काहे ते हरि मोहिं बिसारो -तुलसीदास: Difference between revisions
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जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो॥1॥ | जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो॥1॥ | ||
पतित-पुनीत दीन हित असुरन सरन कहत स्त्रुति चारो। | पतित-पुनीत दीन हित असुरन सरन कहत स्त्रुति चारो। | ||
हौं नहिं अधम सभीत दीन ? किधौं बेदन मृषा पुकारो॥2॥ | हौं नहिं अधम सभीत दीन? किधौं बेदन मृषा पुकारो॥2॥ | ||
खग-गनिका-अज ब्याध-पाँति जहँ तहँ | खग-गनिका-अज ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौ हूँ बैठारो। | ||
अब केहि लाज कृपानिधान! परसत पनवारो फारो॥3॥ | अब केहि लाज कृपानिधान! परसत पनवारो फारो॥3॥ | ||
जो | जो कलि काल प्रबल अति हो तो तुव निदेस तें न्यारो। | ||
तौ हरि रोष सरोस दोष गुन तेहि भजते तजि मारो॥4॥ | तौ हरि रोष सरोस दोष गुन तेहि भजते तजि मारो॥4॥ | ||
मसक बिरंचि बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो। | मसक बिरंचि बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो। |
Latest revision as of 06:11, 24 December 2011
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काहे ते हरि मोहिं बिसारो। |
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