बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार। दुहुं चूका रीता पड़ैं , वाकूं वार न पार॥1॥ `कबीर' हरि के नाव सूं, प्रीति रहै इकतार। तो मुख तैं मोती झड़ैं, हीरे अन्त न फार॥2॥ ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ। अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ॥3॥ कोइ एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि। बस्तर बासन सूं खिसै, चोर न सकई लागि॥4॥ जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होइ। या आपा को डारिदे, दया करै सब कोइ॥5॥ आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक। कह `कबीर' नहिं उलटिए, वही एक की एक॥6॥