मैं चिर श्रद्धा लेकर आई वह साध बनी प्रिय परिचय में, मैं भक्ति हृदय में भर लाई, वह प्रीति बनी उर परिणय में। जिज्ञासा से था आकुल मन वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं, विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण आधार पा गई निश्चय मैं ! प्राणों की तृष्णा हुई लीन स्वप्नों के गोपन संचय में संशय भय मोह विषाद हीन लज्जा करुणा में निर्भय मैं ! लज्जा जाने कब बनी मान, अधिकार मिला कब अनुनय में पूजन आराधन बने गान कैसे, कब? करती विस्मय मैं ! उर करुणा के हित था कातर सम्मान पा गई अक्षय मैं, पापों अभिशापों की थी घर वरदान बनी मंगलमय मैं ! बाधा-विरोध अनुकूल बने अंतर्चेतन अरुणोदय में, पथ भूल विहँस मृदु फूल बने मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में।