पुहकर कवि: Difference between revisions

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*कहते हैं कि जहाँगीर ने किसी बात पर इन्हें [[आगरा]] में कैद कर लिया था। वहीं कारागार में इन्होंने '[[रसरतन]]' नामक ग्रंथ [[संवत्]] 1673 में लिखा जिस पर प्रसन्न होकर बादशाह ने इन्हें कारागार से मुक्त कर दिया।  
*कहते हैं कि जहाँगीर ने किसी बात पर इन्हें [[आगरा]] में कैद कर लिया था। वहीं कारागार में इन्होंने '[[रसरतन]]' नामक ग्रंथ [[संवत्]] 1673 में लिखा जिस पर प्रसन्न होकर बादशाह ने इन्हें कारागार से मुक्त कर दिया।  
*इस ग्रंथ में संयोग और वियोग की विविधा दशाओं का साहित्य की रीति पर वर्णन है। वर्णन उसी ढंग के हैं जिस ढंग के शृंगार के मुक्तक कवियों ने किए हैं।  
*इस ग्रंथ में संयोग और वियोग की विविधा दशाओं का साहित्य की रीति पर वर्णन है। वर्णन उसी ढंग के हैं जिस ढंग के श्रृंगार के मुक्तक कवियों ने किए हैं।  
*इस कवि के और ग्रंथ नहीं मिले हैं। पर प्राप्त ग्रंथ को देखने से ये एक अच्छे कवि जान पड़ते हैं। इनकी रचना की शैली दिखाने के लिए उध्दृत पद्य पर्याप्त होंगे -  
*इस कवि के और ग्रंथ नहीं मिले हैं। पर प्राप्त ग्रंथ को देखने से ये एक अच्छे कवि जान पड़ते हैं। इनकी रचना की शैली दिखाने के लिए उध्दृत पद्य पर्याप्त होंगे -  
<poem>चले मैमता हस्ति झूमंत मत्ता। मनो बद्दला स्याम साथै चलंता
<poem>चले मैमता हस्ति झूमंत मत्ता। मनो बद्दला स्याम साथै चलंता

Latest revision as of 08:52, 17 July 2017

पुहकर कवि परतापपुर, ज़िला मैनपुरी के रहने वाले थे, पर बाद में गुजरात में सोमनाथ जी के पास भूमिगाँव में रहते थे।

  • ये जाति के कायस्थ थे और जहाँगीर के समय में वर्तमान थे।
  • कहते हैं कि जहाँगीर ने किसी बात पर इन्हें आगरा में कैद कर लिया था। वहीं कारागार में इन्होंने 'रसरतन' नामक ग्रंथ संवत् 1673 में लिखा जिस पर प्रसन्न होकर बादशाह ने इन्हें कारागार से मुक्त कर दिया।
  • इस ग्रंथ में संयोग और वियोग की विविधा दशाओं का साहित्य की रीति पर वर्णन है। वर्णन उसी ढंग के हैं जिस ढंग के श्रृंगार के मुक्तक कवियों ने किए हैं।
  • इस कवि के और ग्रंथ नहीं मिले हैं। पर प्राप्त ग्रंथ को देखने से ये एक अच्छे कवि जान पड़ते हैं। इनकी रचना की शैली दिखाने के लिए उध्दृत पद्य पर्याप्त होंगे -

चले मैमता हस्ति झूमंत मत्ता। मनो बद्दला स्याम साथै चलंता
बनी बागरी रूप राजंत दंता। मनौ बग्ग आसाढ़ पाँतैं उदंता
लसैं पीत लालैं, सुढालैं ढलक्कैं। मनों चंचला चौंधिा छाया छलक्कैं


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 5”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 162।

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