गोवर्धनाचार्य: Difference between revisions
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'आर्यासप्तशती' नामक मुक्तक कविताओं का संग्रह गोवर्धनाचार्य की कृति मानी जाती है। इसमें 700 आर्याएँ संग्रहीत होनी चाहिए, परंतु विभिन्न संस्करणों में आर्याओं की संख्या 760 तक पहुंच गई है। अत: यह कहना कठिन है कि उपलब्ध 'आर्यासप्तशती' क्षेपकों से रहित है। [[मध्य काल]] में यह संग्रह काफ़ी लोकप्रिय था और उसकी आर्याओं की छाया लेकर बहुत सी फुटकर रचनाएँ लिखी गईं। [[बिहारी|बिहारी कवि]] की '[[सतसई]]' इस संग्रह से बहुत प्रभावित है। 'आर्यासप्तशती' में ही यह उल्लेख मिलता है कि जो [[ | 'आर्यासप्तशती' नामक मुक्तक कविताओं का संग्रह गोवर्धनाचार्य की कृति मानी जाती है। इसमें 700 आर्याएँ संग्रहीत होनी चाहिए, परंतु विभिन्न संस्करणों में आर्याओं की संख्या 760 तक पहुंच गई है। अत: यह कहना कठिन है कि उपलब्ध 'आर्यासप्तशती' क्षेपकों से रहित है। [[मध्य काल]] में यह संग्रह काफ़ी लोकप्रिय था और उसकी आर्याओं की छाया लेकर बहुत सी फुटकर रचनाएँ लिखी गईं। [[बिहारी|बिहारी कवि]] की '[[सतसई]]' इस संग्रह से बहुत प्रभावित है। 'आर्यासप्तशती' में ही यह उल्लेख मिलता है कि जो [[श्रृंगार रस]] की धारा [[प्राकृत भाषा|प्राकृत]] में ही उपलब्ध थी, उसको [[संस्कृत]] में अवतरित करने के लिये यह प्रयास किया गया था। यहाँ संकेत हाल की 'गाथासप्तशती' की ओर है। हाल ने प्राकृत गाथाओं में श्रृंगारपरक रचनाएँ निबद्ध की है। गोवर्धनाचार्य ने इन्हीं गाथाओं को अपनी आर्याओं का आदर्श बनाया। | ||
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प्राकृत का गाथाछंद [[संस्कृत]] के आर्याछंदों के अधिक निकट है। अत: गोवर्धनाचार्य ने आर्याछंद को ही रचना के लिये चुना। केवल [[छंद]] में ही नहीं अपितु भावचित्रण में भी गोवर्धनाचार्य हाल का बहुधा अनुकरण किया है। परंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि 'आर्यासप्तशती' 'गाथासप्तशती' का संस्कृत अनुवाद मात्र है। जब भी गोवर्धनाचार्य किसी गाथा के भाव को व्यक्त करना चाहते थे, वे उसमें अपनी मौलिक प्रतिभा के प्रदर्शन से नहीं चूकते थे। अत: 'आर्यासप्शती' 'गाथासप्तशती' से स्थूल रूप में प्रभावित होते हुए भी अपने आप में मौलिक है।<ref name="aa"/> | प्राकृत का गाथाछंद [[संस्कृत]] के आर्याछंदों के अधिक निकट है। अत: गोवर्धनाचार्य ने आर्याछंद को ही रचना के लिये चुना। केवल [[छंद]] में ही नहीं अपितु भावचित्रण में भी गोवर्धनाचार्य हाल का बहुधा अनुकरण किया है। परंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि 'आर्यासप्तशती' 'गाथासप्तशती' का संस्कृत अनुवाद मात्र है। जब भी गोवर्धनाचार्य किसी गाथा के भाव को व्यक्त करना चाहते थे, वे उसमें अपनी मौलिक प्रतिभा के प्रदर्शन से नहीं चूकते थे। अत: 'आर्यासप्शती' 'गाथासप्तशती' से स्थूल रूप में प्रभावित होते हुए भी अपने आप में मौलिक है।<ref name="aa"/> | ||
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श्रृंगार की अभिव्यक्ति के लिये गोवर्धनाचार्य को आचार्य माना जाता है। इनकी रचनाओं में [[श्रृंगार रस|श्रृंगार]] का उद्दाम रूप खुलकर आया है। कहीं-कहीं तो नग्न चित्रण अपनी नग्नता के कारण रसाभास उत्पन्न कर देते हैं। एक जगह तो गोवर्धनाचार्य ने प्रेम में शव के चुंबन की भी बात कही है। परंतु अभिव्यक्ति की तीव्रता, अलंकार संयोजना तथा व्यंजना की गंभीरता के कारण गोवर्धनाचार्य की गणना सत्कवियों में की जा सकती है। | |||
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गोवर्धनाचार्य को जयदेव के 'गीतगोविंद' में "रससिद्ध कवि" कहा गया है। श्रृंगार की अभिव्यक्ति के लिए गोवर्धनाचार्य को जाना जाता है। गोवर्धनाचार्य के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। समझा जाता है कि वे बंगाली कवि थे और बंगाल ही उनका जन्म या निवास स्थान था। 'आर्यासप्तशती' नामक मुक्तक कविताओं का संग्रह गोवर्धन की कृति मानी जाती है।
परिचय
जयदेव बल्लाल सेन के पुत्र लक्ष्मण सेन के समय बंगाल के एक सुप्रसिद्ध भक्त कवि हुए थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि लक्ष्मण सेन की सभा में पांच रत्न थे। उन पांच रत्नों में गोवर्धनाचार्य का नाम भी गिना जाता है। अत: गोवर्धनाचार्य जयदेव के समकालीन कवि रहे होंगे और चूँकि जयदेव गोवर्धन का उल्लेख सुप्रसिद्ध कवि के रूप में करते हैं, अत: गोवर्धन जयदेव के पूर्व ही ख्याति प्राप्त कर चुके होंगे। लक्ष्मण सेन का शासन काल बारहवीं सदी का उत्तरार्ध माना जाता है और यही गोवर्धन का भी काल ठहरता है। गोवर्धन बंगाली कवि थे। उनका जन्म या निवास स्थान बंगाल ही रहा होगा, इसमें संदेह की गुंजाइश कम है। परंतु इसके अतिरिक्त गोवर्धन के बारे में और कोई जानकारी प्राप्त नहीं है।[1]
कविता संग्रह
'आर्यासप्तशती' नामक मुक्तक कविताओं का संग्रह गोवर्धनाचार्य की कृति मानी जाती है। इसमें 700 आर्याएँ संग्रहीत होनी चाहिए, परंतु विभिन्न संस्करणों में आर्याओं की संख्या 760 तक पहुंच गई है। अत: यह कहना कठिन है कि उपलब्ध 'आर्यासप्तशती' क्षेपकों से रहित है। मध्य काल में यह संग्रह काफ़ी लोकप्रिय था और उसकी आर्याओं की छाया लेकर बहुत सी फुटकर रचनाएँ लिखी गईं। बिहारी कवि की 'सतसई' इस संग्रह से बहुत प्रभावित है। 'आर्यासप्तशती' में ही यह उल्लेख मिलता है कि जो श्रृंगार रस की धारा प्राकृत में ही उपलब्ध थी, उसको संस्कृत में अवतरित करने के लिये यह प्रयास किया गया था। यहाँ संकेत हाल की 'गाथासप्तशती' की ओर है। हाल ने प्राकृत गाथाओं में श्रृंगारपरक रचनाएँ निबद्ध की है। गोवर्धनाचार्य ने इन्हीं गाथाओं को अपनी आर्याओं का आदर्श बनाया।
गाथाछंद
प्राकृत का गाथाछंद संस्कृत के आर्याछंदों के अधिक निकट है। अत: गोवर्धनाचार्य ने आर्याछंद को ही रचना के लिये चुना। केवल छंद में ही नहीं अपितु भावचित्रण में भी गोवर्धनाचार्य हाल का बहुधा अनुकरण किया है। परंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि 'आर्यासप्तशती' 'गाथासप्तशती' का संस्कृत अनुवाद मात्र है। जब भी गोवर्धनाचार्य किसी गाथा के भाव को व्यक्त करना चाहते थे, वे उसमें अपनी मौलिक प्रतिभा के प्रदर्शन से नहीं चूकते थे। अत: 'आर्यासप्शती' 'गाथासप्तशती' से स्थूल रूप में प्रभावित होते हुए भी अपने आप में मौलिक है।[1]
सत्कवि
श्रृंगार की अभिव्यक्ति के लिये गोवर्धनाचार्य को आचार्य माना जाता है। इनकी रचनाओं में श्रृंगार का उद्दाम रूप खुलकर आया है। कहीं-कहीं तो नग्न चित्रण अपनी नग्नता के कारण रसाभास उत्पन्न कर देते हैं। एक जगह तो गोवर्धनाचार्य ने प्रेम में शव के चुंबन की भी बात कही है। परंतु अभिव्यक्ति की तीव्रता, अलंकार संयोजना तथा व्यंजना की गंभीरता के कारण गोवर्धनाचार्य की गणना सत्कवियों में की जा सकती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 गोवर्धनाचार्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 26 फ़रवरी, 2014।