सनेहसागर -बख्शी हंसराज: Difference between revisions
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Revision as of 09:29, 11 August 2011
बख्शी हंसराज द्वारा रचित 'सनेहसागर' नौ तरंगों में समाप्त हुआ है जिनमें कृष्ण की विविधा लीलाएँ सार छंद में वर्णन की गई हैं। भाषा बहुत ही मधुर, सरस और चलती है। भाषा का ऐसा स्निग्ध सरल प्रवाह बहुत ही कम देखने में आता है। पदविन्यास अत्यंत कोमल और ललित है। कृत्रिमता का लेश नहीं। अनुप्रास बहुत ही संयत मात्रा में और स्वाभाविक है। माधुर्य प्रधानत: संस्कृत की पदावली का नहीं, भाषा की सरल सुबोध पदावली का है। भाषा सब प्रकार से आदर्श भाषा है। कल्पना भावविधान में ही पूर्णतया प्रवृत्त है, अपनी अलग उड़ान दिखाने में नहीं। भावविकास के लिए अत्यंत परिचित और स्वाभाविक व्यापार ही रखे गए हैं। वास्तव में 'सनेहसागर' एक अनूठा ग्रंथ है। उसके कुछ पद नीचे उध्दृत किए जाते हैं ,
दमकति दिपति देह दामिनि सी चमकत चंचल नैना।
घूँघट बिच खेलत खंजन से उड़ि उड़ि दीठि लगै ना
लटकति ललित पीठ पर चोटी बिच बिच सुमन सँवारी।
देखे ताहि मैर सो आवत, मनहु भुजंगिनी कारी
इत ते चली राधिका गोरी सौंपन अपनी गैया।
उत तें अति आतुर आनंद सों आये कुँवर कन्हैया
कसि भौहैं, हँसि कुँवरि राधिका कान्ह कुँवर सों बोली।
अंग अंग उमगि भरे आनंद सौं, दरकति छिन छिन चोली
एरे मुकुटवार चरवाहे! गाय हमारी लीजौ।
जाय न कहूँ तुरत की ब्यानी, सौंपि खरक कै दीजौ
होहु चरावनहार गाय के बाँधानहार छुरैया।
कलि दीजौ तुम आय दोहनी, पावै दूध लुरैया
कोऊ कहूँ आय बनवीथिन या लीला लखि जैहै।
कहि कहि कुटिल कठिन कुटिलन सों सिंगरे ब्रजबगरैहै
जो तुम्हरी इनकी ये बातैं सुनिहैं कीरति रानी।
तौ कैसै पटिहै पाटे तें, घटिहै कुल को पानी
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 243-44।
बाहरी कड़ियाँ
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