वृंद: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
('वृंद मेड़ता, जोधपुर के रहने वाले थे और 'कृष्णगढ़' नर...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
m (Text replacement - "शृंगार" to "श्रृंगार")
 
(3 intermediate revisions by 2 users not shown)
Line 1: Line 1:
वृंद मेड़ता, [[जोधपुर]] के रहने वाले थे और 'कृष्णगढ़' नरेश 'महाराज राजसिंह' के गुरु थे। [[संवत्]] 1761 में ये शायद कृष्णगढ़ नरेश के साथ [[औरंगजेब]] की फौज में ढाके तक गए थे। इनके वंशधर अब तक कृष्णगढ़ में वर्तमान हैं। इनकी 'वृंदसतसई'<ref> संवत् 1761</ref>, जिसमें नीति के सात सौ दोहे हैं, बहुत प्रसिद्ध हैं। खोज में 'श्रृंगारशिक्षा'<ref> संवत् 1748</ref>, और 'भावपंचाशिका' नाम की दो [[रस]] संबंधी पुस्तकें और मिली हैं, पर इनकी ख्याति अधिकतर सूक्तिकार के रूप में ही है। 'वृंद सतसई' के कुछ दोहे हैं -  
वृंद मेड़ता, [[जोधपुर]] के रहने वाले थे और 'कृष्णगढ़' नरेश 'महाराज राजसिंह' के गुरु थे। [[संवत्]] 1761 में ये शायद कृष्णगढ़ नरेश के साथ [[औरंगजेब]] की फ़ौज में ढाके तक गए थे। इनके वंशधर अब तक कृष्णगढ़ में वर्तमान हैं। इनकी 'वृंदसतसई'<ref> संवत् 1761</ref>, जिसमें नीति के सात सौ दोहे हैं, बहुत प्रसिद्ध हैं। खोज में 'श्रृंगारशिक्षा'<ref> संवत् 1748</ref>, और 'भावपंचाशिका' नाम की दो [[रस]] संबंधी पुस्तकें और मिली हैं, पर इनकी ख्याति अधिकतर सूक्तिकार के रूप में ही है। 'वृंद सतसई' के कुछ दोहे हैं -  
<poem>भले बुरे सब एक सम, जौ लौं बोलत नाहिं।
<poem>भले बुरे सब एक सम, जौ लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काग पिक, ऋतु बसंत के माहिं॥
जान परत हैं काग पिक, ऋतु बसंत के माहिं॥
Line 18: Line 18:
[[Category:कवि]]  
[[Category:कवि]]  
[[Category:रीति_काल]]
[[Category:रीति_काल]]
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
[[Category:रीतिकालीन कवि]]
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]]  
[[Category:चरित कोश]]  
[[Category:साहित्य कोश]]
[[Category:साहित्य कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Latest revision as of 07:56, 7 November 2017

वृंद मेड़ता, जोधपुर के रहने वाले थे और 'कृष्णगढ़' नरेश 'महाराज राजसिंह' के गुरु थे। संवत् 1761 में ये शायद कृष्णगढ़ नरेश के साथ औरंगजेब की फ़ौज में ढाके तक गए थे। इनके वंशधर अब तक कृष्णगढ़ में वर्तमान हैं। इनकी 'वृंदसतसई'[1], जिसमें नीति के सात सौ दोहे हैं, बहुत प्रसिद्ध हैं। खोज में 'श्रृंगारशिक्षा'[2], और 'भावपंचाशिका' नाम की दो रस संबंधी पुस्तकें और मिली हैं, पर इनकी ख्याति अधिकतर सूक्तिकार के रूप में ही है। 'वृंद सतसई' के कुछ दोहे हैं -

भले बुरे सब एक सम, जौ लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काग पिक, ऋतु बसंत के माहिं॥
हितहू कौं कहिए न तेहि, जो नर होय अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाए क्रोध॥



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संवत् 1761
  2. संवत् 1748

आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 227।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख