ललकदास: Difference between revisions

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Revision as of 10:21, 10 August 2011

बेनी कवि के भँड़ौवा से ललकदास लखनऊ के कोई कंठीधारी महंत जान पड़ते हैं जो अपनी शिष्यमंडली के साथ इधर उधर फिरा करते थे। अत: संवत् 1860 और 1880 के बीच इनका वर्तमान रहना अनुमान किया जा सकता है। इन्होंने 'सत्योपाख्यान' नामक एक बड़ा वर्णनात्मक ग्रंथ लिखा है जिसमें रामचंद्र के जन्म से लेकर विवाह तक की कथा बड़े विस्तार के साथ वर्णित है। इस ग्रंथ का उद्देश्य कौशल के साथ कथा चलाने का नहीं बल्कि जन्म की बधाई, बाललीला, होली, जलक्रीड़ा, झूला, विवाहोत्सव आदि का बड़े ब्योरे और विस्तार के साथ वर्णन करने का है। जो उद्देश्य 'महाराज रघुराज सिंह' के 'रामस्वयंवर' का है वही इसका भी समझिए। पर इसमें सादगी है और यह केवल दोहों चौपाइयों में लिखा गया है। वर्णन करने में ललकदास जी ने भाषा के कवियों के भाव तो इकट्ठे ही किए हैं; संस्कृत कवियों के भाव भी कहीं कहीं रखे हैं। रचना अच्छी जान पड़ती है। -

धारि निज अंक राम को माता। लह्यो मोद लखि मुख मृदुगाता॥
दंतकुंद मुकुता सम सोहै। बंधुजीव सम जीभ बिमोहे॥
किसलय सधार अधार छबि छाजैं। इंद्रनील सम गंड बिराजै॥
सुंदर चिबुक नासिका सौहै। कुंकुम तिलक चिलक मन मोहे॥
कामचाप सम भ्रुकुटि बिराजै। अलककलित मुख अति मुख अति छबि छाजै॥
यहि बिधि सकल राम के अंगा। लखि चूमति जननी सुख संगा॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 264-65।

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