क्षेमेन्द्र: Difference between revisions
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क्षेमेन्द्र के पूर्वपुरूष राज्य के [[अमात्य]] पद पर प्रतिष्ठित थे। फलत: इन्होंने अपने देश की राजनीति को बड़े निकट से देखा तथा परखा था। अपने युग के अशांत वातावरण से ये इतने असंतुष्ट और मर्माहत थे कि उसे सुधारने में, उसे पवित्र बनाने में तथा स्वार्थ के स्थान पर परार्थ की भावना दृढ़ करने में इन्होंने अपना जीवन लगा दिया तथा अपनी द्रुतगामिनी लेखनी को इसकी पूर्ति के निमित्त काव्य के नाना अंगों की रचना में लगाया। इनके आदर्श थे [[वेदव्यास|महर्षि वेदव्यास]] और उनके ही समान | क्षेमेन्द्र के पूर्वपुरूष राज्य के [[अमात्य]] पद पर प्रतिष्ठित थे। फलत: इन्होंने अपने देश की राजनीति को बड़े निकट से देखा तथा परखा था। अपने युग के अशांत वातावरण से ये इतने असंतुष्ट और मर्माहत थे कि उसे सुधारने में, उसे पवित्र बनाने में तथा स्वार्थ के स्थान पर परार्थ की भावना दृढ़ करने में इन्होंने अपना जीवन लगा दिया तथा अपनी द्रुतगामिनी लेखनी को इसकी पूर्ति के निमित्त काव्य के नाना अंगों की रचना में लगाया। इनके आदर्श थे [[वेदव्यास|महर्षि वेदव्यास]] और उनके ही समान क्षेमेन्द्र ने सरस, सुबोध तथा उदात्त रचनाओं से संस्कृत भारती के प्रासाद को अलंकृत किया। | ||
प्रथमत: उन्होंने प्राचीन महत्वपूर्ण महाकाव्यों के कथानकों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया। 'रामायणमंजरी', 'भारतमंजरी' तथा '[[बृहत्कथामंजरी]]', ये तीनों ही क्रमश: [[रामायण]], [[महाभारत]] तथा बृहत्कथा के अत्यंत रोचक तथा सरस संक्षेप हैं। 'दशावतारचरित' इनका उदात्त [[महाकाव्य]] है, जिसमें [[विष्णु|भगवान विष्णु]] के [[विष्णु के दशावतार|दसों अवतारों]] का बड़ा ही रमणीय तथा प्रांजल, सरस एवं मुंजुल काव्यात्मक वर्णन किया गया है। औचित्य-विचार-चर्चा में क्षेमेन्द्र ने औचित्य को काव्य का मूलभूत तत्व माना है तथा उसकी प्रकृष्ट व्यापकता काव्य प्रत्येक अंग में दिखलाई है। | प्रथमत: उन्होंने प्राचीन महत्वपूर्ण महाकाव्यों के कथानकों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया। 'रामायणमंजरी', 'भारतमंजरी' तथा '[[बृहत्कथामंजरी]]', ये तीनों ही क्रमश: [[रामायण]], [[महाभारत]] तथा बृहत्कथा के अत्यंत रोचक तथा सरस संक्षेप हैं। 'दशावतारचरित' इनका उदात्त [[महाकाव्य]] है, जिसमें [[विष्णु|भगवान विष्णु]] के [[विष्णु के दशावतार|दसों अवतारों]] का बड़ा ही रमणीय तथा प्रांजल, सरस एवं मुंजुल काव्यात्मक वर्णन किया गया है। औचित्य-विचार-चर्चा में क्षेमेन्द्र ने औचित्य को काव्य का मूलभूत तत्व माना है तथा उसकी प्रकृष्ट व्यापकता काव्य प्रत्येक अंग में दिखलाई है। |
Revision as of 11:21, 19 February 2015
क्षेमेन्द्र कश्मीरी महाकवि थे। वे संस्कृत के विद्वान तथा प्रतिभा संपन्न कवि थे। उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। क्षेमेन्द्र ने प्रसिद्ध आलोचक तथा तंत्रशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान अभिनवगुप्त से साहित्यशास्त्र का अध्ययन किया था। इनके पुत्र सोमेन्द्र ने पिता की रचना 'बोधिसत्त्वावदानकल्पलता' को एक नया पल्लव जोड़कर पूरा किया था। क्षेमेन्द्र संस्कृत में परिहास कथा के धनी थे। संस्कृत में उनकी जोड़ का दूसरा सिद्धहस्त परिहास कथा लेखक सम्भवत: और कोई नहीं है।
रचना काल
क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रंथों के रचना काल का उल्लेख किया है, जिससे इनके आविर्भाव के समय का परिचय मिलता है। कश्मीर के नरेश अनंत (1028-1063 ई.) तथा उनके पुत्र और उत्तराधिकारी राजा कलश (1063-1089 ई.) के राज्य काल में क्षेमेन्द्र का जीवन व्यतीत हुआ। क्षेमेन्द्र के ग्रंथ 'समयमातृका' का रचना काल 1050 ई. तथा इनके अंतिम ग्रंथ दशावतारचरित का निर्माण काल इनके ही लेखानुसार 1066 ई. है। इसके फलस्वरूप एकादश शती का मध्य कल[1] क्षेमेन्द्र के आविर्भाव का समय माना जा सकता है।
कृतियाँ
क्षेमेन्द्र के पूर्वपुरूष राज्य के अमात्य पद पर प्रतिष्ठित थे। फलत: इन्होंने अपने देश की राजनीति को बड़े निकट से देखा तथा परखा था। अपने युग के अशांत वातावरण से ये इतने असंतुष्ट और मर्माहत थे कि उसे सुधारने में, उसे पवित्र बनाने में तथा स्वार्थ के स्थान पर परार्थ की भावना दृढ़ करने में इन्होंने अपना जीवन लगा दिया तथा अपनी द्रुतगामिनी लेखनी को इसकी पूर्ति के निमित्त काव्य के नाना अंगों की रचना में लगाया। इनके आदर्श थे महर्षि वेदव्यास और उनके ही समान क्षेमेन्द्र ने सरस, सुबोध तथा उदात्त रचनाओं से संस्कृत भारती के प्रासाद को अलंकृत किया।
प्रथमत: उन्होंने प्राचीन महत्वपूर्ण महाकाव्यों के कथानकों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया। 'रामायणमंजरी', 'भारतमंजरी' तथा 'बृहत्कथामंजरी', ये तीनों ही क्रमश: रामायण, महाभारत तथा बृहत्कथा के अत्यंत रोचक तथा सरस संक्षेप हैं। 'दशावतारचरित' इनका उदात्त महाकाव्य है, जिसमें भगवान विष्णु के दसों अवतारों का बड़ा ही रमणीय तथा प्रांजल, सरस एवं मुंजुल काव्यात्मक वर्णन किया गया है। औचित्य-विचार-चर्चा में क्षेमेन्द्र ने औचित्य को काव्य का मूलभूत तत्व माना है तथा उसकी प्रकृष्ट व्यापकता काव्य प्रत्येक अंग में दिखलाई है।
भाषा-शैली
क्षेमेन्द्र संस्कृत में परिहास कथा के धनी थे। संस्कृत में उनकी जोड़ का दूसरा सिद्धहस्त परिहास कथा लेखक कोई और नहीं है। उनकी सिद्ध लेखनी पाठकों पर चोट करना जानती है, परंतु उसकी चोट मीठी होती है। परिहास कथा विषयक उनकी दो अनुपम कृतियाँ हैं- 'नर्ममाला' तथा 'देशोपदेश'; जिनमें उस युग का वातावरण अपने पूर्ण वैभव के साथ हमारे सम्मुख प्रस्तुत होता है। ये विदग्धी के कवि होने के अतिरिक्त जनसाधारण के भी कवि थी, जिनकी रचना का उद्देश्य विशुद्ध मनोरंजन के साथ ही साथ जनता का चरित्र निर्माण भी है। कलाविलास, चतुर्वर्गसंग्रह, चारुचर्या, समयमातृका आदि लघु काव्य इस दिशा में इनके सफल उद्योग के समर्थ प्रमाण हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ लगभग 1025-1066 ई.