तिरुमूलर

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तिरुमूलर (800 ई.) प्रसिद्ध शिव भक्त तथा तमिल ग्रंथ 'तिरुमंत्रम्' के रचयिता थे। तमिल के विद्वान शैव संत तिरुमूलर को महान सिद्ध संत मानते हैं। वे कैलास के सिद्ध थे और स्वयं शिव से ज्ञान प्राप्त कर उन्होंने जनता में उसका प्रचार किया था। उनका लक्ष्य जातिनिरपेक्ष मानव की सेवा करना था। उन्होंने रूढ़िग्रस्त शास्त्रों का विरोध किया और समन्वयवादी ढंग से भक्ति का प्रचार किया।

परिचय

तिरुमूलर का जीवनवृत संक्षेप में शेक्किषार के 'पैरिय पुराण' में 28 चतुष्पदों मे मिलता है। वे कैलास के सिद्ध थे और स्वयं शिव से ज्ञान प्राप्त कर उन्होने जनता में उसका प्रचार किया था। उनका लक्ष्य जातिनिरपेक्ष मानव की सेवा करना था। उन्होंने रूढ़िग्रस्त शास्त्रों का विरोध किया और समन्वयवादी ढंग से भक्ति का प्रचार किया। उनका एकमात्र प्रसिद्ध ग्रंथ 'तिरुमंत्रम्‌' है। अधिकांश विद्वान्‌ इन्हें छठी या सातवीं शताब्दी का मानते है। 'पेरिय पुराण' के अनुसार संत तिरुमूलर ने कैलाश, केदान, नेपाल, काशी, विंध्याचल और श्रीशैल आदि स्थानों का भ्रमण किया और अंत में अगस्तय मुनि से मिलने दक्षिणापथ में पधारे।

सिद्ध संत

तिरुमूलर तमिल शैव सम्प्रदाय के सबसे पहले कवि थे, जिन्होंने अपने काव्य 'तिरूमंत्रम्' में आगमों के धार्मिक नियमों का अनुसरण किया था। शैव संतों में अप्पर, संबंधर, सुंदरर, माणिक्कवाचगर और तिरुमूलर अधिक विख्यात हैं। समस्त तमिल प्रदेश में इन संतों की रचनाओं का व्यापक प्रचार है। संत तिरुमूलर के ग्रथ 'तिरुमंत्रम्‌' में 3000 पद्य हैं। इन पद्यों में यौगिक सिद्धांतों का सरल रूप में विवेचन किया गया है। तमिल के विद्वान शैव संत तिरुमूलर को महान सिद्ध संत मानते हैं। इन सिद्धों ने तमिल भाषा में योगशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, मंत्रशास्त्र, ज्ञानशास्त्र और रसायनशास्त्र का निर्माण किया है। सिद्धों का यह विश्वास बतलाया जाता है कि नंदी और अगस्तय आदि मुनियों ने भगवान शिव से औषधि तथा चिकित्सापद्धति का ज्ञान प्राप्त किया।

कथा

तिरुमूलर के जन्म की कथा इस प्रकार मिलती है। सांतमूर नामक ग्राम में गौपालक यादव परिवार में मूलन नामक एक चरवाहा रहता था। वह ब्राह्मणों की गाय चराया करता था। एक दिन चरागाह में उसकी मृत्यु हो गई। उसके वियोग से सभी गायें आँसू बहाने लगीं। उसी समय कैलासनिवासी सिद्ध उस ओर आए। उन्होंने पशुओं की दयनीय दशा का अनुभव किया। उनके दु:खनिवारणार्थ और कोई मार्ग न देखकर उन्होंने स्वयं मूलन के शरीर में प्रवेश किया। मूलन के जी उठने पर गायों ने प्रसन्नता व्यक्त की। मूलन ने उन गायों को, चरने के बाद, उनके घर यथास्थान पहुँचा दिया ओर स्वयं एक सार्वजनिक मठ में चले गए। वहाँ उन्होंने योगाभ्यास किया। मूलन की पत्नी उन्हें घर ले जाने के लिए आई। उसने बहुत आग्रह किया किंतु वे न गए और पुन: योग में लीन हो गए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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