प्रेम या विकल्प -वंदना गुप्ता: Difference between revisions

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बन चुकी है मूरत पत्थर की
बन चुकी है मूरत पत्थर की
मगर प्राण प्रतिष्ठा के लिए
मगर प्राण प्रतिष्ठा के लिए
जरूरत है तुम्हारी
ज़रूरत है तुम्हारी
और तुम ठहरे निर्मोही , निर्लेप
और तुम ठहरे निर्मोही , निर्लेप
कहो तो अब कैसे संभव है
कहो तो अब कैसे संभव है
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क्या खड़े कर पाओगे कदली वृक्ष
क्या खड़े कर पाओगे कदली वृक्ष
क्योंकि
क्योंकि
प्राण प्रतिष्ठा के लिए जरूरी है
प्राण प्रतिष्ठा के लिए ज़रूरी है
तुम्हारा प्रेम रूप में अवतरित हो मूरत में समाना
तुम्हारा प्रेम रूप में अवतरित हो मूरत में समाना
 
 

Latest revision as of 10:50, 2 January 2018

प्रेम या विकल्प -वंदना गुप्ता
कवि वंदना गुप्ता
मुख्य रचनाएँ 'बदलती सोच के नए अर्थ', 'टूटते सितारों की उड़ान', 'सरस्वती सुमन', 'हृदय तारों का स्पंदन', 'कृष्ण से संवाद' आदि।
विधाएँ कवितायें, आलेख, समीक्षा और कहानियाँ
अन्य जानकारी वंदना जी के सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, जैसे- कादम्बिनी, बिंदिया, पाखी, हिंदी चेतना, शब्दांकन, गर्भनाल, उदंती, अट्टहास, आधुनिक साहित्य, नव्या, सिम्पली जयपुर आदि के अलावा विभिन्न ई-पत्रिकाओं में रचनाएँ, कहानियां, आलेख आदि प्रकाशित हो चुके हैं।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
वंदना गुप्ता की रचनाएँ


सुनो
तुमसे कोई अदावत नहीं है
न ही खिलाफत है कोई
बस नहीं उठती अब कोई पीर विरह की
प्रेम के तुमने जाने कितने अर्थ दिए
और मैंने सहेज लिए
सच कहूं ..... रंग गयी थी तुम्हारे ही रंग में
बन गयी थी वंशी की मधुर तान सी
तुम्हारे होने में अपना होना बस
यही बनाया अंतिम विकल्प
 
मगर निर्मोही ही रहे तुम
सिर्फ अपनी त्रिज्या तक ही
सीमित था तुम्हारा हास्य
नहीं थी तुम्हें परवाह तुमसे इतर किसी की
 
सुनो
उलाहना नहीं है ये मेरा
न शिकायत है
बस तुमसे तुम्हें मिलवा रही हूँ
अहसास करा रही हूँ
" क्या हो तुम "
इतना जान लेते फिर न कभी
कर्मयोग , ज्ञानयोग या भक्तियोग का उपदेश देते
 
देखो तो जरा
बन चुकी है मूरत पत्थर की
मगर प्राण प्रतिष्ठा के लिए
ज़रूरत है तुम्हारी
और तुम ठहरे निर्मोही , निर्लेप
कहो तो अब कैसे संभव है
बिना प्रेम का स्वांग किये स्थापित होना
मैं आकार भी हूँ और प्रकार भी तुम्हारा
सोच लो
प्रीत के बंजारन होने से पहले
क्या खड़े कर पाओगे कदली वृक्ष
क्योंकि
प्राण प्रतिष्ठा के लिए ज़रूरी है
तुम्हारा प्रेम रूप में अवतरित हो मूरत में समाना
 
क्योंकि
प्रेम का सम्मिश्रण ही मनोकामना पूर्ति का अंतिम विकल्प है
अब ये तुम पर है
क्या बनना चाहोगे
प्रेम या विकल्प
 
जब से जाना है तुम्हें
तब से नहीं है इरादा मेरा सर्वस्व समर्पण का
क्या कर सकोगे तुम सर्वस्व समर्पण
और झोंक सकोगे खुद को उसी आग में
जिसमे एक अरसे से जल रहे हैं हम ............
 
प्रेम हो या विरह
तराजू के पलड़ों में
योगदान दोनों तरफ से बराबर का होना ही संतुलन ला पाता है
 
क्या इस बार कस सकोगे खुद को कसौटी पर ..........मोहना !!!


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