Difference between revisions of "केशवदास"

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{{बहुविकल्प|बहुविकल्पी शब्द=केशवदास|लेख का नाम=केशवदास (बहुविकल्पी)}}
हिन्दी के एक प्रमुख आचार्य, जिनका समय भक्ति-काल के अंतर्गत पड़ता है, पर जो अपनी रचना में पूर्णत: शास्त्रीय तथा रीतिबद्ध हैं। शिवसिंह सेंगर तथा ग्रियर्सन द्वारा उल्लिखित क्रमश: सन् 1567 ई. (सं. 1624) तथा 1580 ई. (सं. 1337) इनका कविताकाल है, जन्मकाल नहीं।
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'''केशव''' या '''केशवदास''' [[हिन्दी साहित्य]] के [[रीति काल]] की कवि-त्रयी के एक प्रमुख स्तंभ हैं। वे [[संस्कृत]] काव्यशास्त्र का सम्यक् परिचय कराने वाले [[हिंदी]] के प्राचीन आचार्य और कवि थे।  
==जन्म==
 
'मिश्रबन्धुविनोद' प्रथम भाग में 1555 ई. (सं. 1612) तथा 'हिन्दी नवरत्न' में 1551 ई. (सं. 1608) में अनुमानित जन्मकाल रामचन्द्र शुक्ल ने 1515 ई. (सं. 1612) जन्मकाल माना है। गौरीशंकर द्विवेदी के 'सुकवि सरोज' में उदघृत दोहों के अनुसार इनका जन्मकाल 1559 ई. (सम्वत् 1618) तथा जन्म-मास [[चैत्र]] प्रमाणित होता है। लाला भगवानदीन इनकी वंश परम्परा में मान्य जन्मतिथि सम्वत् 1618 (1559 ई.) के चैत्रमास की [[रामनवमी]] की पुष्टि करते हैं। तुंगारण्य के समीप [[बेतवा नदी]] के तट पर स्थित ओछड़ा नगर में इनका जन्म हुआ था।
 
==परिचय==
 
केशवदास ने 'कविप्रिया' में अपना वंश परिचय विस्तार से दिया है। जिसके अनुसार वंशानुक्रम यों हैं-'''कुंभवार-देवानन्द-जयदेव-दिनकर-गयागजाधर-जयानन्द-त्रिविक्रम-भावशर्मा-सुरोत्तम या 'शिरोमणि'-हरिनाथ-कृष्णदत्त-काशीनाथ-बलभद्र-केशवदास-कल्याण'''। 'रामचन्द्रिका' और 'विज्ञानगीता' के आरम्भ में उल्लिखित परिचय संक्षिप्त है। 'विज्ञानगीता' में वंश के मूल पुरुष का नाम वेदव्यास उल्लिखित है। इनकी परिवार की वृत्ति पुराण की थी। ये भारद्वाज गोत्रीय मार्दनी शाखा के यजुर्वेदी, मिश्र उपाधिकारी ब्राह्मण थे। ओड़छाधिपति महाराज, इन्द्रजीत सिंह इनके प्रधान आश्रयदाता थे। जिन्होंने 21 गाँव इन्हें भेंट में दिए थे। वीरसिंहदेव का आश्रय भी इन्हें प्राप्त था। तत्कालीन जिन विशिष्ट जनों से इनका घनिष्ठ परिचय था, उनके उल्लिखित नाम ये हैं-[[अकबर]], [[बीरबल]], [[टोडरमल]] और उदयपुर के राणा अमरसिंह। तुलसीदास से इनका साक्षात्कार महाराज इन्द्रजीत के साथ काशी यात्रा के समय सम्भव है। उच्चकोटि के रसिक होने पर भी ये पूरे आस्तिक थे। ये व्यवहारकुशल, वाग्विदग्ध और विनोदी थे। अपने पाण्डित्य का इन्हें अभिमान था। नीति-निपुण, निर्भीक एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। साहित्य और संगीत, धर्मशास्त्र और राजनीति, ज्योतिष और वैद्यक सभी विषयों का इन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था।
 
==रचनाएँ==
 
केशवदास की प्राप्य प्रमाणिक रचनाएँ रचनाक्रम के अनुसार ये हैं-'रसिकप्रिया' (1591 ई.), 'कविप्रिया' और 'रामचन्द्रिका' (1601 ई.), 'विज्ञानगीता' (1610 ई.) और 'जहाँगीरजसचन्द्रिका' (1612 ई.)। 'रतनावली' का रचनाकाल अज्ञात है, पर यह इनकी सर्वप्रथम रचना है। नखशिख, शिखनख और बारहमासा पहले 'कविप्रिया' के ही अंतर्गत थे। आगे चलकर ये पृथक प्रचारित हुए। सम्भव है इनकी रचना 'कविप्रिया' के पूर्व हुई हो और बाद में इन सबका या किसी का उसमें समावेश किया गया हो। 'छन्दमाला' रचनाकाल भी अज्ञात है। 'रामअलंकृतमंजरी' ग्रन्थ कुछ विद्वानों ने छन्दशास्त्र का ग्रन्थ अनुमानित किया है। 'जैमुनि की कथा', 'बालचरित्र', 'हनुमानजन्मलीला', 'रसललित' और 'अमीघूँट' नामक रचनाएँ प्रसिद्ध कवि केशव द्वारा प्रणीत नहीं हैं। 'जैमुनि की कथा' जैमिनीकृत 'अश्वमेध' का हिन्दी रूपान्तर है। केशव की छाप से भिन्न इसमें 'प्रधान केसौराइ' छाप मिलती है। इसका रचनाकाल विक्रम की अठारवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। 'बालचरित्र' और 'हनुमानजन्मलीला' की रचना अति शिथिल है। इसमें ब्रज तथा अवधि का मिश्रण तथा बुन्देली का अभाव है। 'रसललित' में कृष्णलीला वर्णित है तथा 'अमीघूँट' किसी निर्गुणमार्गी कवि केसव की रचना है। 'अमीघूँट' की भाषा, शैली और विषय तीनों सन्त-परम्परा के अनुरूप हैं। केशव निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित थे, अत: ये रचनाएँ इनकी सिद्ध नहीं होतीं।
 
  
'रसिकप्रिया' में नायिकाभेद और रस का निरूपण है। इसमें प्रियजु की प्रशस्ति वर्णित है। रसास्वादियों के लिए निर्मित होने के कारण इसमें उदाहरणों पर विशेष दृष्टि है। 'कविप्रिया' कविशिक्षा की पुस्तक है, इसीलिए इसमें शास्त्रप्रवाह और जनप्रवाह के अतिरिक्त विदेशी साहित्यप्रवाह का भी नियोजन है। 'रामचन्द्रिका' में रामकथा वर्णित है। 'छन्दमाला' में दो खण्ड हैं। पहले में वर्णवृत्तों का और दूसरे में मात्रावृत्तों का विचार किया गया है तथा उदाहरण अधिकतर 'रामचन्द्रिका' में ही रखे गए हैं। 'वीरचरित्र' में वीरसिंह देव का चरित्र चित्रित है। संस्कृत के 'प्रबोधचन्द्रोदय नाटक' के आधार पर 'विज्ञानगीता' निर्मित हुई, जिसमें अपनी ओर से बहुत सी सामग्री पौराणिक वृत्तिवाले पंण्डित कवि ने जोड़ रखी है। 'जहाँगीररजसचन्द्रिका' में [[जहाँगीर]] के दरबार का वर्णन है। 'रत्नावली' में [[रत्नसेन]] के वीरोत्साह का वर्णन है। मूल के मुद्रित संस्करणों का उल्लेख उनके स्वतंत्र विवरण के साथ यथास्थान है तथा केशव ग्रन्थावली के रूप में केशव के सभी प्रमाणिक ग्रन्थ विश्वनाथप्रसाद मिश्र के द्वारा सम्पादित होकर हिन्दुस्तानी अकादमी, प्रयाग से सन् 1959 में प्रकाशित कर दिये गये हैं। महत्व और प्रसिद्धि की दृष्टे से केशव की तीन रचनाएँ उल्लेखनीय है:-
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*केशवदास रचित प्रामाणिक ग्रंथ नौ हैं- रसिकप्रिया, कविप्रिया, नखशिख, छंदमाला, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेव चरित, रतनबावनी, विज्ञानगीता और जहाँगीर जसचंद्रिका।
 
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*रसिकप्रिया केशवदास की प्रौढ़ रचना है, जो काव्यशास्त्र संबंधी ग्रंथ हैं। इसमें [[रस]], वृत्ति और काव्य दोषों के लक्षण उदाहरण दिए गए हैं।
'''<u>रामचन्द्रिका</u>'''
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*केशवदास [[अलंकार]] सम्प्रदायवादी आचार्य कवि थे। इसलिये स्वाभाविक था कि वे भामह, उद्भट और दंडी आदि अलंकार सम्प्रदाय के आचार्यों का अनुसरण करते। इन्होंने अलंकारों के दो भेद माने हैं- साधारण और विशिष्ट। साधारण के अन्तर्गत वर्णन, वर्ण्य, भूमिश्री-वर्णन और राज्यश्री-वर्णन आते हैं, जो काव्यकल्पलतावृत्ति और अलंकारशेखर पर आधारित हैं। इस तरह वे अलंकार्य और अलंकार में भेद नहीं मानते।
 
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*अलंकारों के प्रति विशेष रुचि होने के कारण काव्यपक्ष दब गया है और सामान्यत: केशवदास सहृदय कवि नहीं माने जाते। अपनी क्लिष्टता के कारण ये '''कठिन काव्य के प्रेत''' कहे गए हैं।<br />
यह केशव की प्रसिद्ध रचना है। कवि ने इसमें संक्षेप में राम-कथा प्रस्तुत की है किंतु इसे भक्ति-प्रधान ग्रंथ मानना कठिन है। कवि ने कथा वर्णन की अपेक्षा अपने पांडित्य का चमत्कार दिखाने का प्रयास अधिक किया है। रस, छन्द और अलंकारों के उदाहरण प्रस्तुत करने में कवि की रुचि अधिक रही है।
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{{main|केशव}}<br />
'''<u>रसिक प्रिया</u>'''
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
जैसा कि नाम से ध्वनित होता है, केशव ने यह ग्रंथ रसिक जनों के प्रमोद के लिए रचा है। यह एक रीति-ग्रंथ है जिसमें काव्यांगों के लक्षण प्रस्तुत किए गए हैं। कवि की रसिक मानसिकता इस रचना में पूर्णत: मुखरित हुई है।
 
 
 
'''<u>कविप्रिया</u>'''
 
 
 
यह कवि जनों का मार्गदर्शक ग्रंथ कहा जा सकता है। इसमें कवि-कर्त्तव्यों तथा अलंकारों का विवेचन है।
 
 
 
इनके अतिरिक्त 'विज्ञान-गीता' में कवि ने जगत, जीव और ब्रह्म आदि आध्यात्मिक विषयों पर रचना की है। 'वीरसिंहदेव-चरित', 'जहाँगीर-जसचन्द्रिका' तथा 'रत्न बावनी' आदि कृतियाँ इनकी चारणकालीन मनोवृत्ति का परिचय कराती हैं। केशव को अपने पांडित्य के प्रदर्शन की अत्यधिक लालसा थी, परिणामस्वरूप वह अपने काव्य के कला-पक्ष को ही सँवारने में संलग्न रहे। उनका भाव-पक्ष उपेक्षित रहा। आपके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
 
====<u>भाव पक्ष</u>====
 
चमत्कार-प्रदर्शन और पांडित्य की धाक जमाने की इच्छा के कारण केशव अपने काव्य के भावपक्ष को समृद्धि प्रदान नहीं कर सके। रामकथा के अनेक मार्मिक प्रसंगों को जिस प्रकार कवि तुलसी ने महत्व प्रदान किया है, केशव उनको केवल छूकर आगे बढ़ गए हैं किंतु कुछ स्थलों पर कवि ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय अवश्य दिया है। उदाहरणार्थ, हनुमान द्वारा राम की मुद्रिका गिराए जाने पर सीता की उक्ति दर्शनीय है-
 
<poem>श्री पुर में वन मध्य हौं, तू मग करी अनीति।
 
कहु मुँदरी अब तोयन की, को करिहैं परतीति॥</poem>
 
केशव 'कठिन काव्य के प्रेत' कहे जाते है। भाव और रस कवित्व की आत्मा है। केशव ने केवल शरीर का श्रृंगार किया है, आत्मा की ह्रदयहीनता से उपेक्षा की है। वह अपने रचना-चमत्कार द्वारा श्रोता और पाठकों को चमत्कृत करने के प्रयास में रहे हैं। केवल मानसिक व्यायाम में रुचि लेने वाले पाठक ही उनके काव्य  का आनन्द उठाते हैं।
 
====<u>कला पक्ष</u>====
 
केवल संख्यापूर्ति के लिए ही केशव ने सभी रसों को काव्य में स्थान दिया है किंतु उनके रस-वर्णन में भी सरसता के स्थान पर पांडित्य -प्रदर्शन की ही प्रवृत्ति है। 'रसिकप्रिया' तथा 'कविप्रिया' में अवश्य सरसता के यत्र-तत्र दर्शन हो जाते हैं।
 
==प्रक्रति-चित्रण==
 
केशव का प्रकृति वर्णन परिणाम में तो अधिक है किंतु वह चित्ताकर्षण और सजीवता से रहित है। परम्परागत नाम परिगणना ही उनके प्रकृति-वर्णन में प्राप्त होती है। हर प्रकार के वृक्ष, वे एक ही स्थान में उगा सकते हैं। उगता सूर्य उनको लाल मुख वाला वानर प्रतीत होता है। पंचवटी को धूर्जटी (शिव) बना देने के प्रयास में उन्होंने प्रकृति के मनोरम दृश्यों को उपेक्षित-सा कर दिया है। केशव के काव्य की प्रशंसनीय विशेषता उनकी संवाद्-योजना है। उनके संवाद सटीक और सजीव होते हैं। संवादों में नाटकीयता तथा व्युत्पन्नमतित्व भी उपस्थित रहता है; यथा-
 
 
 
राम कौ काम कहा? "रिपु जीतहिं" 'कौन कबै रिपु जीत्यौ कहाँ?'
 
====लक्षण ग्रंथ====
 
केशवदास ने लक्षण-ग्रन्थ ही नहीं, लक्ष्य-ग्रन्थ भी लिखे हैं। श्रृंगार की ही नहीं, अन्य रसों की भी रचनाएँ की हैं। मुक्तक ही नहीं, प्रबन्ध भी प्रणीत किए हैं। इनके लक्षण-ग्रन्थ तीन हैं-'रसिकप्रिया', 'कविप्रिया', और 'छन्दमाला'। 'रसिकप्रिया' का आधार ग्रन्थ रुद्रभट्ट का 'श्रृंगारतिलक' है। इसमें संस्कृत के तद्विषयक बहुप्रचलित ग्रन्थों से कुछ विभिन्नता है। इन्होंने इसमें कुछ बातें 'कामतंत्र' की भी जोड़ दी हैं। केशव ने 'काव्यकल्पलतावृत्ति', 'काव्यादर्श' आदि के आधार पर कवि शिक्षा की पुस्तक 'कविप्रिया' प्रस्तुत की। 'कविप्रिया' में इन्होंने 'अलंकार' शब्द को उसी व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है, जिसमें दण्डी, वामन आदि आचार्यों ने। इसी से परिभाषिक अर्थ के अनुसार विशेषालंकार के अतिरिक्त इन्होंने सामान्यलंकार के अंतर्गत काव्य की शोभा बढ़ाने वाली सभी सामग्री जुटा दी है। 'छन्दमाला' का आधार संस्कृत के 'वृत्तरत्नाकर' आदि पिंगलग्रन्थ हैं। इसमें लक्षण देने की प्रणाली केशव ने अपनी रखी है। वस्तुत: इस क्षेत्र में केशव ने कोई नयी उदभावना नहीं की है।
 
 
 
केशव के लक्ष्य-ग्रन्थों में पूर्ण अवधानता नहीं दिखायी देती। इनके प्रसिद्ध महाकाव्य 'रामचन्द्रिका' में कथा के क्रमबद्ध रूप और अवसर के अनुकूल विस्तार-संकोच का अपेक्षित ध्यान नहीं रखा गया है। ये वस्तुत: दरबारी जीव थे, इसीलिए इसमें दरबार के अनुकूल बातों का ही वर्णन विस्तार से किया गया है। 'रामचन्द्रिका' के छन्दों का परिवर्तन इतना शीघ्र और इतने अधिक रूपों में किया गया है कि प्रवाह आ ही नहीं पाता। केशव ने इसमें नाट्यतत्व का अच्छा नियोजन किया है, जिससे यह लीला के उपयुक्त हो गयी है। 'वीरचरित्र' प्रबन्धकाव्य है, किन्तु इसमें प्रबन्ध के गुण मात्रा में नही पाये जाते। 'जहाँगीरजसचन्द्रिका' प्रशस्ति काव्य है। चमत्कार के चक्कर में अधिक रहने से इनकी रचनाओं में भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष प्रधान हो गया है। केशव ने अपने ग्रन्थ, साहित्य की सामान्य काव्यभाषा, ब्रज में लिखे हैं। [[बुन्देलखण्ड]] निवासी होने के कारण उसके कुछ शब्द और प्रयोग इनकी रचना में आ गये हैं। संस्कृत ग्रन्थों का अनुवदन और उनकी छाया का ग्रहण केशव ने संस्कृत वर्ण-वृत्तों में अधिक किया है। इसीलिए ऐसे स्थलों की भाषा में, विशेष रूप से, 'रामचन्द्रिका' और 'विज्ञानगीता' में, संस्कृत प्रभाव अधिक है। केशव की दुरूहता का कारण संस्कृत के प्रयोगों या शब्दों का हिन्दी में रखना है। 'रसिकप्रिया' में इन्होंने हिन्दी-काव्य-प्रवाह के अनुरूप सशक्त, समर्थ और प्रांजल भाषा रखी है। वह सबसे अधिक वाग्योगपूर्ण है। उसमें ब्रज का पूर्ण वैभव दिखाई देता है। 'रतनबावनी' की भाषा में पुरानापन अधिक है। वह बतलाती है कि अपभ्रंश के रूप हिन्दी में पारम्परिक प्रवाह के कारण चलते रहे हैं। इन्होंने सब प्रकार की भाषा में रचना करने का अभ्यास किया होगा। केशव ने अपने साहित्यिक नवयौवन में अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी में हाथ माँजा, फिर इन्होंने ब्रज में रचना की और उसे काव्य के अनुरूप परिष्कृत किया। अन्त में ये संस्कृत प्रधान भाषा की ओर मुड़े। यही मोड़ ये सम्भाल न सके।
 
==केशव के रूप==
 
केशव की रचना में इनके तीन रूप दिखाई देते हैं-आचार्य का, महाकवि का और इतिहासकार का। ये परमार्थत: हिन्दी के प्रथम आचार्य हैं। आचार्य का आसन ग्रहण करने पर इन्हें संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति को हिन्दी में प्रचलित करने की चिन्ता हुई, जो कि जीवन के अन्त तक बनी रही। इन्होंने ही [[हिन्दी भाषा]] में संस्कृत की परम्परा की व्यवस्थापूर्वक स्थापना की थी। आधुनिक युग के पूर्व तक उसका अनुमान होता आया है। इनके पहले भी रीतिग्रन्थ लिखे गये, पर व्यवस्थित और सर्वांगपूर्ण ग्रन्थ सबसे पहले इन्होंने ही प्रस्तुत किए। यद्यपि कवि शिक्षा की पुस्तकें बाद में लिखी गयीं, तथापि उनका साहित्य में पठन-पाठन उतना नहीं हुआ। हिन्दी की सारी परम्परा को इन्होंने प्रभावित कर रखा है, 'कविप्रिया' के माध्यम से। इनकी सबसे अदभुत कल्पना अलंकार सम्बंधी है। श्लेष के और श्लेषानुप्राणित अलंकारों के ये विशेष प्रेमी थे। इनके श्लेष संस्कृत-पदावली के हैं। हिन्दी में श्लेष के दूसरे पण्डित सेनापति के श्लेष हिन्दी पदावली के हैं। दोनों की श्लेष योजना में यही भेद है। इनका कविरूप, इनकी प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों प्रकार की रचनाओं में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। हिन्दी के परवर्ती प्राय: सभी श्रृंगारी कवि इनकी उक्तियों एवं भावव्यंजकता से प्रभावित हैं। बिहारी ने इनसे भाव, रूपक आदि ग्रहण किए तथा देव ने उपमा और उक्ति तक लेने में संकोच नहीं किया। इनमें एक विशिष्ट गुण है, सम्वादों के उपयुक्त विधान का। मानव मनोभावों की इन्होंने सुन्दर व्यंजना की है। संवादों में इनकी उक्तियाँ विशेष मार्मिक हैं, पर प्रबन्ध के बीच अनावश्यक उपदेशात्मक प्रसंगों का नियोजन उसके वैशिष्ट्य में व्यवधान उपस्थित करता है। इनके प्रशस्ति काव्यों में इतिहास की प्रचुर सामग्री भरी है। ओड़छा राज्य का विस्तृत इतिहास प्रस्तुत करने में वे बड़े सहायक सिद्ध हो सकते हैं।  
 
==महात्म्य==
 
प्राचीन काव्य जगत में केशव का जो महात्म्य था, उसकी कल्पना आज नहीं की जा सकती। मध्यकाल में इनका काव्य-प्रवाह में जैसा मान था, वैसा अन्य का नहीं, प्राचीन युग में सुरति मिश्र ऐसे पंण्डित और कविसरदार ने इनकी कृतियों की टीकाएँ लिखीं। यह इस बात का प्रमाण है कि इनके काव्य का मनन करने वाले जिज्ञासु की संख्या पर्याप्त थी। नैषध का हिन्दी में उल्था करने वाले गुमान ने इनकी 'रामचन्द्रिका' के जोड़तोड़ में 'कृष्णचन्द्रिका' लिखी। इनका लोहा सभी मानते थे और इनकी रचना का अध्ययन निरन्तर होता रहा। इनकी कृत्सा काव्यपाण्डित्य के स्खलन के कारण नहीं थी। मध्यकाल में तो किसी के पाण्डित्य या विदग्धता की जाँच की कसौटी थी, इनकी कविता। 'कवि को दीन न चहै बिदाई, पूछे केसव की कबिताई' यह उक्ति इसका प्रमाण है। इनकी रचनाओं के अर्थ की कठिनाई का अर्थ लगाया गया कि इनकी कविता में 'रस नहीं, 'सहृदयता' नहीं। इनके हृदय में प्रकृति के प्रति उतना राग नहीं था, जितना कवि के लिए अपेक्षित है, पर ये ही नहीं, हिन्दी का सारा मध्यकाल प्रकृति के प्रति उदासीन है।
 
'केसव अर्थ गम्भीरकों' की चर्चा अब कोई नहीं करता। यदि केशव 'रसिकप्रियाओ की सी भाषा लिखते रहते तो इनका इतना विरोध न होता। प्रसंग-कल्पनाशक्ति-सम्पन्न तथा काव्य-भाषा-प्रवीण होने पर भी केशव पाण्डित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण नहीं कर सके, अन्यथा ये 'कठिन काव्य के प्रेत' होने से बच जाते।
 
==सहायक ग्रन्थ==
 
#केशव की काव्यकला: कृष्णशंकर शुक्ल,
 
#आचार्य केशवदास: हीरालाल दीक्षित,
 
#केशवदास: चन्द्रावली पाण्डेय,
 
#केशवदास: रामरतन भटनागर,
 
#आचार्य कवि केशव: कृष्णचन्द्र वर्मा,
 
#बुन्देल-वैभव (भा. 1):गौरीशंकर द्विवेदी,
 
#सुकवि-सरोज प्रथम भाग: गौरीशंकर द्विवेदी,
 
#हि. सा. इ.: रा. च. शुक्ल,
 
#हि. सा. बृ. इ. (भा. 6): सं. नगेन्द्र,
 
#हि. का. शा. इ.: भगीरथ मिर।
 
==मृत्यु==
 
मिश्रबन्धु और रामचन्द्र शुक्ल 1617 ई. (सं. 1624) में तथा लाला भगवानदीन और गौरीशंकर द्विवेदी 1623 ई. (सं. 1680) में इनका निधन मानते हैं। [[तुलसीदास]] द्वारा केशव के प्रेत-योनि से उद्धार किये जाने कि किंवदन्ती के आधार पर इनका निधन सन् 1623 ई. के पूर्व ठहरता है। इनकी अन्तिम रचना 'जहाँगीरजसचन्द्रिका' का रचनाकाल 1612 ई. (सं. 1669) है। इन्होंने वृद्धावस्था का मार्मिक वर्णन किया है। अत: 1561 में इनका जन्म हुआ तो मृत्यु सन् 1621 ई. (सं. 1678) के निकट जा सकती है।
 
 
 
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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[[Category:नया पन्ना]]
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==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 08:45, 6 May 2020

chitr:Disamb2.jpg keshavadas ek bahuvikalpi shabd hai any arthoan ke lie dekhean:- keshavadas (bahuvikalpi)

keshav ya keshavadas hindi sahity ke riti kal ki kavi-trayi ke ek pramukh stanbh haian. ve sanskrit kavyashastr ka samyakh parichay karane vale hiandi ke prachin achary aur kavi the.

  • keshavadas rachit pramanik granth nau haian- rasikapriya, kavipriya, nakhashikh, chhandamala, ramachandrika, virasianhadev charit, ratanabavani, vijnanagita aur jahaangir jasachandrika.
  • rasikapriya keshavadas ki praudh rachana hai, jo kavyashastr sanbandhi granth haian. isamean ras, vritti aur kavy doshoan ke lakshan udaharan die ge haian.
  • keshavadas alankar sampradayavadi achary kavi the. isaliye svabhavik tha ki ve bhamah, udbhat aur dandi adi alankar sampraday ke acharyoan ka anusaran karate. inhoanne alankaroan ke do bhed mane haian- sadharan aur vishisht. sadharan ke antargat varnan, varny, bhoomishri-varnan aur rajyashri-varnan ate haian, jo kavyakalpalatavritti aur alankarashekhar par adharit haian. is tarah ve alankary aur alankar mean bhed nahian manate.
  • alankaroan ke prati vishesh ruchi hone ke karan kavyapaksh dab gaya hai aur samanyat: keshavadas sahriday kavi nahian mane jate. apani klishtata ke karan ye kathin kavy ke pret kahe ge haian.


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panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

sanbandhit lekh

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