चाँदनी -सुमित्रानंदन पंत: Difference between revisions

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नीले नभ के शतदल पर
नीले नभ के शतदल पर
वह बैठी शारद-हासिनि,
वह बैठी शरद-हंसिनि,
मृदु-करतल पर शशि-मुख धर,
मृदु-करतल पर शशि-मुख धर,
नीरव, अनिमिष, एकाकिनि!
नीरव, अनिमिष, एकाकिनि!


     वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन
     वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन
     छू लेती अग-जग का मन,
     छू लेती अंग-जग का मन,
     श्यामल, कोमल, चल-चितवन
     श्यामल, कोमल, चल-चितवन
     जो लहराती जग-जीवन!
     जो लहराती जग-जीवन!

Revision as of 11:46, 29 August 2011

चाँदनी -सुमित्रानंदन पंत
कवि सुमित्रानंदन पंत
जन्म 20 मई 1900
जन्म स्थान कौसानी, उत्तराखण्ड, भारत
मृत्यु 28 दिसंबर, 1977
मृत्यु स्थान प्रयाग, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ वीणा, पल्लव, चिदंबरा, युगवाणी, लोकायतन, हार, आत्मकथात्मक संस्मरण- साठ वर्ष, युगपथ, स्वर्णकिरण, कला और बूढ़ा चाँद आदि
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
सुमित्रानंदन पंत की रचनाएँ

नीले नभ के शतदल पर
वह बैठी शरद-हंसिनि,
मृदु-करतल पर शशि-मुख धर,
नीरव, अनिमिष, एकाकिनि!

    वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन
    छू लेती अंग-जग का मन,
    श्यामल, कोमल, चल-चितवन
    जो लहराती जग-जीवन!

वह फूली बेला की बन
जिसमें न नाल, दल, कुड्मल,
केवल विकास चिर-निर्मल
जिसमें डूबे दश दिशि-दल।

    वह सोई सरित-पुलिन पर
    साँसों में स्तब्ध समीरण,
    केवल लघु-लघु लहरों पर
    मिलता मृदु-मृदु उर-स्पन्दन।

अपनी छाया में छिपकर
वह खड़ी शिखर पर सुन्दर,
है नाच रहीं शत-शत छवि
सागर की लहर-लहर पर।

    दिन की आभा दुलहिन बन
    आई निशि-निभृत शयन पर,
    वह छवि की छुईमुई-सी
    मृदु मधुर-लाज से मर-मर।

जग के अस्फुट स्वप्नों का
वह हार गूँथती प्रतिपल,
चिर सजल-सजल, करुणा से
उसके ओसों का अंचल।

    वह मृदु मुकुलों के मुख में
    भरती मोती के चुम्बन,
    लहरों के चल-करतल में
    चाँदी के चंचल उडुगण।

वह लघु परिमल के घन-सी
जो लीन अनिल में अविकल,
सुख के उमड़े सागर-सी
जिसमें निमग्न उर-तट-स्थल।

    वह स्वप्निल शयन-मुकुल-सी
    हैं मुँदे दिवस के द्युति-दल,
    उर में सोया जग का अलि,
    नीरव जीवन-गुंजन कल!

वह नभ के स्नेह श्रवण में
दिशि का गोपन-सम्भाषण,
नयनों के मौन-मिलन में
प्राणों का मधुर समर्पण!

    वह एक बूँद संसृति की
    नभ के विशाल करतल पर,
    डूबे असीम-सुखमा में
    सब ओर-छोर के अन्तर।

झंकार विश्व-जीवन की
हौले हौले होती लय
वह शेष, भले ही अविदित,
वह शब्द-मुक्त शुचि-आशय।

    वह एक अनन्त-प्रतीक्षा
    नीरव, अनिमेष विलोचन,
    अस्पृश्य, अदृश्य विभा वह,
    जीवन की साश्रु-नयन क्षण।

वह शशि-किरणों से उतरी
चुपके मेरे आँगन पर,
उर की आभा में खोई,
अपनी ही छवि से सुन्दर।

    वह खड़ी दृगों के सम्मुख
    सब रूप, रेख रँग ओझल
    अनुभूति-मात्र-सी उर में
    आभास शान्त, शुचि, उज्जवल!

वह है, वह नहीं, अनिर्वच’,
जग उसमें, वह जग में लय,
साकार-चेतना सी वह,
जिसमें अचेत जीवाशय!

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