द्रुत झरो जगत् के जीर्ण पत्र! हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण! हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत, तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!! निष्प्राण विगत-युग! मृतविहंग! जग-नीड़, शब्द औ' श्वास-हीन, च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों-से तुम झर-झर अनन्त में हो विलीन! कंकाल-जाल जग में फैले फिर नवल रुधिर,-पल्लव-लाली! प्राणों की मर्मर से मुखरित जीव की मांसल हरियाली! मंजरित विश्व में यौवन के जग कर जग का पिक, मतवाली निज अमर प्रणय-स्वर मदिरा से भर दे फिर नव-युग की प्याली!