सरहपा: Difference between revisions
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'''सिद्ध सरहपा''' आठवीं शती के दौरान [[हिन्दी]] के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान [[उड़ीसा |उड़ीसा]] बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा ज़िले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है। महापंडित [[राहुल सांकृत्यायन]] ने उनका निवास स्थान [[नालंदा]] और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्र्धन प्रदेश में होने का अनुमान किया है। अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चौरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे। उनको [[बौद्ध धर्म]] की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे। उनकी शिक्षा नालंदा-विहार में हुई थी तथा अध्ययन के उपरांत वे वहीं प्रधान पुरोहित के रूप में नियुक्त हुए। अवकाश-प्राप्ति के बाद श्रीपर्वत, गुंटूर ([[आंध्र प्रदेश]]) को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इनको [[बौद्ध धर्म]] की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि वे [[पाल वंश]] के राजा [[धर्मपाल]] (सन् 770 से 810 ईस्वी) के समकालीन थे। इस आधार पर इनका समय आठवीं एवं नौवीं शताब्दी ठहरता है। | '''सिद्ध सरहपा''' आठवीं शती के दौरान [[हिन्दी]] के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान [[उड़ीसा |उड़ीसा]] बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा ज़िले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है। महापंडित [[राहुल सांकृत्यायन]] ने उनका निवास स्थान [[नालंदा]] और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्र्धन प्रदेश में होने का अनुमान किया है। अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चौरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे। उनको [[बौद्ध धर्म]] की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे। उनकी शिक्षा नालंदा-विहार में हुई थी तथा अध्ययन के उपरांत वे वहीं प्रधान पुरोहित के रूप में नियुक्त हुए। अवकाश-प्राप्ति के बाद श्रीपर्वत, गुंटूर ([[आंध्र प्रदेश]]) को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इनको [[बौद्ध धर्म]] की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि वे [[पाल वंश]] के राजा [[धर्मपाल]] (सन् 770 से 810 ईस्वी) के समकालीन थे। इस आधार पर इनका समय आठवीं एवं नौवीं शताब्दी ठहरता है। | ||
==प्रमुख कृतियाँ== | ==प्रमुख कृतियाँ== | ||
तिब्बती ग्रंथ स्तन्-ग्युर में सरहपा की 21 कृतियाँ | तिब्बती ग्रंथ स्तन्-ग्युर में सरहपा की 21 कृतियाँ संग्रहीत हैं। इनमें से 16 कृतियाँ अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी में हैं, जिनके अनुवाद भोट भाषा में मिलते हैं : | ||
# दोहा कोश-गीति | # दोहा कोश-गीति | ||
# दोहाकोश नाम चर्यागीति | # दोहाकोश नाम चर्यागीति |
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सिद्ध सरहपा आठवीं शती के दौरान हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा ज़िले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्र्धन प्रदेश में होने का अनुमान किया है। अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चौरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे। उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे। उनकी शिक्षा नालंदा-विहार में हुई थी तथा अध्ययन के उपरांत वे वहीं प्रधान पुरोहित के रूप में नियुक्त हुए। अवकाश-प्राप्ति के बाद श्रीपर्वत, गुंटूर (आंध्र प्रदेश) को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि वे पाल वंश के राजा धर्मपाल (सन् 770 से 810 ईस्वी) के समकालीन थे। इस आधार पर इनका समय आठवीं एवं नौवीं शताब्दी ठहरता है।
प्रमुख कृतियाँ
तिब्बती ग्रंथ स्तन्-ग्युर में सरहपा की 21 कृतियाँ संग्रहीत हैं। इनमें से 16 कृतियाँ अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी में हैं, जिनके अनुवाद भोट भाषा में मिलते हैं :
- दोहा कोश-गीति
- दोहाकोश नाम चर्यागीति
- दोहाकोशोपदेश गीति
- दोहा नाम
- दोहाटिप्पण
- कायकोशामृतवज्रगीति
- वाक्कोशरुचिरस्वरवज्रगीति
- चित्तकोशाजवज्रगीति
- कायवाक्चित्तामनसिकार
- दोहाकोश महामुद्रोपदेश
- द्वादशोपदेशगाथा
- स्वाधिष्ठानक्रम
- तत्त्वोपदेशशिखरदोहागीतिका
- भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीति
- वसंत- तिलकदोहाकोशगीतिका तथा
- महामुद्रोपदेशवज्रगुह्यगीति।
उक्त कृतियों में सर्वाधिक प्रसिद्धि दोहाकोश को ही मिली है। अन्य पाँच कृतियाँ उनकी संस्कृत रचनाएँ हैं-
- बुद्धकपालतंत्रपंजिका
- बुद्धकपालसाधन
- बुद्धकपालमंडलविधि
- त्रैलोक्यवशंकरलोकेश्वरसाधन एवं
- त्रैलोक्यवशंकरावलोकितेश्वरसाधन।
राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें सरह की प्रारंभिक रचनाएँ माना है, जिनमें से चौथी कृति के दो और अंशों के भिन्न अनुवादकों द्वारा किए गए अनुवाद स्तन्-ग्युर में शामिल हैं, जिन्हें स्वतंत्र कृतियाँ मानकर राहुल जी सरह की सात संस्कृत कृतियों का उल्लेख करते हैं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सरहपा / परिचय (हिंदी) कविताकोश। अभिगमन तिथि: 11 अप्रॅल, 2014।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख