पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश। मेखलाकर पर्वत अपार अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़, अवलोक रहा है बार-बार नीचे जल में निज महाकार, -जिसके चरणों में पला ताल दर्पण सा फैला है विशाल! गिरि का गौरव गाकर झर-झर मद में नस-नस उत्तेजित कर मोती की लड़ियों सी सुन्दर झरते हैं झाग भरे निर्झर! गिरिवर के उर से उठ-उठ कर उच्चाकांक्षायों से तरूवर है झाँक रहे नीरव नभ पर अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर। उड़ गया, अचानक लो, भूधर फड़का अपार वारिद के पर! रव-शेष रह गए हैं निर्झर! है टूट पड़ा भू पर अंबर! धँस गए धरा में सभय शाल! उठ रहा धुआँ, जल गया ताल! -यों जलद-यान में विचर-विचर था इंद्र खेलता इंद्रजाल