यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो। ज्यों छल छाँड़ि सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो॥१॥ ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके। त्यों न साधु, सुरसरि-तरंग-निर्मल गुनगुन रघुबरके॥२॥ ज्यों नासा सुगंध-रस-बस, रसना षटरसरति मानी। राम-प्रसाद-माल, जूठनि लगि, त्यों न ललकि ललचानी॥३॥ चंदन-चंदबदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो। त्यों रघुपति-पद-पदुम-परसको तनु पातकी न तरस्यो॥४॥ ज्यों सब भाँति कुदेव कुठाकर सेये बपु बचन हिये हूँ। त्यों न राम, सकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ॥५॥ चंचल चरन लोभ लगि लोलु द्वार-द्वार जग बागे। राम-सीय-आश्रमनि चलत त्यों भये न स्त्रमित अभागे॥६॥ सकल अंग पद बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है। है तुलसीहिं परतीति एक प्रभु मूरति कृपामई है॥७॥