी अधिक विस्तृत और हृदयग्राही है। आध्यात्मिक प्रेमभाव की व्यंजना के लिए प्रकृति के भी अधिक दृश्यों का समावेश मंझन ने किया है। कहानी भी कुछ अधिक जटिल और लंबी है जो अत्यंत संक्षेप में नीचे दी जाती है-
- कथासार
- REDIRECTसाँचा:मुख्य
कनेसर नगर के राजा सूरजभान के पुत्र मनोहर नामक एक सोए हुए राजकुमार को अप्सराएँ रातोंरात महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती की चित्रसारी में रख आईं। वहाँ जागने पर दोनों का साक्षात्कार हुआ और दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए। पूछने पर मनोहर ने अपना परिचय दिया और कहा 'मेरा अनुराग तुम्हारे ऊपर कई जन्मों का है इससे जिस दिन मैं इस संसार में आया उसी दिन से तुम्हारा प्रेम मेरे हृदय में उत्पन्न हुआ।' बातचीत करते करते दोनों एक साथ सो गए और अप्सराएँ राजकुमार को उठाकर फिर उसके घर पर रख आईं। दोनों जब अपने अपने स्थान पर जगे तब प्रेम में बहुत व्याकुल हुए। राजकुमार वियोग से विकल होकर घर से निकल पड़ा और उसने समुद्र मार्ग से यात्रा की। मार्ग में तूफ़ान आया जिसमें इष्ट मित्र इधर उधर बह गए। राजकुमार एक पटरे पर बहता हुआ एक जंगल में जा लगा, जहाँ एक स्थान पर एक सुंदर स्त्री पलँग पर लेटी दिखाई पड़ी। पूछने पर जान पड़ा कि वह चितबिसरामपुर के राजा चित्रसेन की कुमारी प्रेमा थी जिसे एक राक्षस उठा लाया था। मनोहर कुमार ने उस राक्षस को मारकर प्रेमा का उध्दार किया। प्रेमा ने मधुमालती का पता बता कर कहा कि मेरी वह सखी है। मैं उसे तुझसे मिला दूँगी। मनोहर को लिए हुए प्रेमा अपने पिता के नगर में आई। मनोहर के उपकार को सुनकर प्रेमा का पिता उसका विवाह मनोहर के साथ करना चाहता है। पर प्रेमा यह कहकर अस्वीकार करती है कि मनोहर मेरा भाई है और मैंने उसे उसकी प्रेमपात्री मधुमालती से मिलाने का वचन दिया है।
- खंडित प्रति
इसके आगे प्रति खंडित है। पर कथा के झुकाव से अनुमान होता है कि प्रेमा और ताराचंद का भी विवाह हो गया होगा।
- सूफी प्रेम भावना
कवि ने नायक और नायिका के अतिरिक्त उपनायक और उपनायिका की भी योजना करके कथा को तो विस्तृत किया ही है, साथ ही प्रेमा और ताराचंद के चरित्र द्वारा सच्ची सहानुभूति, अपूर्व संयम और नि:स्वार्थ भाव का चित्र दिखाया है। जन्म जन्मांतर और योन्यंतर के बीच प्रेम की अखंडता दिखाकर मंझन ने प्रेमतत्व की व्यापकता और नित्यता का आभास दिखाया है। सूफियों के अनुसार यह सारा जगत् एक ऐसे रहस्यमय प्रेमसूत्र में बँधा है जिसका अवलंबन करके जीव उस प्रेममूर्ति तक पहुँचने का मार्ग पा सकता है। सूफी सब रूपों में उसकी छिपी ज्योति देखकर मुग्ध होते हैं, जैसा कि मंझन कहते हैं -
देखत ही पहिचानेउ तोहीं। एही रूप जेहि छँदरयो मोही
एही रूप बुत अहै छपाना। एही रूप रब सृष्टि समाना
एही रूप सकती औ सीऊ। एही रूप त्रिाभुवन कर जीऊ
एही रूप प्रगटे बहु भेसा। एही रूप जग रंक नरेसा
- ईश्वर का विरह सूफियों के यहाँ भक्त की प्रधान संपत्ति है जिसके बिना साधना के मार्ग में कोई प्रवृत्त नहीं हो सकता, किसी की ऑंख नहीं खुल सकती
बिरह अवधि अवगाह अपारा । कोटि माहिं एक परै त पारा
बिरह कि जगत् अबिरथा जाही?। बिरह रूप यह सृष्टि सबाही
नैन बिरह अंजन जिन सारा । बिरह रूप दरपन संसारा
कोटि माहिं बिरला जग कोई । जाहि सरीर बिरह दु:ख होई
रतन की सागर सागरहिं, गजमोती गज कोइ।
चंदन कि बन बन ऊपजै, बिरह कि तन तन होइ?
- जिसके हृदय में वह विरह होता है उसके लिए यह संसार स्वच्छ दर्पण हो जाता है और इसमें परमात्मा के आभास अनेक रूपों में पड़ते हैं। तब वह देखता है कि इस सृष्टि के सारे रूप, सारे व्यापार उसी का विरह प्रकट कर रहे हैं। ये भाव प्रेममार्गी संप्रदाय के सब कवियों में पाए जाते हैं।
- समय
मंझन की रचना का यद्यपि ठीक ठीक संवत् नहीं ज्ञात हो सका है पर यह निस्संदेह है कि रचना विक्रम संवत् 1550 और 1595, पद्मावत का रचनाकाल के, बीच में और बहुत संभव है कि मृगावती के कुछ पीछे हुई। इस शैली के सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रंथ 'पद्मावत' में जायसी ने अपने पूर्व के बने हुए इस प्रकार के काव्यों का संक्षेप में उल्लेख किया है -
विक्रम धँसा प्रेम के बारा । सपनावति कहँ गयउ पतारा॥
मधूपाछ मुगधावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी॥
राजकुँवर कंचनपुर गयऊ । मिरगावती कहँ जोगी भयऊ॥
साधो कुँवर ख्रडावत जोगू । मधुमालति कर कीन्ह बियोगू॥
प्रेमावति कह सुरबर साधा। उषा लागि अनिरुधा बर बाँधा॥
- इन पद्यों में जायसी के पहले के चार काव्यों का उल्लेख है मुग्धावती, मृगावती, मधुमालती और प्रेमावती। इनमें से मृगावती और मधुमालती का पता चल गया है, शेष दो अभी नहीं मिले हैं। जिस क्रम से ये नाम आए हैं वह यदि रचनाकाल के क्रम के अनुसार माना जाय तो मधुमालती की रचना कुतबन की मृगावती के पीछे ठहरती है।
- पद्मावती में
जायसी का जो उद्धरण दिया गया है उसमें मधुमालती के साथ 'मनोहर' का नाम नहीं है, 'खंडावत' नाम है। 'पद्मावत' की हस्तलिखित प्रतियाँ प्राय: फारसी अक्षरों में ही मिलती हैं। मैंने चार ऐसी प्रतियाँ देखी हैं जिन सब में नायक का ऐसा नाम लिखा है जिसे खंडावत, कुंदावत, कंडावत, गंधावत इत्यादि ही पढ़ सकते हैं। केवल एक हस्तलिखित प्रति हिंदू विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में ऐसी है जिसमें साफ़ 'मनोहर' पाठ है। उसमान की 'चित्रावली' में मधुमालती का जो उल्लेख है उसमें भी कुँवर का नाम 'मनोहर' ही है।[2]
- 'पद्मावत' के पहले 'मधुमालती' की बहुत अधिक प्रसिद्धि थी। जैन कवि 'बनारसी दास' ने अपने आत्मचरित में संवत् 1660 के आसपास की अपनी इश्कबाजी वाली जीवनचर्या का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस समय मैं हाट बाज़ार में जाना छोड़, घर में पड़े पड़े 'मृगावती' और 'मधुमालती' नाम की पोथियाँ पढ़ा करता था।[3]
- इसके उपरांत दक्षिण के 'शायर नसरती' ने भी[4] 'मधुमालती' के आधार पर दक्खिनी उर्दू में 'गुलशने इश्क' नाम से एक प्रेम कहानी लिखी।
- कवित्त, सवैया बनाने वाले एक 'मंझन' पीछे हुए जिन्हें इनसे सर्वथा पृथक् समझना चाहिए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 75-78।
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