अशोक चक्रधर: Difference between revisions
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{{सूचना बक्सा साहित्यकार | |||
|चित्र=Ashok chakradhar-1.jpg | |||
|पूरा नाम=डा. अशोक चक्रधर | |||
|अन्य नाम= | |||
|जन्म=[[8 फ़रवरी]], सन [[1951]] ई. | |||
|जन्म भूमि=[[खुर्जा]] ([[बुलन्दशहर]], [[उत्तर प्रदेश]]) | |||
|अविभावक=डा. राधेश्याम 'प्रगल्भ', श्रीमती कुसुम 'प्रगल्भ' | |||
|पति/पत्नी=बागेश्री चक्रधर | |||
|संतान=अनुराग, स्नेहा | |||
|कर्म भूमि= | |||
|कर्म-क्षेत्र=हिन्दी कविता, कविसम्मेलन, रंगमंच | |||
|मृत्यु= | |||
|मृत्यु स्थान= | |||
|मुख्य रचनाएँ=बूढ़े बच्चे, भोले भाले, तमाशा, बोल-गप्पे, मंच मचान, कुछ कर न चम्पू , अपाहिज कौन , मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया | |||
|विषय=काव्य संकलन, निबंध-संग्रह, नाटक, बाल साहित्य, प्रौढ़ एवं नवसाक्षर साहित्य, समीक्षा, अनुवाद, पटकथा, लेखन-निर्देशन, वृत्तचित्र, फीचर फ़िल्म लेखन | |||
|भाषा=[[हिन्दी भाषा]] | |||
|विद्यालय=एम.ए., एम.लिट्., पी-एच.डी. (हिन्दी) | |||
|पुरुस्कार-उपाधि=हास्य-रत्न उपाधि, बाल साहित्य पुरस्कार, आउटस्टैंडिंग परसन अवार्ड, निरालाश्री पुरस्कार, शान-ए-हिन्द अवार्ड | |||
|प्रसिद्धि=हास्य व्यंग लेखन, बाल साहित्य, नाटक, समीक्षा, टेलीफिल्म/लेखन-निर्देशन, वृत्तचित्र, धारावाहिक, फीचर फ़िल्म लेखन | |||
|विशेष योगदान= हिंदी के विकास में कम्प्यूटर की भूमिका विषयक शताधिक पावर-पाइंट प्रस्तुतियां। | |||
|नागरिकता=भारतीय | |||
|संबंधित लेख= | |||
|शीर्षक 1=पद-भार और सदस्यता | |||
|पाठ 1=उपाध्यक्ष हिन्दी अकादमी, ग्रीनमार्क आर्ट गैलरी नौएडा, काका हाथरसी पुरस्कार ट्रस्ट | |||
|शीर्षक 2= | |||
|पाठ 2= | |||
|अन्य जानकारी=बोल बसंतो (धारावाहिक), छोटी सी आशा (धारावाहिक)' में अभिनय भी किया | |||
|बाहरी कड़ियाँ= | |||
}} | |||
<blockquote>अशोक चक्रधर ने आसपास बिखरी विसंगतियों को उठाकर बोलचाल की भाषा में श्रोताओं के सम्मुख इस तरह रखा कि वह क़हक़हे लगाते-लगाते अचानक गम्भीर हो जाते हैं और क़हक़हों में डूब जाते हैं। आँखें डबडबा आती हैं, इसमें हंसी के आँसू भी होते हैं, और उन क्षणों में, अपने आँसू भी, जब कवि उन्हें अचानक गम्भीरता में ऐसे डुबोता चला जाता है कि वे मन में उसकी कसक कहीं पर गहरे महसूस करने लगते हैं। उन्हें लगने लगता है कि यह दर्द भी उनका अपना ही है, उनके घर का है, उनके पड़ोसी का है।</blockquote> | <blockquote>अशोक चक्रधर ने आसपास बिखरी विसंगतियों को उठाकर बोलचाल की भाषा में श्रोताओं के सम्मुख इस तरह रखा कि वह क़हक़हे लगाते-लगाते अचानक गम्भीर हो जाते हैं और क़हक़हों में डूब जाते हैं। आँखें डबडबा आती हैं, इसमें हंसी के आँसू भी होते हैं, और उन क्षणों में, अपने आँसू भी, जब कवि उन्हें अचानक गम्भीरता में ऐसे डुबोता चला जाता है कि वे मन में उसकी कसक कहीं पर गहरे महसूस करने लगते हैं। उन्हें लगने लगता है कि यह दर्द भी उनका अपना ही है, उनके घर का है, उनके पड़ोसी का है।</blockquote> | ||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
अशोक चक्रधर ने जब खु्र्जा ([[उत्तर प्रदेश]]) के अहीरपाड़ा मौहल्ले में होश सम्भाला तो अपने चारों ओर विशुद्ध निम्नवर्गीय और मध्यमवर्गीय माहौल को महसूस किया। घर के ठीक सामने एक तेली का घर था, पर मज़े की बात यह है कि उसका दरवाज़ा इस गली में नहीं बल्कि तेलियों वाली गली में दूसरी ओर खुलता था। गली के एक छोर पर अहीर बसते थे, जिनका गाय-भैंस और घी-दूध का कारोबार था। तेल की धानी, भैंसों की सानी और गोबर की महक उस वातावरण की पहचान बन गई थी। नन्हें अशोक चक्रधर ने आदमियों और पशुओं को साथ-साथ रहते देखा, जीते देखा। एक-दूसरे के लिए दोनों की उपयोगिता को महसूस किया। कोल्हू के बैलों को आँखों पर बंधी पट्टियों से पीड़ित होते हुए। यही नहीं निम्नमध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों की त्रासदियों को भी महसूस किया। संयुक्त परिवार के संकटों को पहचाना। | अशोक चक्रधर ने जब खु्र्जा ([[उत्तर प्रदेश]]) के अहीरपाड़ा मौहल्ले में होश सम्भाला तो अपने चारों ओर विशुद्ध निम्नवर्गीय और मध्यमवर्गीय माहौल को महसूस किया। घर के ठीक सामने एक तेली का घर था, पर मज़े की बात यह है कि उसका दरवाज़ा इस गली में नहीं बल्कि तेलियों वाली गली में दूसरी ओर खुलता था। गली के एक छोर पर अहीर बसते थे, जिनका गाय-भैंस और घी-दूध का कारोबार था। तेल की धानी, भैंसों की सानी और गोबर की महक उस वातावरण की पहचान बन गई थी। नन्हें अशोक चक्रधर ने आदमियों और पशुओं को साथ-साथ रहते देखा, जीते देखा। एक-दूसरे के लिए दोनों की उपयोगिता को महसूस किया। कोल्हू के बैलों को आँखों पर बंधी पट्टियों से पीड़ित होते हुए। यही नहीं निम्नमध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों की त्रासदियों को भी महसूस किया। संयुक्त परिवार के संकटों को पहचाना। | ||
==संयुक्त परिवार== | ====<u>संयुक्त परिवार</u>==== | ||
संयुक्त परिवार में बड़ों के दबदबे के कारण, पिता की लाचारियों और मां की मजबूरियों को उन्होंने जिस उम्र में महसूस किया, उससे वह अपनी उम्र से ज़्यादा परिपक्व हो गये। छोटे भाई और बहन के मुक़ाबले वह स्वयं को पूरा बड़ा समझने लगे थे और यह बड़े होने का अहसास उनमें इस क़दर पनपा कि जब दूसरे उन्हें 'बच्चा' कहते थे तो वह कड़वाहट से भर जाते थे। | संयुक्त परिवार में बड़ों के दबदबे के कारण, पिता की लाचारियों और मां की मजबूरियों को उन्होंने जिस उम्र में महसूस किया, उससे वह अपनी उम्र से ज़्यादा परिपक्व हो गये। छोटे भाई और बहन के मुक़ाबले वह स्वयं को पूरा बड़ा समझने लगे थे और यह बड़े होने का अहसास उनमें इस क़दर पनपा कि जब दूसरे उन्हें 'बच्चा' कहते थे तो वह कड़वाहट से भर जाते थे। | ||
==माँ से लगाव== | ====<u>माँ से लगाव</u>==== | ||
अशोक बचपन से ही अपनी मां से ज़्यादा जुड़े रहे हैं। उनके पिताजी यों तो इंटर कॉलेज में अध्यापक थे, कुछ समय नगरपालिका के निर्वाचित सदस्य रहे, चुंगी के टैक्स कमिश्नर रहे, मगर एक श्रेष्ठ कवि भी थे......प्रतिष्ठित कवि और बाल साहित्यकार थे, 'बालमेला' के सम्पादक थे- 'श्री राधेश्याम 'प्रगल्भ'। अशोक के पिता का बचपन भी दुख और शोक की घनी छाया में बीता था। 'प्रगल्भ' जी ने अपनी पुस्तक 'समय के पंख' में लिखा है कि वे मात्र छ: वर्ष के थे, जब उनके पिता का निधन हो गया, और फिर कई वर्ष तक एक दो वर्ष के अंतराल से कोई न कोई अप्रिय घटना घटती ही रही। उनकी मां ने बड़ी दृढ़ता और वीरता से लालन-पालन किया और उन्हें शिक्षा दिलाई। वे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी कर्मरत रहती थीं। | अशोक बचपन से ही अपनी मां से ज़्यादा जुड़े रहे हैं। उनके पिताजी यों तो इंटर कॉलेज में अध्यापक थे, कुछ समय नगरपालिका के निर्वाचित सदस्य रहे, चुंगी के टैक्स कमिश्नर रहे, मगर एक श्रेष्ठ कवि भी थे......प्रतिष्ठित कवि और बाल साहित्यकार थे, 'बालमेला' के सम्पादक थे- 'श्री राधेश्याम 'प्रगल्भ'। अशोक के पिता का बचपन भी दुख और शोक की घनी छाया में बीता था। 'प्रगल्भ' जी ने अपनी पुस्तक 'समय के पंख' में लिखा है कि वे मात्र छ: वर्ष के थे, जब उनके पिता का निधन हो गया, और फिर कई वर्ष तक एक दो वर्ष के अंतराल से कोई न कोई अप्रिय घटना घटती ही रही। उनकी मां ने बड़ी दृढ़ता और वीरता से लालन-पालन किया और उन्हें शिक्षा दिलाई। वे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी कर्मरत रहती थीं। | ||
==पहली कविता== | ====<u>पहली कविता</u>==== | ||
1956 या 1957 में जब अशोक पाँच-छह साल के थे, तो भूकम्प आया। मकान का वह हिस्सा गिर गया, जिसमें वह रहते थे। ताऊ जी द्वारा दूसरा हिस्सा भी रहने के लिए असुरक्षित घोषित कर दिया गया। नन्हें अशोक के पिता को सपरिवार पिछले हिस्से में शरण लेनी पड़ी। निहित स्वार्थों के ऊपर सहानुभूति की चादर ओढ़े हुए ताऊ जी तथा अन्य कुटुम्बजन तथाकथित सुरक्षा का हवाला देकर मकान को गिरवाने में जुट गए। संयुक्त परिवार में ऐसी घटनाओं के पीछे क्या मंतव्य होते हैं, यह किसी से भी छिपा नहीं रह सका है। इन्हीं प्रताड़नाओं के बीच नन्हें अशोक की पहली कविता ने जन्म लिया। | 1956 या 1957 में जब अशोक पाँच-छह साल के थे, तो भूकम्प आया। मकान का वह हिस्सा गिर गया, जिसमें वह रहते थे। ताऊ जी द्वारा दूसरा हिस्सा भी रहने के लिए असुरक्षित घोषित कर दिया गया। नन्हें अशोक के पिता को सपरिवार पिछले हिस्से में शरण लेनी पड़ी। निहित स्वार्थों के ऊपर सहानुभूति की चादर ओढ़े हुए ताऊ जी तथा अन्य कुटुम्बजन तथाकथित सुरक्षा का हवाला देकर मकान को गिरवाने में जुट गए। संयुक्त परिवार में ऐसी घटनाओं के पीछे क्या मंतव्य होते हैं, यह किसी से भी छिपा नहीं रह सका है। इन्हीं प्रताड़नाओं के बीच नन्हें अशोक की पहली कविता ने जन्म लिया। | ||
==शिक्षा== | ====<u>शिक्षा</u>==== | ||
बेसिक प्राइमरी पाठशाला नं. बारह में जितने दिन अशोक ने पढ़ाई की, उतने दिन वहाँ का कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम उनके बिना सम्पन्न नहीं हुआ। बहरहाल, प्राइमरी पाठशाला से पाँचवीं तक कक्षा पास कर लेने के बाद से 1959 में एस. एम. जे. ई. सी. इन्टर कॉलेज में कक्षा छ: में प्रवेश लेने तक अशोक छोटी-छोटी कविताएँ लिख चुके थे। डायरी जेब में रखने का बड़ा शौक था। अपनी कविताएँ दोस्तों को सुनाते थे, लेकिन पिता को नहीं सुनाते थे। पारिवारिक उलझनों और तनावों से ग्रस्त कड़वे अनुभवों की श्रृंखला में कभी-कभी बहार तभी आती थी, जब उनके कवि पिता के कवि-मित्र घर पर जमते थे। इन गोष्ठियों के माध्यम से ही उन्हें कविता लेखन की अनौपचारिक शिक्षा मिली। सन 1960 में रक्षामंत्री 'कृष्णा मेनन' आए। बालक अशोक ने कविता सुनाई। क्या सुनाया था यह तो याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि प्रधानाचार्य श्री एल. एन. गुप्ता की सहायता से कृष्णा मेनन ने प्रसन्न होकर उन्हें गोदी में उठा लिया था। | बेसिक प्राइमरी पाठशाला नं. बारह में जितने दिन अशोक ने पढ़ाई की, उतने दिन वहाँ का कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम उनके बिना सम्पन्न नहीं हुआ। बहरहाल, प्राइमरी पाठशाला से पाँचवीं तक कक्षा पास कर लेने के बाद से 1959 में एस. एम. जे. ई. सी. इन्टर कॉलेज में कक्षा छ: में प्रवेश लेने तक अशोक छोटी-छोटी कविताएँ लिख चुके थे। डायरी जेब में रखने का बड़ा शौक था। अपनी कविताएँ दोस्तों को सुनाते थे, लेकिन पिता को नहीं सुनाते थे। पारिवारिक उलझनों और तनावों से ग्रस्त कड़वे अनुभवों की श्रृंखला में कभी-कभी बहार तभी आती थी, जब उनके कवि पिता के कवि-मित्र घर पर जमते थे। इन गोष्ठियों के माध्यम से ही उन्हें कविता लेखन की अनौपचारिक शिक्षा मिली। सन 1960 में रक्षामंत्री 'कृष्णा मेनन' आए। बालक अशोक ने कविता सुनाई। क्या सुनाया था यह तो याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि प्रधानाचार्य श्री एल. एन. गुप्ता की सहायता से कृष्णा मेनन ने प्रसन्न होकर उन्हें गोदी में उठा लिया था। | ||
==पहला कवि सम्मेलन== | ====<u>पहला कवि सम्मेलन</u>==== | ||
[[चीन]] के आक्रमण के तत्काल बाद, सन 1962 में ही, प्रगल्भ जी ने अपने कॉलेज में एक कविसम्मेलन आयोजित किया। सारे नामी-गिरामी कवि बुलाए गए। अशोक का नाम भी कवि सूची में शामिल कर लिया गया। उस दिन पिता ने पहली और अन्तिम बार बेटे की कविता पर रंदा चलाकर उसे चिकना-चुपड़ा बनाया था। रात को [[पं. सोहन लाल द्विवेदी]] की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन आरम्भ हुआ। युद्धजन्य मानसिकता में माहौल गरम था। मंच पर वीररस की बरसात हो रही थी। नन्हें अशोक की कविता भी खूब जम गई। पं. सोहन लाल द्विवेदी ने सार्वजनिक रूप से लम्बा चौड़ा आशीर्वाद दिया और उस दिन से अशोक कहलाने लगे 'बालकवि अशोक'। इस तरह कवि सम्मेलनों का सिलसिला बचपन में ही शुरू हो गया । | [[चीन]] के आक्रमण के तत्काल बाद, सन 1962 में ही, प्रगल्भ जी ने अपने कॉलेज में एक कविसम्मेलन आयोजित किया। सारे नामी-गिरामी कवि बुलाए गए। अशोक का नाम भी कवि सूची में शामिल कर लिया गया। उस दिन पिता ने पहली और अन्तिम बार बेटे की कविता पर रंदा चलाकर उसे चिकना-चुपड़ा बनाया था। रात को [[पं. सोहन लाल द्विवेदी]] की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन आरम्भ हुआ। युद्धजन्य मानसिकता में माहौल गरम था। मंच पर वीररस की बरसात हो रही थी। नन्हें अशोक की कविता भी खूब जम गई। पं. सोहन लाल द्विवेदी ने सार्वजनिक रूप से लम्बा चौड़ा आशीर्वाद दिया और उस दिन से अशोक कहलाने लगे 'बालकवि अशोक'। इस तरह कवि सम्मेलनों का सिलसिला बचपन में ही शुरू हो गया । | ||
==जीवन में परिवर्तन== | ==जीवन में परिवर्तन== | ||
सन 1964 में जीवन ने तेज़ी से पहलू बदले। पिता 'प्रगल्भ' जी को श्री काका हाथरसी बेहद स्नेह करते थे। 'प्रगल्भ' जी काका जी की सलाह पर अपनी सत्रह साल पुरानी नौकरी छोड़कर सपरिवार [[हाथरस]] आ गए और 'ब्रज कला केन्द्र' की देख-रेख करने लगे। यह 'ब्रज कला केन्द्र' एक मिल मालिक सेठ जी अपनी सांस्कृतिक ललक में चलाया करते थे। हाथरस में एकदम वातावरण बदला। किशोर अशोक चक्रधर ने स्वयं को सुविधाओं के बीच एक सांस्कृतिक माहौल में पाया। | सन 1964 में जीवन ने तेज़ी से पहलू बदले। पिता 'प्रगल्भ' जी को श्री काका हाथरसी बेहद स्नेह करते थे। 'प्रगल्भ' जी काका जी की सलाह पर अपनी सत्रह साल पुरानी नौकरी छोड़कर सपरिवार [[हाथरस]] आ गए और 'ब्रज कला केन्द्र' की देख-रेख करने लगे। यह 'ब्रज कला केन्द्र' एक मिल मालिक सेठ जी अपनी सांस्कृतिक ललक में चलाया करते थे। हाथरस में एकदम वातावरण बदला। किशोर अशोक चक्रधर ने स्वयं को सुविधाओं के बीच एक सांस्कृतिक माहौल में पाया। | ||
अशोक वह सब कुछ अभी तक नहीं भूले है। कॉटन मिल की ऑफ़ीसर्स कॉलोनी के बड़े-बड़े कमरों का बाग़-बगीचों वाला घर, छोटे भाई-बहनों को गोदी में उठाकर खिलाना, मिल का रंगमंच, सुरुचि उद्यान का स्विमिंग पूल, रिहर्सल करते नौटंकी और [[रासलीला]] के कलाकार और दो ख़ास चीज़ें एक | अशोक वह सब कुछ अभी तक नहीं भूले है। कॉटन मिल की ऑफ़ीसर्स कॉलोनी के बड़े-बड़े कमरों का बाग़-बगीचों वाला घर, छोटे भाई-बहनों को गोदी में उठाकर खिलाना, मिल का रंगमंच, सुरुचि उद्यान का स्विमिंग पूल, रिहर्सल करते नौटंकी और [[रासलीला]] के कलाकार और दो ख़ास चीज़ें एक बोरोलिन और दूसरी नक़्क़ारा। | ||
==अभिनेत्री कृष्णा की नौटकी== | ====<u>अभिनेत्री कृष्णा की नौटकी</u>==== | ||
बौरोलिन नौटंकी की अभिनेत्री कृष्णा लगाया करती थी और नक्कारा बजाते थे अत्तन ख़ाँ। अशोक बहुत देर तक कृष्णा को मेकअप करते या गाने का रियाज़ करते देखा करते थे। कमरे में एकांत साधना कर रही हों या हॉल में सबके साथ रिहर्सल, अपनी सौन्दर्य सतर्कता में कृष्णा थोड़ी-थोड़ी देर के बाद बौरोलिन लगाती रहती थीं। सन् 1965 से 1968 के बीच वह [[लाल क़िला दिल्ली|लालक़िला]] कवि सम्मेलन में भी प्रतितवर्ष बुलाए गए। यह सुखद स्थिति ज़्यादा नहीं टिकी, क्योंकि 1969 में सेठजी ने मिल बंद कर दी और उसी के साथ-साथ उनका कला और संस्कृति प्रेम भी समाप्त हो गया यानी की कि 'ब्रज कला केन्द्र' का नौटंकी अध्याय लगभग ठप्प हो गया। | बौरोलिन नौटंकी की अभिनेत्री कृष्णा लगाया करती थी और नक्कारा बजाते थे अत्तन ख़ाँ। अशोक बहुत देर तक कृष्णा को मेकअप करते या गाने का रियाज़ करते देखा करते थे। कमरे में एकांत साधना कर रही हों या हॉल में सबके साथ रिहर्सल, अपनी सौन्दर्य सतर्कता में कृष्णा थोड़ी-थोड़ी देर के बाद बौरोलिन लगाती रहती थीं। सन् 1965 से 1968 के बीच वह [[लाल क़िला दिल्ली|लालक़िला]] कवि सम्मेलन में भी प्रतितवर्ष बुलाए गए। यह सुखद स्थिति ज़्यादा नहीं टिकी, क्योंकि 1969 में सेठजी ने मिल बंद कर दी और उसी के साथ-साथ उनका कला और संस्कृति प्रेम भी समाप्त हो गया यानी की कि 'ब्रज कला केन्द्र' का नौटंकी अध्याय लगभग ठप्प हो गया। | ||
==आर्थिक संकट== | ====<u>आर्थिक संकट</u>==== | ||
लालाजी ने पूरे एक साल की तनख़्वाह नहीं दी और अशोक चक्रधर के पिता के सामने रोज़ी-रोटी की समस्या आ खड़ी हुई। पाँच बच्चे और पत्नी का साथ। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बड़े होते बच्चों की ज़रूरतें और मनोवैज्ञानिक समस्याएँ। किसी तरह से रोज़ी-रोटी के लिए अपनी सारी जमा-पूँजी लगाकर, घर के जेबर बेचकर, [[मथुरा]] में प्रिटिंग प्रैस लगाया गया। | लालाजी ने पूरे एक साल की तनख़्वाह नहीं दी और अशोक चक्रधर के पिता के सामने रोज़ी-रोटी की समस्या आ खड़ी हुई। पाँच बच्चे और पत्नी का साथ। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बड़े होते बच्चों की ज़रूरतें और मनोवैज्ञानिक समस्याएँ। किसी तरह से रोज़ी-रोटी के लिए अपनी सारी जमा-पूँजी लगाकर, घर के जेबर बेचकर, [[मथुरा]] में प्रिटिंग प्रैस लगाया गया। | ||
==मथुरा में प्रिटिंग प्रैस== | ====<u>मथुरा में प्रिटिंग प्रैस</u>==== | ||
प्रैस चल भी पड़ा, लेकिन [[मथुरा]] में जो घर मिला, वह ऐसी कॉलोनी में था, जहाँ पर पुराने रईस लोग रहा करते थे। पिता यहाँ धनाढ्य क्लब संस्कृति के शिकार हो गए। प्रैस की पूरी ज़िम्मेदारी अशोक और छोटे भाई अनिल पर आ पड़ी। अशोक मालिक, मशीनमैन, कंपोज़ीटर और आर्डर लाने वाले एजैन्ट तक के रूप में प्रैस में जुटे रहे लेकिन धीरे-धीरे प्रैस ख़त्म होता गया। असल में प्रैस को एक 'मल्टीपर्पज़' अकेले युवक की क्षमताओं के अलावा कुछ अन्य क्षमताओं की भी ज़रूरत थी। व्यवसाय कर पाना, कवि-पिता के बस की बात नहीं रह गई थी। | प्रैस चल भी पड़ा, लेकिन [[मथुरा]] में जो घर मिला, वह ऐसी कॉलोनी में था, जहाँ पर पुराने रईस लोग रहा करते थे। पिता यहाँ धनाढ्य क्लब संस्कृति के शिकार हो गए। प्रैस की पूरी ज़िम्मेदारी अशोक और छोटे भाई अनिल पर आ पड़ी। अशोक मालिक, मशीनमैन, कंपोज़ीटर और आर्डर लाने वाले एजैन्ट तक के रूप में प्रैस में जुटे रहे लेकिन धीरे-धीरे प्रैस ख़त्म होता गया। असल में प्रैस को एक 'मल्टीपर्पज़' अकेले युवक की क्षमताओं के अलावा कुछ अन्य क्षमताओं की भी ज़रूरत थी। व्यवसाय कर पाना, कवि-पिता के बस की बात नहीं रह गई थी। | ||
==मथुरा की आकाशवाणी में== | ====<u>मथुरा की आकाशवाणी में</u>==== | ||
प्रैस चलाने के साथ-साथ अपनी पढ़ाई के प्रति भी अशोक चक्रधर काफ़ी सतर्क रहे। सन् 1970 में उन्होंने बी. ए. किया और पूरे मथुरा जनपद में केवल दो लोगों की प्रथम श्रेणी आई, एक श्री चक्रधर की दूसरे उनके मित्र राकेश शर्मा की। 1968 में जब मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र खुला तो श्री चक्रधर उसके प्रथम ऑडिशंड आर्टिस्ट के रूप में चुने गए। एक युवक के सामने अनंत आकाश खुले हुए थे, लेकिन उसे महसूस होता था कि उसके पर कटे हुए हैं। ऊहापोह और द्वंद्व की इन संश्लिष्ट मानसिकताओं के बीच एम. ए. पूरा हुआ। लेकिन यहाँ एक दूसरी पीड़ा झेलनी पड़ी। एम. ए. पूर्वार्द्ध में अशोक चक्रधर के आगरा विश्वविद्यालय में सर्वाधिक अंक थे और उन्हें पूरा विश्वास था कि वे ही एम. ए. टॉप करेंगे, लेकिन कुछ रहस्यमयी अंतर्गत धांधलियों के कारण उन्हें टॉप नहीं करने दिया गया। प्रथम श्रेणी तो खैर आ ही गई। लेकिन टॉप न कर पाने की पीड़ा उनको भीतर तक सालती रही। | प्रैस चलाने के साथ-साथ अपनी पढ़ाई के प्रति भी अशोक चक्रधर काफ़ी सतर्क रहे। सन् 1970 में उन्होंने बी. ए. किया और पूरे मथुरा जनपद में केवल दो लोगों की प्रथम श्रेणी आई, एक श्री चक्रधर की दूसरे उनके मित्र राकेश शर्मा की। 1968 में जब मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र खुला तो श्री चक्रधर उसके प्रथम ऑडिशंड आर्टिस्ट के रूप में चुने गए। एक युवक के सामने अनंत आकाश खुले हुए थे, लेकिन उसे महसूस होता था कि उसके पर कटे हुए हैं। ऊहापोह और द्वंद्व की इन संश्लिष्ट मानसिकताओं के बीच एम. ए. पूरा हुआ। लेकिन यहाँ एक दूसरी पीड़ा झेलनी पड़ी। एम. ए. पूर्वार्द्ध में अशोक चक्रधर के आगरा विश्वविद्यालय में सर्वाधिक अंक थे और उन्हें पूरा विश्वास था कि वे ही एम. ए. टॉप करेंगे, लेकिन कुछ रहस्यमयी अंतर्गत धांधलियों के कारण उन्हें टॉप नहीं करने दिया गया। प्रथम श्रेणी तो खैर आ ही गई। लेकिन टॉप न कर पाने की पीड़ा उनको भीतर तक सालती रही। | ||
==दिल्ली में संघर्ष== | ==दिल्ली में संघर्ष== | ||
परिवार की तेज़ी से बिगड़ती आर्थिक स्थिति और सन 1972 में आगरा विश्वविद्यालय में टॉप न कर पाने की पीड़ा मन में लिए हुए वह [[दिल्ली]] चले आए। यहाँ पर शुरू हुआ संघर्ष का वह दौर, जिसका सामना श्री चक्रधर को अकेले ही करना था। दिल्ली में एम. लिट्. में प्रवेश मिल गया और मिल गए मथुरा-हाथरस के कुछ पुराने साथी–सुधीर पचौरी, मुकेश गर्ग, भगवती पंडित और अमरदेव शर्मा। ये सभी लोग नए-नए मार्क्सवादी हुए थे और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इनका बड़ा दबदबा था। 'रहने की दिक्कत हो तो हमारे साथ रह लो'–सुधीर पचौरी ने कुछ इस तरह से कहा जैसे ये कोई बड़ी बात ही न हो। दिल्ली मॉडल टाउन में सुधीर पचौरी और कर्णसिंह चौहान साथ-साथ रहते थे, दोनों प्राध्यापक थे, कमाते थे। अशोक चक्रधर ने भी डेरा डाल दिया। यहाँ पर पूरा कम्यून सिस्टम चलता था। किसी चीज़ पर किसी का कोई व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं था, न किसी का किसी पर कोई एहसान। बस दिन-रात अध्ययन, चिन्तन-मनन, और समाज-रूपान्तर विधियों की चिन्ताएँ। अशोक चक्रधर को यह माहौल बहुत ही पसन्द आया और वे भी इसी साँचे में ढल गये। | परिवार की तेज़ी से बिगड़ती आर्थिक स्थिति और सन 1972 में आगरा विश्वविद्यालय में टॉप न कर पाने की पीड़ा मन में लिए हुए वह [[दिल्ली]] चले आए। यहाँ पर शुरू हुआ संघर्ष का वह दौर, जिसका सामना श्री चक्रधर को अकेले ही करना था। दिल्ली में एम. लिट्. में प्रवेश मिल गया और मिल गए मथुरा-हाथरस के कुछ पुराने साथी–सुधीर पचौरी, मुकेश गर्ग, भगवती पंडित और अमरदेव शर्मा। ये सभी लोग नए-नए मार्क्सवादी हुए थे और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इनका बड़ा दबदबा था। 'रहने की दिक्कत हो तो हमारे साथ रह लो'–सुधीर पचौरी ने कुछ इस तरह से कहा जैसे ये कोई बड़ी बात ही न हो। दिल्ली मॉडल टाउन में सुधीर पचौरी और कर्णसिंह चौहान साथ-साथ रहते थे, दोनों प्राध्यापक थे, कमाते थे। अशोक चक्रधर ने भी डेरा डाल दिया। यहाँ पर पूरा कम्यून सिस्टम चलता था। किसी चीज़ पर किसी का कोई व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं था, न किसी का किसी पर कोई एहसान। बस दिन-रात अध्ययन, चिन्तन-मनन, और समाज-रूपान्तर विधियों की चिन्ताएँ। अशोक चक्रधर को यह माहौल बहुत ही पसन्द आया और वे भी इसी साँचे में ढल गये। | ||
==सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक== | ====<u>सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक</u>==== | ||
सभी नौजवान थे, आदर्शवादी थे। किसकी तनख़ा किस पर ख़र्च हो रही है, इसका कोई गणित नहीं था। नवम्बर, 1972 में अशोक चक्रधर दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक पद पर नियुक्त कर लिये गये। कोई अपनी पहली तनख़ा अपने माता-पिता के चरणों में रखता है, लेकिन इनकी तनख़ा भी कम्यून-संस्कृति के अनुसार मित्रों और साथियों पर ख़र्च होती रही। सन् 1973 की जनवरी-फरवरी में हरियाणा के अध्यापकों ने व्यापक हड़ताल की तो अपने अन्य अध्यापक मित्रों के साथ श्री चक्रधर भी चल दिये गिरफ़्तारी देने। प्रधानाचार्य हलधर ने बहुत समझाया कि अभी तुम्हारी नौकरी स्थायी नहीं है, इन सब चक्करों में पड़ोगे तो भविष्य ख़तरे में पड़ जायेगा, पर युवा आदर्शवादी भला कभी दुनिया की बातें समझ पाया है। नौकरी हाथ से जाती रही और दो वर्ष बेरोज़गारी में बीते। | सभी नौजवान थे, आदर्शवादी थे। किसकी तनख़ा किस पर ख़र्च हो रही है, इसका कोई गणित नहीं था। नवम्बर, 1972 में अशोक चक्रधर दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक पद पर नियुक्त कर लिये गये। कोई अपनी पहली तनख़ा अपने माता-पिता के चरणों में रखता है, लेकिन इनकी तनख़ा भी कम्यून-संस्कृति के अनुसार मित्रों और साथियों पर ख़र्च होती रही। सन् 1973 की जनवरी-फरवरी में हरियाणा के अध्यापकों ने व्यापक हड़ताल की तो अपने अन्य अध्यापक मित्रों के साथ श्री चक्रधर भी चल दिये गिरफ़्तारी देने। प्रधानाचार्य हलधर ने बहुत समझाया कि अभी तुम्हारी नौकरी स्थायी नहीं है, इन सब चक्करों में पड़ोगे तो भविष्य ख़तरे में पड़ जायेगा, पर युवा आदर्शवादी भला कभी दुनिया की बातें समझ पाया है। नौकरी हाथ से जाती रही और दो वर्ष बेरोज़गारी में बीते। | ||
==संघर्ष का बीड़ी युग== | ====<u>संघर्ष का बीड़ी युग</u>==== | ||
अगले दो वर्ष सचमुच संघर्ष के थे। संघर्ष नियुक्तियों में होने वाली धांधलियों के ख़िलाफ़, संघर्ष हिन्दी विभाग के जनतंत्रीकरण के लिए, संघर्ष नए पाठ्यक्रम लागू कराने के लिए और संघर्ष अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए। रहना, खाना, पहनना चलो मिल-बांटकर हो जाता था, फिर भी कुछ तो धन चाहिए ही। चक्रधर बताते हैं कि उन दिनों सबसे रक़म होती थी साढ़े बारह रुपये। जिससे डी. टी. सी. का मासिक बस पास बनता था। दूसरा ख़र्चा बीड़ियों का था। चक्रधर को मांगना कभी अच्छा नहीं लगा। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने किसी से पैसा न तो मांगा, न ही उधार लिया। | अगले दो वर्ष सचमुच संघर्ष के थे। संघर्ष नियुक्तियों में होने वाली धांधलियों के ख़िलाफ़, संघर्ष हिन्दी विभाग के जनतंत्रीकरण के लिए, संघर्ष नए पाठ्यक्रम लागू कराने के लिए और संघर्ष अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए। रहना, खाना, पहनना चलो मिल-बांटकर हो जाता था, फिर भी कुछ तो धन चाहिए ही। चक्रधर बताते हैं कि उन दिनों सबसे रक़म होती थी साढ़े बारह रुपये। जिससे डी. टी. सी. का मासिक बस पास बनता था। दूसरा ख़र्चा बीड़ियों का था। चक्रधर को मांगना कभी अच्छा नहीं लगा। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने किसी से पैसा न तो मांगा, न ही उधार लिया। | ||
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==काका की दामादी== | ==काका की दामादी== | ||
बहुत ही कम लोगों को यह मालूम होगा कि काका हाथरसी और चक्रधर में कोई ख़ास रिश्तेदारी है। चक्रधर काका हाथरसी के दामाद हैं। जीवन में कहानियाँ-दर-कहानियाँ रखने वाले चक्रधर के विवाह की कोई ख़ास कहानी नहीं है। काका हाथरसी से घरेलू सम्बन्ध तो थे ही। मुकेश गर्ग और चक्रधर बचपन से ही सहपाठी थे। मुकेश की बहन बागेश्री को वे तब से जानते थे, जबसे वह फ़्रॉक पहनकर साथ में खेला करती थीं। उनके शब्दों में– | बहुत ही कम लोगों को यह मालूम होगा कि काका हाथरसी और चक्रधर में कोई ख़ास रिश्तेदारी है। चक्रधर काका हाथरसी के दामाद हैं। जीवन में कहानियाँ-दर-कहानियाँ रखने वाले चक्रधर के विवाह की कोई ख़ास कहानी नहीं है। काका हाथरसी से घरेलू सम्बन्ध तो थे ही। मुकेश गर्ग और चक्रधर बचपन से ही सहपाठी थे। मुकेश की बहन बागेश्री को वे तब से जानते थे, जबसे वह फ़्रॉक पहनकर साथ में खेला करती थीं। उनके शब्दों में– | ||
<blockquote>तब में उस जज़्बे को नहीं जान पाता था, पर आज मुझे लगता है कि बागेश्री मुझे तब भी बहुत अच्छी लगती थी।'</blockquote> | |||
*इसके बाद की चक्रधर की विकास यात्रा किसी से छिपी नहीं है। वे अपनी रचनात्मकता में हर मोर्चे पर भरपूर सक्रिय हैं। | *इसके बाद की चक्रधर की विकास यात्रा किसी से छिपी नहीं है। वे अपनी रचनात्मकता में हर मोर्चे पर भरपूर सक्रिय हैं। | ||
==प्रसिद्ध व्यक्तियों के विचार== | ==प्रसिद्ध व्यक्तियों के विचार== | ||
{| class="wikitable" border="1" align="right" | |||
|+काव्य संकलन | |||
|- | |||
! क्रम | |||
! नाम | |||
! प्रकाशन | |||
! सन | |||
|- | |||
|1- | |||
|बूढ़े बच्चे | |||
|प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, भारत सरकार | |||
|1979 | |||
|- | |||
|2- | |||
|सो तो है | |||
|प्रलेक प्रकाशन, नई दिल्ली, | |||
| 1983 | |||
|- | |||
|3- | |||
|भोले भाले | |||
|हिन्दी साहित्य निकेतन | |||
|1984 | |||
|- | |||
|4- | |||
|तमाशा | |||
|हिन्दी साहित्य निकेतन | |||
|1986 | |||
|- | |||
|5- | |||
|चुटपुटकुले | |||
|डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | |||
|1988 | |||
|- | |||
|6- | |||
|हंसो और मर जाओ | |||
|हिन्दी साहित्य निकेतन | |||
|1990 | |||
|- | |||
|7- | |||
|देश धन्या पंच कन्या | |||
|प्राची प्रकाशन, नई दिल्ली | |||
|1997 | |||
|- | |||
|8- | |||
|ए जी सुनिए | |||
|डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | |||
|1997 | |||
|- | |||
|9- | |||
|इसलिए बौड़म जी इसलिए | |||
|डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | |||
| 1997 | |||
|- | |||
|10- | |||
|खिड़कियां | |||
|डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | |||
|2001 | |||
|- | |||
|11- | |||
|बोल-गप्पे | |||
|डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | |||
|2001 | |||
|- | |||
|12- | |||
|जाने क्या टपके | |||
| डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, | |||
|2001 | |||
|- | |||
|13- | |||
|चुनी चुनाई | |||
|प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली | |||
|2002 | |||
|- | |||
|14- | |||
|सोची समझी | |||
|प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली | |||
|2002 | |||
|- | |||
|15- | |||
|जो करे सो जोकर | |||
|डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | |||
|2007 | |||
|- | |||
|16- | |||
|मसलाराम | |||
|पेंगुइन प्रकाशन | |||
| | |||
|} | |||
*पद्मश्री शरद जोशी ने लिखा था- | *पद्मश्री शरद जोशी ने लिखा था- | ||
अशोक की कहन में बड़ी शक्ति है और यह हमारी भाषा की, हमारे देश की और हमारी जनता की शक्ति है। | अशोक की कहन में बड़ी शक्ति है और यह हमारी भाषा की, हमारे देश की और हमारी जनता की शक्ति है। | ||
Line 74: | Line 191: | ||
गुलों के बीच महकता गुलाब होता है। | गुलों के बीच महकता गुलाब होता है। | ||
जो लाजवाब समझते हैं खुद को ऐ 'अल्हड़', | जो लाजवाब समझते हैं खुद को ऐ 'अल्हड़', | ||
अशोक चक्रधर उनका | अशोक चक्रधर उनका जवाब होता है। | ||
</poem> | </poem> | ||
Revision as of 04:37, 21 September 2010
अशोक चक्रधर
| |
पूरा नाम | डा. अशोक चक्रधर |
जन्म | 8 फ़रवरी, सन 1951 ई. |
जन्म भूमि | खुर्जा (बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश) |
पति/पत्नी | बागेश्री चक्रधर |
संतान | अनुराग, स्नेहा |
कर्म-क्षेत्र | हिन्दी कविता, कविसम्मेलन, रंगमंच |
मुख्य रचनाएँ | बूढ़े बच्चे, भोले भाले, तमाशा, बोल-गप्पे, मंच मचान, कुछ कर न चम्पू , अपाहिज कौन , मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया |
विषय | काव्य संकलन, निबंध-संग्रह, नाटक, बाल साहित्य, प्रौढ़ एवं नवसाक्षर साहित्य, समीक्षा, अनुवाद, पटकथा, लेखन-निर्देशन, वृत्तचित्र, फीचर फ़िल्म लेखन |
भाषा | हिन्दी भाषा |
विद्यालय | एम.ए., एम.लिट्., पी-एच.डी. (हिन्दी) |
प्रसिद्धि | हास्य व्यंग लेखन, बाल साहित्य, नाटक, समीक्षा, टेलीफिल्म/लेखन-निर्देशन, वृत्तचित्र, धारावाहिक, फीचर फ़िल्म लेखन |
विशेष योगदान | हिंदी के विकास में कम्प्यूटर की भूमिका विषयक शताधिक पावर-पाइंट प्रस्तुतियां। |
नागरिकता | भारतीय |
पद-भार और सदस्यता | उपाध्यक्ष हिन्दी अकादमी, ग्रीनमार्क आर्ट गैलरी नौएडा, काका हाथरसी पुरस्कार ट्रस्ट |
अन्य जानकारी | बोल बसंतो (धारावाहिक), छोटी सी आशा (धारावाहिक)' में अभिनय भी किया |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
अशोक चक्रधर ने आसपास बिखरी विसंगतियों को उठाकर बोलचाल की भाषा में श्रोताओं के सम्मुख इस तरह रखा कि वह क़हक़हे लगाते-लगाते अचानक गम्भीर हो जाते हैं और क़हक़हों में डूब जाते हैं। आँखें डबडबा आती हैं, इसमें हंसी के आँसू भी होते हैं, और उन क्षणों में, अपने आँसू भी, जब कवि उन्हें अचानक गम्भीरता में ऐसे डुबोता चला जाता है कि वे मन में उसकी कसक कहीं पर गहरे महसूस करने लगते हैं। उन्हें लगने लगता है कि यह दर्द भी उनका अपना ही है, उनके घर का है, उनके पड़ोसी का है।
जीवन परिचय
अशोक चक्रधर ने जब खु्र्जा (उत्तर प्रदेश) के अहीरपाड़ा मौहल्ले में होश सम्भाला तो अपने चारों ओर विशुद्ध निम्नवर्गीय और मध्यमवर्गीय माहौल को महसूस किया। घर के ठीक सामने एक तेली का घर था, पर मज़े की बात यह है कि उसका दरवाज़ा इस गली में नहीं बल्कि तेलियों वाली गली में दूसरी ओर खुलता था। गली के एक छोर पर अहीर बसते थे, जिनका गाय-भैंस और घी-दूध का कारोबार था। तेल की धानी, भैंसों की सानी और गोबर की महक उस वातावरण की पहचान बन गई थी। नन्हें अशोक चक्रधर ने आदमियों और पशुओं को साथ-साथ रहते देखा, जीते देखा। एक-दूसरे के लिए दोनों की उपयोगिता को महसूस किया। कोल्हू के बैलों को आँखों पर बंधी पट्टियों से पीड़ित होते हुए। यही नहीं निम्नमध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों की त्रासदियों को भी महसूस किया। संयुक्त परिवार के संकटों को पहचाना।
संयुक्त परिवार
संयुक्त परिवार में बड़ों के दबदबे के कारण, पिता की लाचारियों और मां की मजबूरियों को उन्होंने जिस उम्र में महसूस किया, उससे वह अपनी उम्र से ज़्यादा परिपक्व हो गये। छोटे भाई और बहन के मुक़ाबले वह स्वयं को पूरा बड़ा समझने लगे थे और यह बड़े होने का अहसास उनमें इस क़दर पनपा कि जब दूसरे उन्हें 'बच्चा' कहते थे तो वह कड़वाहट से भर जाते थे।
माँ से लगाव
अशोक बचपन से ही अपनी मां से ज़्यादा जुड़े रहे हैं। उनके पिताजी यों तो इंटर कॉलेज में अध्यापक थे, कुछ समय नगरपालिका के निर्वाचित सदस्य रहे, चुंगी के टैक्स कमिश्नर रहे, मगर एक श्रेष्ठ कवि भी थे......प्रतिष्ठित कवि और बाल साहित्यकार थे, 'बालमेला' के सम्पादक थे- 'श्री राधेश्याम 'प्रगल्भ'। अशोक के पिता का बचपन भी दुख और शोक की घनी छाया में बीता था। 'प्रगल्भ' जी ने अपनी पुस्तक 'समय के पंख' में लिखा है कि वे मात्र छ: वर्ष के थे, जब उनके पिता का निधन हो गया, और फिर कई वर्ष तक एक दो वर्ष के अंतराल से कोई न कोई अप्रिय घटना घटती ही रही। उनकी मां ने बड़ी दृढ़ता और वीरता से लालन-पालन किया और उन्हें शिक्षा दिलाई। वे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी कर्मरत रहती थीं।
पहली कविता
1956 या 1957 में जब अशोक पाँच-छह साल के थे, तो भूकम्प आया। मकान का वह हिस्सा गिर गया, जिसमें वह रहते थे। ताऊ जी द्वारा दूसरा हिस्सा भी रहने के लिए असुरक्षित घोषित कर दिया गया। नन्हें अशोक के पिता को सपरिवार पिछले हिस्से में शरण लेनी पड़ी। निहित स्वार्थों के ऊपर सहानुभूति की चादर ओढ़े हुए ताऊ जी तथा अन्य कुटुम्बजन तथाकथित सुरक्षा का हवाला देकर मकान को गिरवाने में जुट गए। संयुक्त परिवार में ऐसी घटनाओं के पीछे क्या मंतव्य होते हैं, यह किसी से भी छिपा नहीं रह सका है। इन्हीं प्रताड़नाओं के बीच नन्हें अशोक की पहली कविता ने जन्म लिया।
शिक्षा
बेसिक प्राइमरी पाठशाला नं. बारह में जितने दिन अशोक ने पढ़ाई की, उतने दिन वहाँ का कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम उनके बिना सम्पन्न नहीं हुआ। बहरहाल, प्राइमरी पाठशाला से पाँचवीं तक कक्षा पास कर लेने के बाद से 1959 में एस. एम. जे. ई. सी. इन्टर कॉलेज में कक्षा छ: में प्रवेश लेने तक अशोक छोटी-छोटी कविताएँ लिख चुके थे। डायरी जेब में रखने का बड़ा शौक था। अपनी कविताएँ दोस्तों को सुनाते थे, लेकिन पिता को नहीं सुनाते थे। पारिवारिक उलझनों और तनावों से ग्रस्त कड़वे अनुभवों की श्रृंखला में कभी-कभी बहार तभी आती थी, जब उनके कवि पिता के कवि-मित्र घर पर जमते थे। इन गोष्ठियों के माध्यम से ही उन्हें कविता लेखन की अनौपचारिक शिक्षा मिली। सन 1960 में रक्षामंत्री 'कृष्णा मेनन' आए। बालक अशोक ने कविता सुनाई। क्या सुनाया था यह तो याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि प्रधानाचार्य श्री एल. एन. गुप्ता की सहायता से कृष्णा मेनन ने प्रसन्न होकर उन्हें गोदी में उठा लिया था।
पहला कवि सम्मेलन
चीन के आक्रमण के तत्काल बाद, सन 1962 में ही, प्रगल्भ जी ने अपने कॉलेज में एक कविसम्मेलन आयोजित किया। सारे नामी-गिरामी कवि बुलाए गए। अशोक का नाम भी कवि सूची में शामिल कर लिया गया। उस दिन पिता ने पहली और अन्तिम बार बेटे की कविता पर रंदा चलाकर उसे चिकना-चुपड़ा बनाया था। रात को पं. सोहन लाल द्विवेदी की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन आरम्भ हुआ। युद्धजन्य मानसिकता में माहौल गरम था। मंच पर वीररस की बरसात हो रही थी। नन्हें अशोक की कविता भी खूब जम गई। पं. सोहन लाल द्विवेदी ने सार्वजनिक रूप से लम्बा चौड़ा आशीर्वाद दिया और उस दिन से अशोक कहलाने लगे 'बालकवि अशोक'। इस तरह कवि सम्मेलनों का सिलसिला बचपन में ही शुरू हो गया ।
जीवन में परिवर्तन
सन 1964 में जीवन ने तेज़ी से पहलू बदले। पिता 'प्रगल्भ' जी को श्री काका हाथरसी बेहद स्नेह करते थे। 'प्रगल्भ' जी काका जी की सलाह पर अपनी सत्रह साल पुरानी नौकरी छोड़कर सपरिवार हाथरस आ गए और 'ब्रज कला केन्द्र' की देख-रेख करने लगे। यह 'ब्रज कला केन्द्र' एक मिल मालिक सेठ जी अपनी सांस्कृतिक ललक में चलाया करते थे। हाथरस में एकदम वातावरण बदला। किशोर अशोक चक्रधर ने स्वयं को सुविधाओं के बीच एक सांस्कृतिक माहौल में पाया।
अशोक वह सब कुछ अभी तक नहीं भूले है। कॉटन मिल की ऑफ़ीसर्स कॉलोनी के बड़े-बड़े कमरों का बाग़-बगीचों वाला घर, छोटे भाई-बहनों को गोदी में उठाकर खिलाना, मिल का रंगमंच, सुरुचि उद्यान का स्विमिंग पूल, रिहर्सल करते नौटंकी और रासलीला के कलाकार और दो ख़ास चीज़ें एक बोरोलिन और दूसरी नक़्क़ारा।
अभिनेत्री कृष्णा की नौटकी
बौरोलिन नौटंकी की अभिनेत्री कृष्णा लगाया करती थी और नक्कारा बजाते थे अत्तन ख़ाँ। अशोक बहुत देर तक कृष्णा को मेकअप करते या गाने का रियाज़ करते देखा करते थे। कमरे में एकांत साधना कर रही हों या हॉल में सबके साथ रिहर्सल, अपनी सौन्दर्य सतर्कता में कृष्णा थोड़ी-थोड़ी देर के बाद बौरोलिन लगाती रहती थीं। सन् 1965 से 1968 के बीच वह लालक़िला कवि सम्मेलन में भी प्रतितवर्ष बुलाए गए। यह सुखद स्थिति ज़्यादा नहीं टिकी, क्योंकि 1969 में सेठजी ने मिल बंद कर दी और उसी के साथ-साथ उनका कला और संस्कृति प्रेम भी समाप्त हो गया यानी की कि 'ब्रज कला केन्द्र' का नौटंकी अध्याय लगभग ठप्प हो गया।
आर्थिक संकट
लालाजी ने पूरे एक साल की तनख़्वाह नहीं दी और अशोक चक्रधर के पिता के सामने रोज़ी-रोटी की समस्या आ खड़ी हुई। पाँच बच्चे और पत्नी का साथ। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बड़े होते बच्चों की ज़रूरतें और मनोवैज्ञानिक समस्याएँ। किसी तरह से रोज़ी-रोटी के लिए अपनी सारी जमा-पूँजी लगाकर, घर के जेबर बेचकर, मथुरा में प्रिटिंग प्रैस लगाया गया।
मथुरा में प्रिटिंग प्रैस
प्रैस चल भी पड़ा, लेकिन मथुरा में जो घर मिला, वह ऐसी कॉलोनी में था, जहाँ पर पुराने रईस लोग रहा करते थे। पिता यहाँ धनाढ्य क्लब संस्कृति के शिकार हो गए। प्रैस की पूरी ज़िम्मेदारी अशोक और छोटे भाई अनिल पर आ पड़ी। अशोक मालिक, मशीनमैन, कंपोज़ीटर और आर्डर लाने वाले एजैन्ट तक के रूप में प्रैस में जुटे रहे लेकिन धीरे-धीरे प्रैस ख़त्म होता गया। असल में प्रैस को एक 'मल्टीपर्पज़' अकेले युवक की क्षमताओं के अलावा कुछ अन्य क्षमताओं की भी ज़रूरत थी। व्यवसाय कर पाना, कवि-पिता के बस की बात नहीं रह गई थी।
मथुरा की आकाशवाणी में
प्रैस चलाने के साथ-साथ अपनी पढ़ाई के प्रति भी अशोक चक्रधर काफ़ी सतर्क रहे। सन् 1970 में उन्होंने बी. ए. किया और पूरे मथुरा जनपद में केवल दो लोगों की प्रथम श्रेणी आई, एक श्री चक्रधर की दूसरे उनके मित्र राकेश शर्मा की। 1968 में जब मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र खुला तो श्री चक्रधर उसके प्रथम ऑडिशंड आर्टिस्ट के रूप में चुने गए। एक युवक के सामने अनंत आकाश खुले हुए थे, लेकिन उसे महसूस होता था कि उसके पर कटे हुए हैं। ऊहापोह और द्वंद्व की इन संश्लिष्ट मानसिकताओं के बीच एम. ए. पूरा हुआ। लेकिन यहाँ एक दूसरी पीड़ा झेलनी पड़ी। एम. ए. पूर्वार्द्ध में अशोक चक्रधर के आगरा विश्वविद्यालय में सर्वाधिक अंक थे और उन्हें पूरा विश्वास था कि वे ही एम. ए. टॉप करेंगे, लेकिन कुछ रहस्यमयी अंतर्गत धांधलियों के कारण उन्हें टॉप नहीं करने दिया गया। प्रथम श्रेणी तो खैर आ ही गई। लेकिन टॉप न कर पाने की पीड़ा उनको भीतर तक सालती रही।
दिल्ली में संघर्ष
परिवार की तेज़ी से बिगड़ती आर्थिक स्थिति और सन 1972 में आगरा विश्वविद्यालय में टॉप न कर पाने की पीड़ा मन में लिए हुए वह दिल्ली चले आए। यहाँ पर शुरू हुआ संघर्ष का वह दौर, जिसका सामना श्री चक्रधर को अकेले ही करना था। दिल्ली में एम. लिट्. में प्रवेश मिल गया और मिल गए मथुरा-हाथरस के कुछ पुराने साथी–सुधीर पचौरी, मुकेश गर्ग, भगवती पंडित और अमरदेव शर्मा। ये सभी लोग नए-नए मार्क्सवादी हुए थे और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इनका बड़ा दबदबा था। 'रहने की दिक्कत हो तो हमारे साथ रह लो'–सुधीर पचौरी ने कुछ इस तरह से कहा जैसे ये कोई बड़ी बात ही न हो। दिल्ली मॉडल टाउन में सुधीर पचौरी और कर्णसिंह चौहान साथ-साथ रहते थे, दोनों प्राध्यापक थे, कमाते थे। अशोक चक्रधर ने भी डेरा डाल दिया। यहाँ पर पूरा कम्यून सिस्टम चलता था। किसी चीज़ पर किसी का कोई व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं था, न किसी का किसी पर कोई एहसान। बस दिन-रात अध्ययन, चिन्तन-मनन, और समाज-रूपान्तर विधियों की चिन्ताएँ। अशोक चक्रधर को यह माहौल बहुत ही पसन्द आया और वे भी इसी साँचे में ढल गये।
सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक
सभी नौजवान थे, आदर्शवादी थे। किसकी तनख़ा किस पर ख़र्च हो रही है, इसका कोई गणित नहीं था। नवम्बर, 1972 में अशोक चक्रधर दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक पद पर नियुक्त कर लिये गये। कोई अपनी पहली तनख़ा अपने माता-पिता के चरणों में रखता है, लेकिन इनकी तनख़ा भी कम्यून-संस्कृति के अनुसार मित्रों और साथियों पर ख़र्च होती रही। सन् 1973 की जनवरी-फरवरी में हरियाणा के अध्यापकों ने व्यापक हड़ताल की तो अपने अन्य अध्यापक मित्रों के साथ श्री चक्रधर भी चल दिये गिरफ़्तारी देने। प्रधानाचार्य हलधर ने बहुत समझाया कि अभी तुम्हारी नौकरी स्थायी नहीं है, इन सब चक्करों में पड़ोगे तो भविष्य ख़तरे में पड़ जायेगा, पर युवा आदर्शवादी भला कभी दुनिया की बातें समझ पाया है। नौकरी हाथ से जाती रही और दो वर्ष बेरोज़गारी में बीते।
संघर्ष का बीड़ी युग
अगले दो वर्ष सचमुच संघर्ष के थे। संघर्ष नियुक्तियों में होने वाली धांधलियों के ख़िलाफ़, संघर्ष हिन्दी विभाग के जनतंत्रीकरण के लिए, संघर्ष नए पाठ्यक्रम लागू कराने के लिए और संघर्ष अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए। रहना, खाना, पहनना चलो मिल-बांटकर हो जाता था, फिर भी कुछ तो धन चाहिए ही। चक्रधर बताते हैं कि उन दिनों सबसे रक़म होती थी साढ़े बारह रुपये। जिससे डी. टी. सी. का मासिक बस पास बनता था। दूसरा ख़र्चा बीड़ियों का था। चक्रधर को मांगना कभी अच्छा नहीं लगा। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने किसी से पैसा न तो मांगा, न ही उधार लिया।
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इन दिनों अनेक गुणात्मक परिवर्तन हुए। पाठ्यक्रम बदले गये। नियुक्तियों में होने वाली धांधलियों पर रोक लगी। 'प्रगति' नामक साहित्यिक संस्था ने माहौल में नई चेतना का प्रसार किया। अशोक चक्रधर 'प्रगति' के संयोजक थे। कार्यक्रमों की सफलता के लिए घर-घर जाकर लोगों को जुटाते थे। उनसे उनकी समझते थे, उनको अपनी समझाते थे। उनके अनुसार साढ़े बारह रुपये के उस मासिक बस पास का ऐसा घनघोर निचोड़ू इस्तेमाल उनके अलावा शायद ही कोई करता होगा। डी. टी. सी. बसों का ऐसा कोई रूट नहीं होगा, जो उनसे बचा हो और दिल्ली विश्वविद्यालय का कोई कॉलेज नहीं बचा, जहाँ पर उन्होंने इंटरव्यू न दिया हो। पर क्रान्तिकारी माने जाने वाले अशोक चक्रधर को किसी कॉलेज ने नौकरी नहीं दी। वहाँ पर उनसे पहले उनकी चर्चाएँ पहुँच जाती थीं।
वह मोहभंग व्यक्तित्व विखण्डन के कगार तक जा पहुँचता, यदि 'बागेश्री' से मोह का नाता न जुड़ा होता। श्री चक्रधर को लगा कि कोई है, जो सिर्फ़ उनकी चिन्ताओं के लिए ही है। युवा संन्यासी अब राग बागेश्री गाने लगा। जनवादी साथियों को यह बिल्कुल नहीं भाया। दिन-रात उनके इशारों पर चलने वाला कामरेड अब इश्क के चक्कर में आकर उनके हाथ से खिसक रहा था। चक्रधर एक छोटी कविता सुनाते हैं–
मैंने वरण किया
उन्होंने कहा-मरण है।
मैंने कहा-नहीं,
यही तो क्रान्ति का
पहला चरण है।
बहरहाल, वक़्त अब या तो बागेश्री के साथ बीतता था या मुक्तिबोध पर लिखी अपनी पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार करने में। मैकमिलन से उनकी पुस्तक 'मुक्तिबोध की काव्य प्रक्रिया' 1975 में प्रकाशित हुई। जोधपुर विश्वविद्यालय ने इस पुस्तक को युवा लेखन द्वारा लिखी गई वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का पुरस्कार दिया। सुधीश पचौरी और असग़र वज़ाहत के प्रयत्नों से 1975 में ही जामिया मिल्लिया इस्लामिया में नौकरी भी लग गई। दिल्ली विश्वविद्यालय की संघर्ष गाथाओं की हवा यहाँ तक नहीं पहुँची थी, इसलिए नौकरी पाने में कोई अड़चन नहीं आई। नौकरी मिलते ही श्री चक्रधर अपने पूरे परिवार को दिल्ली ले आए। प्रैस बेचकर कर्ज़े चुका दिए गए। रईसों की क्लब संस्कृति से मुक्ति मिली। छोटे भाई-बहनों की शिक्षा की व्यवस्था हुई। अब सिर्फ़ एक ही चुनौती थी–पिता के सोये हुए आत्मविश्वास को जगाना और उनके लिए किसी नौकरी का जुगाड़ करना। धीरे-धीरे यह भी हो गया। 'प्रगल्भ' जी का लेखन फिर से प्रारम्भ हो गया और वे मैकमिलन में सम्पादक के पद पर कार्य करने लगे।
काका की दामादी
बहुत ही कम लोगों को यह मालूम होगा कि काका हाथरसी और चक्रधर में कोई ख़ास रिश्तेदारी है। चक्रधर काका हाथरसी के दामाद हैं। जीवन में कहानियाँ-दर-कहानियाँ रखने वाले चक्रधर के विवाह की कोई ख़ास कहानी नहीं है। काका हाथरसी से घरेलू सम्बन्ध तो थे ही। मुकेश गर्ग और चक्रधर बचपन से ही सहपाठी थे। मुकेश की बहन बागेश्री को वे तब से जानते थे, जबसे वह फ़्रॉक पहनकर साथ में खेला करती थीं। उनके शब्दों में–
तब में उस जज़्बे को नहीं जान पाता था, पर आज मुझे लगता है कि बागेश्री मुझे तब भी बहुत अच्छी लगती थी।'
- इसके बाद की चक्रधर की विकास यात्रा किसी से छिपी नहीं है। वे अपनी रचनात्मकता में हर मोर्चे पर भरपूर सक्रिय हैं।
प्रसिद्ध व्यक्तियों के विचार
क्रम | नाम | प्रकाशन | सन |
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1- | बूढ़े बच्चे | प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, भारत सरकार | 1979 |
2- | सो तो है | प्रलेक प्रकाशन, नई दिल्ली, | 1983 |
3- | भोले भाले | हिन्दी साहित्य निकेतन | 1984 |
4- | तमाशा | हिन्दी साहित्य निकेतन | 1986 |
5- | चुटपुटकुले | डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | 1988 |
6- | हंसो और मर जाओ | हिन्दी साहित्य निकेतन | 1990 |
7- | देश धन्या पंच कन्या | प्राची प्रकाशन, नई दिल्ली | 1997 |
8- | ए जी सुनिए | डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | 1997 |
9- | इसलिए बौड़म जी इसलिए | डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | 1997 |
10- | खिड़कियां | डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | 2001 |
11- | बोल-गप्पे | डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | 2001 |
12- | जाने क्या टपके | डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, | 2001 |
13- | चुनी चुनाई | प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली | 2002 |
14- | सोची समझी | प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली | 2002 |
15- | जो करे सो जोकर | डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली | 2007 |
16- | मसलाराम | पेंगुइन प्रकाशन |
- पद्मश्री शरद जोशी ने लिखा था-
अशोक की कहन में बड़ी शक्ति है और यह हमारी भाषा की, हमारे देश की और हमारी जनता की शक्ति है।
- पद्मश्री काका हाथरसी ने कहा था-
'चक्रधर' चक्र घुमाया
हास्य-व्यंग्य के रंग में, करें करारी चोट,
कविसम्मेलन-मंच पर, 'घुमा दिया लंगोट'।
घुमा दिया लंगोट, न झुककर देखा नीचे,
आगे थे जो 'काका' छूट गए वे पीछे।
सभी चकित रह गए 'चक्रधर' चक्र घुमाया,
अल्प समय में, अल्प आयु में नाम कमाया।
- माया गोविन्द के शब्दों में -
वो कल्पना-प्रभात हैं
है जिसके काव्य में असर
जो है प्रकाश सा प्रखर
जो शब्द-शब्द है प्रखर
वो है 'अशोक चक्रधर'।
- हुल्लड़ मुरादाबादी के शब्दों में -
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, शब्दों के जादूगर अशोक चक्रधर का कृतित्व अपने-आपमें एक करिश्मा है।
- हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा के शब्दों में -
अंग्रेज़ी में एक कहावत है 'जैक ऑफ़ ऑल, मास्टर ऑफ़ नन'। अशोक चक्रधर मंचीय काव्य-जगत में एकमात्र ऐसा नाम है, जिसने इस कहावत को झूठा साबित करके दिखा दिया है। वह 'जैक ऑफ़ ऑल' भी हैं तथा 'मास्टर ऑफ़ ऑल' भी हैं।
- जावेद अख़्तर के शब्दों में -
जैसे शायरी ज़िंदगी के होठों की हल्की सी मुस्कान है, उसी तरह शायरी के होठों पर जो हल्की सी मुस्कान है, उसका नाम 'अशोक चक्रधर' है।
- अल्हड़ बीकानेरी के शब्दों में -
हर अंजुमन में वो आली जनाब होता है,
गुलों के बीच महकता गुलाब होता है।
जो लाजवाब समझते हैं खुद को ऐ 'अल्हड़',
अशोक चक्रधर उनका जवाब होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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