प्रह्लाद: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
गोविन्द राम (talk | contribs) No edit summary |
|||
Line 23: | Line 23: | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
Revision as of 20:05, 19 March 2013
[[चित्र:Holika-Prahlad-1.jpg|thumb|250px|प्रह्लाद को गोद में बिठाकर बैठी होलिका]] प्रह्लाद, हिन्दू धर्म के पुराणों में वर्णित एक प्रसिद्ध पौराणिक चरित्र है।
पौराणिक कथा
हिरण्यकशिपु एक मायावी असुर था जो विष्णु की तरह अपने को लोकों का स्वामी मानता था। उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु भक्त था। नृसिंहावतार धारण कर विष्णु ने हिरण्यकशिपु का वध कर दिया तब प्रह्लाद अभिषिक्त हुआ। नृसिंह ने उसे पाताल में स्थापित किया। भृगु के पुत्र च्यवन रेवा नदी में स्नान करने लगे। अचानक एक भयानक सर्प ने उन्हें ग्रहण कर लिया तथा पाताल में ले गया। विष्णु का स्मरण करने के कारण च्यवन पर उसके दंशन का कोई प्रभाव नहीं हुआ। सर्प ने उनके प्रभाव को जानकर शाप के भय से उन्हें छोड़ दिया। एक दिन प्रह्लाद ने उन्हें देखा तो आतिथ्य करके उनसे विभिन्न तीर्थों के विषय में पूछा। प्रह्लाद उनकी प्रेरणा से नैमिषारण्य गया। वहां तपस्यारत नर-नारायण से विवाद होने के कारण प्रह्लाद ने उनसे युद्ध किया। अंत में नारायण के दर्शन प्राप्त कर उनसे नर-नारायण के वास्तविक रूप को जाना। विष्णु ने उसे उन दोनों से विवाद न करने का आदेश दिया तथा बताया कि दोनों उन्हीं के अंश हैं। प्रह्लाद अपने पिता के शत्रु देवताओं को पीड़ित करता रहता था। यद्यपि वह विष्णुभक्त था। एक बार देवताओं से घोर युद्ध होने पर शोकग्रस्त प्रह्लाद ने राज्यभार बलि को सौंप दिया तथा स्वयं गंधमादन पर्वत पर तपस्या के निमित्त चला गया। दानव देवताओं से त्रस्त होकर अपने गुरू शुक्र की शरण में पहुंचे। शुक्र ने उनसे नीतिपूर्वक मैत्री बनाये रखने को कहा और स्वयं शिव की तपस्या करके देवताओं के विनाश के निमित्त मंत्र ग्रहण करने चले गये। प्रह्लाद के नेतृत्व में उन्होंने देवताओं के सम्मुख शांति का प्रस्ताव रखा। तदुपरांत शुक्र शिव की अराधना के लिए चले गये ताकि वे देवताओं के विनाश के लिए मंत्रग्रहण कर सकें।[1]
प्रह्लाद और इन्द्र
प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रह्लाद की कथा आती है, जो इसका महत्त्व बताती है। दैत्यराज प्रह्लाद के पुत्र का नाम विरोचन था। केशिनी नामक एक कन्या की प्राप्ति के लिए उसका अंगिरा के पुत्र सुधन्वा से विवाद छिड़ गया। दोनों ने प्रह्लाद से पूछा कि उनमें कौन श्रेष्ठ है। प्रह्लाद धर्मसंकट में पड़ गये, वे मौन रहे। उन्होंने कश्यप से जाकर पूछा। कश्यप ने कहा कि सत्य को जानते हुए मौन रहने से असत्य कहने का पाप लगता है, अत: प्रह्लाद ने व्यवस्था दी कि सुधन्वा श्रेष्ठ है। सुधन्वा ने इस बात से प्रसन्न होकर कि उन्होंने अपने पुत्र की परवाह नहीं की और सत्य कहा, उनके पुत्र को सौ वर्ष तक जीवित रहने का वरदान दिया। राक्षसराज प्रह्लाद ने अपनी तपस्या एवं अच्छे कार्यों के बल पर देवताओं के राजा इन्द्र को गद्दी से हटा दिया और स्वयं राजा बन गया। इन्द्र परेशान होकर देवताओं के गुरु आचार्य बृहस्पति के पास गये और उन्हें अपनी समस्या बतायी। बृहस्पति ने कहा कि प्रह्लाद को ताक़त के बल पर तो हराया नहीं जा सकता। इसके लिए कोई और उपाय करना पड़ेगा। वह यह है कि प्रह्लाद प्रतिदिन प्रात:काल दान देते हैं। उस समय वह किसी याचक को ख़ाली हाथ नहीं लौटाते। उनके इस गुण का उपयोग कर ही उन्हें पराजित किया जा सकता है। इन्द्र द्वारा जिज्ञासा करने पर आचार्य बृहस्पति ने आगे बताया कि प्रात:काल दान-पुण्य के इस समय में तुम एक भिक्षुक का रूप लेकर जाओ। जब तुम्हारा माँगने का क्रम आये, तो तुम उनसे उनका चरित्र माँग लेना। बस तुम्हारा काम हो जाएगा। इन्द्र ने ऐसा ही किया। जब उन्होंने प्रह्लाद से उनका शील माँगा, तो प्रह्लाद चौंक गये। [[चित्र:Holi-Holika-Dahan-Mathura.jpg|होलिका दहन, मथुरा|thumb]] उन्होंने पूछा- क्या मेरे शील से तुम्हारा काम बन जाएगा ? इन्द्र ने हाँ में सिर हिला दिया। प्रह्लाद ने अपने शील अर्थात चरित्र को अपने शरीर से जाने को कह दिया। ऐसा कहते ही एक तेजस्वी आकृति प्रह्लाद के शरीर से निकली और भिक्षुक के शरीर में समा गयी। पूछने पर उसने कहा - 'मैं आपका चरित्र हूँ। आपके कहने पर ही आपको छोड़कर जा रहा हूँ।' कुछ समय बाद प्रह्लाद के शरीर से पहले से भी अधिक तेजस्वी एक आकृति और निकली। प्रह्लाद के पूछने पर उसने बताया कि 'मैं आपका शौर्य हूँ। मैं सदा से शील वाले व्यक्ति के साथ ही रहता हूँ, चूँकि आपने शील को छोड़ दिया है, इसलिए अब मेरा भी यहाँ रहना संभव नहीं है।' प्रह्लाद कुछ सोच ही रहे थे कि इतने में एक आकृति और उनके शरीर को छोड़कर जाने लगी। पूछने पर उसने स्वयं को वैभव बताया और कहा कि 'शील के बिना मेरा रहना संभव नहीं है। इसलिए मैं भी जा रहा हूँ।' इसी प्रकार एक-एक कर प्रह्लाद के शरीर से अनेक ज्योतिपुंज निकलकर भिक्षुक के शरीर में समा गये। प्रह्लाद निढाल होकर धरती पर गिर गये। सबसे अंत में एक बहुत ही प्रकाशमान पुंज निकला। प्रह्लाद ने चौंककर उसकी ओर देखा, तो वह बोला - 'मैं आपकी राज्यश्री हूँ। चँकि अब आपके पास न शील है न शौर्य; न वैभव है न तप; न प्रतिष्ठा है न सम्पदा। इसलिए अब मेरे यहाँ रहने का भी कोई लाभ नहीं है। अत: मैं भी आपको छोड़ रही हूँ।' इस प्रकार इन्द्र ने केवल शील लेकर ही प्रह्लाद का सब कुछ ले लिया। [2]
- REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय संस्कृति कोश (193-194) * देवी भागवत 4,7-11
- ↑ भारतीय मिथक कोश (193-194) * महाभारत सभापर्व, 68 । 65 से 87 * शांतिपर्व, 124 ।
संबंधित लेख