आलम(रीति काल): Difference between revisions

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आलम जाति के [[ब्राह्मण]] थे, पर 'शेख' नाम की 'रँगरेजिन' के प्रेम में फँसकर पीछे से [[मुसलमान]] हो गए और उसके साथ विवाह करके रहने लगे। आलम को शेख से 'जहान' नामक एक पुत्र भी हुआ। ये [[औरंगजेब]] के दूसरे बेटे [[मुअज्जम]] के आश्रय में रहते थे जो पीछे बहादुरशाह के नाम से गद्दी पर बैठा। अत: आलम का कविताकाल [[संवत्]] 1740, से संवत् 1760 तक माना जा सकता है। इनकी कविताओं का एक संग्रह 'आलमकेलि' के नाम से निकला है। इस पुस्तक में आए पद्यों के अतिरिक्त इनके और बहुत से सुंदर और उत्कृष्ट पद्य ग्रंथों में संगृहीत मिलते हैं और लोगों के मुँह से सुने जाते हैं।
आलम जाति के [[ब्राह्मण]] थे, पर 'शेख' नाम की 'रँगरेजिन' के प्रेम में फँसकर पीछे से [[मुसलमान]] हो गए और उसके साथ विवाह करके रहने लगे। आलम को शेख से 'जहान' नामक एक पुत्र भी हुआ। ये [[औरंगजेब]] के दूसरे बेटे [[मुअज्जम]] के आश्रय में रहते थे जो पीछे बहादुरशाह के नाम से गद्दी पर बैठा। अत: आलम का कविताकाल [[संवत्]] 1740, से संवत् 1760 तक माना जा सकता है। इनकी कविताओं का एक संग्रह 'आलमकेलि' के नाम से निकला है। इस पुस्तक में आए पद्यों के अतिरिक्त इनके और बहुत से सुंदर और उत्कृष्ट पद्य ग्रंथों में संग्रहीत मिलते हैं और लोगों के मुँह से सुने जाते हैं।
;शेख रँगरेजिन
;शेख रँगरेजिन
शेख रँगरेजिन भी अच्छी कविता करती थी। आलम के साथ प्रेम होने की विचित्र कथा प्रसिद्ध है। कहते हैं कि आलम ने एक बार उसे पगड़ी रँगने को दी जिसकी खूँट में भूल से काग़ज का एक चिट बँधा चला गया। उस चिट में दोहे की यह आधी पंक्ति लिखी थी '''कनक छरीसी कामिनी काहे को कटि छीन।''' शेख ने दोहा इस तरह पूरा करके '''कटि को कंचन कटि बिधि कुचन मध्य धरि दीन''', उस चिट को फिर ज्यों का त्यों पगड़ी की खूँट में बाँधकर लौटा दिया। उसी दिन से आलम शेख के पूरे प्रेमी हो गए और अंत में उसके साथ विवाह भी कर लिया। शेख बहुत ही चतुर और हाजिरजवाब स्त्री थी। एक बार शाहजादा मुअज्जम ने हँसी में शेख से पूछा , 'क्या आलम की औरत आप ही हैं?' शेख ने चट उत्तर दिया कि 'हाँ, जहाँपनाह जहान की माँ मैं ही हूँ।' 'आलमकेलि' में बहुत से कवित्त शेख के रचे हुए हैं। आलम के कवित्त सवैयों में भी बहुत-सी रचना शेख की मानी जाती है। जैसे नीचे लिखे कवित्त में चौथा चरण शेख का बनाया कहा जाता है -   
शेख रँगरेजिन भी अच्छी कविता करती थी। आलम के साथ प्रेम होने की विचित्र कथा प्रसिद्ध है। कहते हैं कि आलम ने एक बार उसे पगड़ी रँगने को दी जिसकी खूँट में भूल से काग़ज़ का एक चिट बँधा चला गया। उस चिट में दोहे की यह आधी पंक्ति लिखी थी '''कनक छरीसी कामिनी काहे को कटि छीन।''' शेख ने दोहा इस तरह पूरा करके '''कटि को कंचन कटि बिधि कुचन मध्य धरि दीन''', उस चिट को फिर ज्यों का त्यों पगड़ी की खूँट में बाँधकर लौटा दिया। उसी दिन से आलम शेख के पूरे प्रेमी हो गए और अंत में उसके साथ विवाह भी कर लिया। शेख बहुत ही चतुर और हाजिरजवाब स्त्री थी। एक बार शाहजादा मुअज्जम ने हँसी में शेख से पूछा , 'क्या आलम की औरत आप ही हैं?' शेख ने चट उत्तर दिया कि 'हाँ, जहाँपनाह जहान की माँ मैं ही हूँ।' 'आलमकेलि' में बहुत से कवित्त शेख के रचे हुए हैं। आलम के कवित्त सवैयों में भी बहुत-सी रचना शेख की मानी जाती है। जैसे नीचे लिखे कवित्त में चौथा चरण शेख का बनाया कहा जाता है -   
<poem>प्रेमरंग-पगे जगमगे जगे जामिनि के,  
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जोबन की जोति जगी जोर उमगत हैं।
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मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं,  
मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं,  
झूमत हैं झुकिझुकि झ्रपि उघरत हैं
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बेखुद फ़कीर, वह आशिक दिवाना है
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Latest revision as of 07:54, 7 November 2017

आलम जाति के ब्राह्मण थे, पर 'शेख' नाम की 'रँगरेजिन' के प्रेम में फँसकर पीछे से मुसलमान हो गए और उसके साथ विवाह करके रहने लगे। आलम को शेख से 'जहान' नामक एक पुत्र भी हुआ। ये औरंगजेब के दूसरे बेटे मुअज्जम के आश्रय में रहते थे जो पीछे बहादुरशाह के नाम से गद्दी पर बैठा। अत: आलम का कविताकाल संवत् 1740, से संवत् 1760 तक माना जा सकता है। इनकी कविताओं का एक संग्रह 'आलमकेलि' के नाम से निकला है। इस पुस्तक में आए पद्यों के अतिरिक्त इनके और बहुत से सुंदर और उत्कृष्ट पद्य ग्रंथों में संग्रहीत मिलते हैं और लोगों के मुँह से सुने जाते हैं।

शेख रँगरेजिन

शेख रँगरेजिन भी अच्छी कविता करती थी। आलम के साथ प्रेम होने की विचित्र कथा प्रसिद्ध है। कहते हैं कि आलम ने एक बार उसे पगड़ी रँगने को दी जिसकी खूँट में भूल से काग़ज़ का एक चिट बँधा चला गया। उस चिट में दोहे की यह आधी पंक्ति लिखी थी कनक छरीसी कामिनी काहे को कटि छीन। शेख ने दोहा इस तरह पूरा करके कटि को कंचन कटि बिधि कुचन मध्य धरि दीन, उस चिट को फिर ज्यों का त्यों पगड़ी की खूँट में बाँधकर लौटा दिया। उसी दिन से आलम शेख के पूरे प्रेमी हो गए और अंत में उसके साथ विवाह भी कर लिया। शेख बहुत ही चतुर और हाजिरजवाब स्त्री थी। एक बार शाहजादा मुअज्जम ने हँसी में शेख से पूछा , 'क्या आलम की औरत आप ही हैं?' शेख ने चट उत्तर दिया कि 'हाँ, जहाँपनाह जहान की माँ मैं ही हूँ।' 'आलमकेलि' में बहुत से कवित्त शेख के रचे हुए हैं। आलम के कवित्त सवैयों में भी बहुत-सी रचना शेख की मानी जाती है। जैसे नीचे लिखे कवित्त में चौथा चरण शेख का बनाया कहा जाता है -

प्रेमरंग-पगे जगमगे जगे जामिनि के,
जोबन की जोति जगी ज़ोर उमगत हैं।
मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं,
झूमत हैं झुकिझुकि झ्रपि उघरत हैं
आलम सो नवल निकाई इन नैनन की,
पाँखुरी पदुम पै भँवर थिरकत हैं।
चाहत हैं उड़िबे को, देखत मयंकमुख,
जानत हैं रैनि तातें ताहि में रहत हैं

हृदयतत्व की प्रधानता

आलम रीतिबद्ध रचना करने वाले कवि नहीं थे। ये प्रेमोन्मत्त कवि थे और अपनी तरंग के अनुसार रचना करते थे। इसी से इनकी रचनाओं में हृदयतत्व की प्रधानता है। 'प्रेम की पीर' या 'इश्क का दर्द' इनके एकएक वाक्य में भरा पाया जाता है। उत्प्रेक्षाएँ भी इन्होंने बड़ी अनूठी और बहुत अधिक कही हैं। शब्द वैचित्रय, अनुप्रास आदि की प्रवृत्ति इनमें विशेष रूप से कहीं नहीं पाई जाती। श्रृंगार रस की ऐसी उन्मादमयी उक्तियाँ इनकी रचना में मिलती हैं कि पढ़ने और सुननेवाले लीन हो जाते हैं। यह तन्मयता सच्ची उमंग में ही सम्भव है। रेखता या उर्दू भाषा में भी इन्होंने कवित्त कहे हैं।

भाषा

भाषा भी इस कवि की परिमार्जित और सुव्यवस्थित है पर उसमें कहीं कहीं 'कीन, दीन, जीन' आदि अवधी या पूरबी हिन्दी के प्रयोग भी मिलते हैं। कहीं कहीं फारसी की शैली के रस बाधकभाव भी इनमें मिलते हैं। प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना 'रसखान' और 'घनानंद' की कोटि में ही होनी चाहिए -

जा थल कीने बिहार अनेकन ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करैं।
जा रसना सों करी बहु बातन ता रसना सों चरित्र गुन्यो करैं
आलम जौन से कुंजन में करी केलि तहाँ अब सीस धुन्योकरैं।
नैनन में जे सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करैं

कैधौं मोर सोर तजि गए री अनत भाजि,
कैधौं उत दादुर न बोलत हैं, एदई।
कैधौं पिक चातक महीप काहू मारि डारे,
कैधौं बगपाँति उत अंतगति ह्नै गई?
आलम कहै, आली! अजहूँ न आए प्यारे,
कैधौं उत रीत विपरीत बिधि ने ठई?
मदन महीप की दुहाई फिरिबे ते रही,
जूझि गये मेघ, कैधौं बीजुरी सती भई?

रात कें उनींदे अरसाते, मदमाते राते,
अति कजरारे दृग तेरे यों सुहात हैं।
तीखी तीखी कोरनि करोरि लेत काढ़े जीउ,
केते भए घायल औ केते तलफात हैं
ज्यों ज्यों लै सलिल चख 'सेख' धोवै बार बार,
त्यों त्यों बल बुंदन के बार झुकि जात हैं।
कैबर के भाले, कैधौं नाहर नहनवाले,
लोहू के पियासे कहूँ पानी तें अघात हैं?

दाने की न पानी की, न आवै सुधा खाने की,
याँ गली महबूब की अराम खुसखाना है।
रोज ही से है जो राजी यार की रजाय बीच,
नाज की नजर तेज तीर का निशाना है
सूरत चिराग रोसनाई आसनाई बीच,
बार बार बरै बलि जैसे परवाना है।
दिल से दिलासा दीजै हाल के न ख्याल हूजै,
बेखुद फ़कीर, वह आशिक दिवाना है

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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 228-30।

बाहरी कड़ियाँ

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