घनानन्द: Difference between revisions

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अपने व्यक्तित्व की भांति ही घनानन्द का कृतित्व भी रीतिकालीन अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक व्यापक और गहरी भावभूमि पर प्रतिष्ठित है। आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने 'घनानन्द ग्रंथावली' के अंतर्गत इनकी निम्नलिखित रचनाओं को स्थान दिया है :
अपने व्यक्तित्व की भांति ही घनानन्द का कृतित्व भी रीतिकालीन अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक व्यापक और गहरी भावभूमि पर प्रतिष्ठित है। आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने 'घनानन्द ग्रंथावली' के अंतर्गत इनकी निम्नलिखित रचनाओं को स्थान दिया है :
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* दान घटा  
* दान घटा  
* भावना प्रकाश  
* भावना प्रकाश  
* कृष्ण कौमुदी।<ref>{{cite web |url=http://hindibhawan.org/HKG13.htm |title=घनानन्द |accessmonthday=17 जुलाई |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=हिन्दी के गौरव |language=हिन्दी }}</ref>
* कृष्ण कौमुदी।
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Revision as of 10:18, 17 July 2011

हिन्दी भाषा के रीतिकाल के कवि घनानन्द [जन्म- 1689 ईस्वी - मृत्यु- 1739 ईस्वी (लगभग)] के सम्बंध में निश्चित जानकारी नहीं है। कुछ लोग इनका जन्मस्थान उत्तर प्रदेश के जनपद बुलन्दशहर को मानते हैं। जन्म 1658 से 1689 ईस्वी के बीच और निधन 1739 ईस्वी (लगभग) माना जाता है। इनका निधन अब्दाली दुर्रानी द्वारा मथुरा में किये गये कत्लेआम में हुआ था। घनानन्द श्रृंगार धारा के कवि थे। ये सखीभाव से श्रीकृष्ण की उपासना करते थे। विरक्त होने से पहले ये बहादुरशाह के मीर मुंशी थे। वहीं पर सुजान नामक नर्तकी से इनका प्रेम हो गया था। इन्होंने अपनी प्रेमिका को सम्बोधित करके ही अपनी काव्य रचनायें की हैं। कुछ विद्वान इनकी रचनाओं में आध्यात्मिकता भी मानते हैं।

जीवन परिचय

जन्म

घनानन्द के जीवन के लगभग सभी महत्वपूर्ण तथ्य विवादास्पद हैं । जैसे नाम, जन्म-स्थान, रचनाएँ, जन्म-तिथि इत्यादि । इनकी जन्म-तिथि के संबंध में भी विद्वानों की विभिन्न मान्यताएँ हैं । लाला भगवानदीन ने घनानन्द का जन्म संवत् 1715 माना है, परंतु शुक्ल जी ने इस जन्म सवंत को न मानकर सं, 1746 में इनका जन्म माना है । इसी प्रकार अन्य आलोचकों ने इनकी जन्म-तिथी के विषय में अपने मत दिए हैं, परंतु इनकी जन्म-तिथि का अभी तक कुछ पता नहीं चला है- केवल सवंत के विषय में विवाद है । अतः हम केवल जन्म के सवंत के विषय में ही लिख सकते हैं - जन्म-तिथि अतीत के अंधकार में पूर्णतः लुप्त हो चुकी है। विभिन्न आलोचकों के मतों की आलोचना करने के पश्चात् डॉ. मनोहरलाल गौड़ ने अपनी पुस्तक ‘घनानन्द और स्वच्छंद काव्यधारा’ में लिखा है- ‘सम्वत् 1730 में इनका जन्म मान लेने पर दीक्षा के समय ये 26 या 29 वर्ष के होते हैं, जो इनके जीवन-वृत्त को देखकर ठीक प्रतीत होता है।’[1]

घनानन्द और सुजान

घनानन्द के काव्य में ‘सुजान’ का ही वर्णन मिलता है- पर यह सुजान कौन थी, इसका विवेचन भी आवश्यक हो जाता है । घनानन्द मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में खास-कलम (प्राइवेट सेक्रेटरी) थे । इस पर भी - फ़ारसी में माहिर थे- एक तो कवि और दूसरे सरस गायक। प्रतिभासंपन्न होने के कारण बादशाह का इन पर विशष अनुग्रह था। मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार की एक नृत्य-गायन विद्या में निपुण सुजान नामक वेश्या से इनको प्रेम हो गया। इधर सुजान की इन पर अनुरक्ति और दूसरी ओर बादशाह के खास-कलम-इन दोनों बातों से घनानन्द की उन्नति से सभी दरबारी मन ही में ईर्ष्या करते थे। अंततः उन्होंने एक ऐसा षड्यंत्र रचा, जिसमें घनानन्द पूरी तरह से लुट गए। दरबारी लोगों ने मुहम्मदशाह रंगीले से कहा कि घनानन्द बहुत अच्छा गाते हैं। उनकी बात मानकर बादशाह ने एक दिन इन्हें गाने के लिए कहा, पर ये इतने स्वाभिमानी और मनमौजी व्यक्ति थे कि गाना गाने से इन्होंने इनकार कर दिया । दरबारी लोगों को इस बात का पता था कि बादशाह के कहने से ये कभी गाना नहीं गाएँगे और हुआ भी वही। दरबारी लोग इसी घड़ी की तो प्रतीक्षा कर रहे थे। उनहोंने बादशाह से कहा कि यदि सुजान को बुलाया जाए और वह घनानन्द से अनुरोध करे तो ये अवश्य गाना गाएँगे और यह हुआ भी। बादशाह की आज्ञा से सुजान वेश्या दरबार में बुलाई गई और उसके कहने पर घनानन्द ने गाना सुनाया - सुजान की ओर मुँह करके और बादशाह की और पीठ करके, परंतु इतनी तन्मयता से गाना सुनाया कि बादशाह और सभी दरबारी मंत्र-मुग्ध हो गए। परंतु बादशाह जितने ही आनंद-विभोर गाना सुनते समय हुए थे, उतने ही कुपित गाना समाप्त होने के बाद हुए । यह उनकी बेअदबी थी कि सुजान का कहा उनसे बढ़कर हो गया । फलतः क्रोधित होकर उन्होंने तत्काल घनानन्द को दरबार व राज्य छोड़ने का आदेश दिया। दरबारियों की चाहत पूर्ण हो चुकी थी। घनानन्द ने चलते समय सुजान से साथ चलने का आग्रह किया, परंतु उसने अपने जातीय गुण की रक्षा की और घनानन्द के साथ जाना अस्वीकार कर दिया। जान और जहान दोनों ही लुटाकर घनानन्द ने वृंदावन की ओर मुख किया। जीवन से इन्हें पूर्ण विरक्ति हो चुकी थी । वृंदावन में उन्होंने निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षा ली।[1]

मृत्यु

घनानन्द की मृत्यु-तिथि भी उनकी जन्म-तिथि के समान ही विवादास्पद है। घनानन्द की अभिलाषा थी कि वे ब्रज-रज में लोटते हुए ही अपने प्राण त्यागें और उनकी यह इच्छा भगवान कृष्ण ने पूरी कर दी। इस बात की पुष्टि ‘राधा-कृष्ण ग्रंथावली’ में एक स्थान पर मिलती है- ‘सुना है, मथुरा में कत्लेआम करने वालों से उन्होंने कहा कि मुझे तलवार के घाव थोड़ी-थोड़ी देर तक दो। इनको ज्यों-ज्यों तलवार के घाव लगते गए, त्यों-त्यों ये ब्रज-रज में लोटते रहे और ऐसे देह त्याग दी।[1]

कृतियाँ

अपने व्यक्तित्व की भांति ही घनानन्द का कृतित्व भी रीतिकालीन अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक व्यापक और गहरी भावभूमि पर प्रतिष्ठित है। आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने 'घनानन्द ग्रंथावली' के अंतर्गत इनकी निम्नलिखित रचनाओं को स्थान दिया है :

घनानन्द की कृतियाँ [2]
  • सुजानहित
  • कृपाकन्द निबंध
  • वियोगवेलि
  • इश्कलता
  • यमुना-यज्ञ
  • प्रीतिपावस
  • प्रेमपत्रिका
  • प्रेम सरोवर
  • ब्रजविलास
  • सरस बसंत
  • अनुभव-चंद्रिका
  • रंग बधाई
  • प्रेम-पद्धति
  • गोकुल गीत
  • विचार सार
  • नाम माधुरी
  • गिरि पूजन
  • दान घटा
  • भावना प्रकाश
  • कृष्ण कौमुदी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 घनानन्द (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) ब्रांड बिहार डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 17 जुलाई, 2011।
  2. घनानन्द (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) हिन्दी के गौरव। अभिगमन तिथि: 17 जुलाई, 2011।

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