मत्स्य पुराण

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 11:16, 1 August 2017 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - " महान " to " महान् ")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

[[चित्र:Cover-Matsya-Purana.jpg|thumb|मत्स्य पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ]] वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित 'मत्स्य पुराण' व्रत, पर्व, तीर्थ, दान, राजधर्म और वास्तु कला की दृष्टि से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुराण है। इस पुराण की श्लोक संख्या चौदह हज़ार है। इसे दो सौ इक्यानवे अध्यायों में विभाजित किया गया है। इस पुराण के प्रथम अध्याय में 'मत्स्यावतार' के कथा है। उसी कथा के आधार पर इसका यह नाम पड़ा है। प्रारम्भ में प्रलय काल में पूर्व एक छोटी मछली मनु महाराज की अंजलि में आ जाती है। वे दया करके उसे अपने कमण्डल में डाल लेते हैं। किन्तु वह मछली शनै:-शनैष् अपना आकार बढ़ाती जाती है। सरोवर और नदी भी उसके लिए छोटी पड़ जाती है। तब मनु उसे सागर में छोड़ देते हैं और उससे पूछते हैं कि वह कौन है?

प्रलय काल

[[चित्र:Matsya-Avatar.jpg|thumb|220px|मत्स्य अवतार
Matsya Avatar]] भगवान मत्स्य मनु को बताते हैं कि प्रलय काल में मेरे सींग में अपनी नौका को बांधकर सुरक्षित ले जाना और सृष्टि की रचना करना। वे भगवान के 'मत्स्य अवतार' को पहचान कर उनकी स्तुति करते हैं। मनु प्रलय काल में मत्स्य भगवान द्वारा अपनी सुरक्षा करते हैं। फिर ब्रह्मा द्वारा मानसी सृष्टि होती है। किन्तु अपनी उस सृष्टि का कोई परिणाम न देखकर दक्ष प्रजापति मैथुनी-सृष्टि से सृष्टि का विकास करते हैं।

वंश

इसके उपरान्त 'मत्स्य पुराण' में मन्वन्तर, सूर्य वंश, चंद्र वंश, यदु वंश, क्रोष्टु वंश, पुरू वंश, कुरु वंश और अग्नि वंश आदि का वर्णन है। फिर ऋषि-मुनियों के वंशों का उल्लेख किया गया है।

  1. REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें

राजधर्म और राजनीति

इस पुराण में 'राजधर्म' और 'राजनीति' का अत्यन्त श्रेष्ठ वर्णन है। इस दृष्टि से 'मत्स्य पुराण' काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन काल में राजा का विशेष महत्त्व होता था। इसीलिए उसकी सुरक्षा का बहुत ध्यान रखना पड़ता था। क्योंकि राजा की सुरक्षा से ही राज्य की सुरक्षा और श्रीवृद्धि सम्भव हो पाती थी। इस दृष्टि से इस पुराण में बहुत व्यावहारिक ज्ञान दिया गया है। 'मत्स्य पुराण' कहता है कि राजा को अपनी सुरक्षा की दृष्टि से अत्यन्त शंकालु तथा सतर्क रहना चाहिए। बिना परीक्षण किए वह भोजन कदापि न करे। शय्या पर जाने से पूर्व अच्छी प्रकार से देख ले कि उसमें कोई विषधर आदि तो नहीं छोड़ा गया है। उसे कभी भीड़ या जलाशय में अकेले प्रवेश नहीं करना चाहिए। अनजान अश्व या हाथी पर नहीं चढ़ना चाहिए। किसी अनजान स्त्री से सम्बन्ध नहीं बनाने चाहिए।

दुर्ग

इस पुराण में छह प्रकार के दुर्गों- धनु दुर्ग, मही दुर्ग, नर दुर्ग, वार्क्ष दुर्ग, जल दुर्ग औ गिरि दुर्ग के निर्माण की बात कही गई है। आपातकाल के लिए उसमें सेना और प्रजा के लिए भरपूर खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र एवं औषधियों का संग्रह करके रखना चाहिए। उस काल में भी राज्य का जीवन आराम का नहीं होता था। राजा को हर समय काक दृष्टि से सतर्क रहना पड़ता था। इसीलिए उसे विश्वसनीय कर्मचारियों का चयन करना पड़ता था। उनसे मधुर व्यवहार बनाना पड़ता था।

तथा च मधुराभाषी भवेत्कोकिलवन्नृप:।

काकशंकी भवेन्नित्यमज्ञातवसतिं वसेत्॥ (मत्स्य पुराण 2/96/71)

अर्थात् राजा को कोयल के समान मधुर वचन बोलने वाला होना चाहिए। जो पुर या बस्ती अज्ञात है, उसमें उसे निवास करना चाहिए। उसे सदैव कौए के समान शंकायुक्त रहना चाहिए। भाव यही है कि राजा को एकाएक किसी पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। उसे सदैव अपनी प्रजा का विश्वास और समर्थन प्राप्त करते रहना चाहिए। गुप्तचरों द्वारा राज्य की गतिविधियों का पता लगाते रहना चाहिए।

श्रीवृद्धि तथा समृद्धि

'मत्स्य पुराण' में पुरुषार्थ पर विशेष बल दिया गया है। जो व्यक्ति आलसी होता है और कर्म नहीं करता, वह भूखों मरता है। भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला व्यक्ति कभी भी जीवन में सफल नहीं हो सकता। श्रीवृद्धि तथा समृद्धि उससे सदैव रूठी रहती है।

स्थापत्य कला

इस पुराण में 'स्थापत्य कला' का भी सुन्दर विवेचन किया गया है। इसमें उस काल के अठारह वास्तुशिल्पियों के नाम तक दिए गए हैं। जिनमें विश्वकर्मा और मय दानव का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें बताया गया है कि सबसे उत्तम गृह वह होता है, जिसमें चारों ओर दरवाज़े और दालान होते हैं। उसे 'सर्वतोभद्र' नाम दिया गया है। देवालय और राजनिवास के लिए ऐसा ही भवन प्रशस्त माना जाता है। इसी प्रकार 'नन्द्यावर्त्त', 'वर्द्धमान' , 'स्वस्तिक' तथा 'रूचक' नामक भवनों का उल्लेख भी किया गया है। राजा के निवास गृह पांच प्रकार के बताए गए हैं। सर्वोत्तम गृह की लम्बाई एक सौ साठ हाथ (54 गज) होती है।

प्राकृतिक शोभा

[[चित्र:Narmada-River2.jpg|नर्मदा नदी
Narmada River|thumb]] उस काल में आज की भांति नए घर में प्रवेश हेतु शुभ मुहूर्त्तो की गणना पर पूरा विचार किया जाता था। तभी लोक गृह प्रवेश करते थे। 'मत्स्य पुराण' में प्राकृतिक शोभा का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है। हिमालय पर्वत, कैलाश पर्वत, नर्मदा एवं वाराणसी के शोभा-वर्णन में भाषा और भाव का अति सुन्दर संयोग हुआ है-

तपस्तिशरणं शैलं कामिनामतिदुर्लभम्।

मृगैर्यथानुचरितन्दन्ति भिन्नमहाद्रुमम्॥ (मत्स्य पुराण 1/51/12)

अर्थात् यह हिमालय पर्वत तपस्वियों की पूर्णतया रक्षा करने वाला है। यह काम-भावना रखने वालों के लिए अत्यन्त दुर्लभ है। यह हाथियों के समान महान् और विशाल वृक्षों से युक्त है। मृगों की भांति अनुचरित है अर्थात् जिस प्रकार मृगों के सौन्दर्य का वर्णन नहीं किया जा सकता, उसकी प्रकार हिमालय की शोभा का भी वर्णन करना बड़ा कठिन है।

सावित्री सत्यवान

इस पुराण का सबसे महत्त्वपूर्ण आख्यान 'सावित्री सत्यवान' की कथा है। पतिव्रता स्त्रियों में सावित्री की गणना सर्वोपरि की जाती है। सावित्री अपनी लगन, दूरदृष्टि, बुद्धिमत्ता और पतिप्रेम के कारण अपने मृत पति को यमराज के पाश से भी छुड़ा लाने में सफल हो जाती है।

शकुन-अपशकुन

इसके अतिरिक्त 'मत्स्य पुराण' में देवी और विष्णु की उपासना, वाराणसी एवं नर्मदा नदी का माहात्म्य, मंगल-अमंगल सूचक शकुन, स्वप्न विचार, अंग फड़कने का सम्भावित फल; व्रत, तीर्थ और दान की महिमा आदि का वर्णन अनेकानेक लोकोपयोगी आख्यानों के माध्यम से किया गया है।

विराट रूप

[[चित्र:Narsingh-Bhagwan.jpg|नृसिंह अवतार
Narsingh Avatar|thumb]] 'नृसिंह अवतार' की कथा, भक्त प्रह्लाद को विष्णु के विराट रूप का दर्शन तथा देवासुर संग्राम में दोनों ओर के वीरों का वर्णन पुराणकार की कल्पना का सुन्दर परिचय देता है। इस पुराण का काव्य तत्त्व भी अति सुन्दर है। वर्णन शैली अत्यन्त सहज है। अनेक स्थलों पर शब्द व्यंजना का सौन्दर्य देखते ही बनता है।

आयुर्वेद चिकित्सा

इस पुराण की एक विशेषता और भी है। पुराणकार को आयुर्वेद चिकित्सा का अच्छा ज्ञान प्राप्त था, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि इसमें औषधियों और जड़ी-बूटियों की एक लम्बी सूची दी गई है। साथ ही साथ यह भी बताया गया है कि कौन-सी दवा किस व्याधि के काम आती है। इसका वर्णन विस्तार के साथ इस पुराण में किया गया है।

मूर्तियों के निर्माण

देवताओं की मूर्तियों के निर्माण की पूरी प्रकिया और उनके आकार-प्रकार का पूरा ब्योरा 'मत्स्य पुराण' में उपलब्ध होता है। प्रत्येक देवता की मूर्ति के अलग-अलग लक्षण बताए गए हैं। साथ ही उनके विशेष चिह्नों का विवरण भी दिया गया है। एक जगह तो यहाँ तक कहा गया है कि मूर्ति की कटि अठारह अंगुल से अधिक नहीं होनी चाहिए। स्त्री-मूर्ति की कटि बाईस अंगुल तथा दोनों स्तनों की माप बारह-बारह अंगुल होनी चाहिए। इसी प्रकार शरीर के प्रत्येक भाग की माप बड़ी बारीकी से प्रस्तुत की गई है। इससे पुराणकार की सूक्ष्म परख और कलात्मक दृष्टि का पता चलता है। वस्तुत: कला, धर्म, राजनीति, दान-पुण्य, स्थापत्य, शिल्प और काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से यह एक उत्तम पुराण है।

संबंधित लेख

श्रुतियाँ


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः