गोविंदस्वामी: Difference between revisions

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'''गोविन्दस्वामी / Govind Swami'''
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'''गोविंदस्वामी''' अंतरी के रहने वाले सनाढ्य ब्राह्मण थे। वे विरक्त की भाँति आकर [[ब्रजमण्डल]] के [[महावन]] में रहने लगे थे। बाद में वे [[विट्ठलनाथ|विट्ठलनाथ जी]] के शिष्य हुए, जिन्होंने इनके रचे पदों से प्रसन्न होकर इन्हें '[[अष्टछाप कवि|अष्टछाप]]' में लिया और फिर 'गोविंददास' नाम दिया। ये एक कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैया भी थे। तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे।
==परिचय==
गोविंदस्वामी जी का जन्म [[ब्रज]] के निकट आंतरी नामक ग्राम में संवत 1562 (1505 ई.) विक्रमी में हुआ था। बाल्‍यावस्‍था से ही उनमें वैराग्‍य और भक्ति के अंकुर प्रस्‍फुटित हो रहे थे। कुछ दिनों तक गृहस्‍थाश्रम का उपभोग करने पर उन्‍होंने घर छोड़ दिया और वैराग्‍य ले लिया। [[महावन]] में जाकर भगवान के भजन और कीर्तन में समय का सदुपयोग करने लगे। महावन के टीले पर बैठकर शास्‍त्रोक्‍त विधि से वे कीर्तन करते थे। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गयी।
==दीक्षा तथा गोवर्धन निवास==
गोविंदस्वामी गानविद्या के आचार्य थे। काव्‍य एवं संगीत का पूर्ण रूप से उन्‍हें ज्ञान था। गोसाईं विट्ठलनाथ जी उनकी भक्ति-निष्‍ठा और संगीत-माधुरी से परिचित थे। यद्यपि दोनों का साक्षात्‍कार नहीं हुआ था तो भी दोनों एक दूसरे की ओर आकृष्‍ट थे। गोविंदस्‍वामी ने श्रीविट्ठलनाथ जी से संवत 1592 विक्रमी में [[गोकुल]] आकर ब्रह्मसम्‍बन्‍ध ले लिया। उनके परम कृपापात्र और [[भक्त]] हो गये। गोसाईं जी ने कर्म और भक्ति का तात्विक विवेचन किया। उनकी कृपा से वे गोविंदस्‍वामी से 'गोविंददास' हो गये। उन्‍होंने [[गोवर्धन]] को ही अपना स्‍थायी निवास स्थिर किया। गोवर्धन के निकट कदम्‍ब वृक्षों की एक मनोरम वाटिका में वे रहने लगे। वह स्‍थान 'गोविंददास की कदमखण्‍डी' नाम से प्रसिद्ध है।
==ब्रज महिमा का बखान==
गोविंददास सरस पदों की रचना करके श्रीनाथ जी की सेवा करते थे। [[ब्रज]] के प्रति उनका दृढ़ अनुराग और प्रगाढ़ आसक्ति थी। उन्‍होंने ब्रज की महिमा का बड़े सुन्‍दर ढंग से बखान किया है। वे कहते हैं- "वैकुण्‍ठ जाकर क्‍या होगा, न तो वहां कलिन्दगिरिनन्दिनी तट को चूमने वाली सलोनी लतिकाओं की शीतल और मनोरम छाया है, न भगवान श्रीकृष्‍ण की मधुर वंशीध्‍वनि की रसालता है, न तो वहां [[नन्द]]-[[यशोदा]] हैं और न उनके चिदानन्‍दघनमूर्ति श्‍यामसुन्‍दर हैं, न तो वहां ब्रजरज है, न प्रेमोन्‍मत्‍त [[राधा|राधारानी]] के चरणारविन्‍द-मकरन्‍द का रसास्‍वादन है।"
==अष्टछाप के कवि==
गोविंददास स्‍वरचित पदों को श्रीनाथ जी के सम्‍मुख गाया करते थे। भक्ति पक्ष में उन्‍होंने दैन्‍य-भाव कभी नहीं स्‍वीकार किया। जिनके मित्र अखिल लोकपति साक्षात नन्‍दनन्‍दन हों, दैन्‍य भला उनका स्‍पर्श ही किस तरह कर सकता है। गोविंददास का तो स्‍वाभिमान भगवान की सख्‍य-निधि में संरक्षित और पूर्ण सुरक्षित था। [[विट्ठलनाथ|गोसाईं विट्ठलनाथ]] ने उन्‍हें कवीश्‍वर की संज्ञा से समलंकृत कर '[[अष्टछाप कवि|अष्‍टछाप]]' में सम्मिलित किया था। संगीत सम्राट तानसेन उनकी संगीत-माधुरी का आस्‍वादन करने के लिये कभी-कभी उनसे मिलने आया करते थे।


*गोविन्दस्वामी अंतरी के रहनेवाले सनाढ्य ब्राह्मण थे जो विरक्त की भाँति आकर [[महावन]] में रहने लगे थे। बाद में गोस्वामी [[विट्ठलनाथ]] जी के शिष्य हुए जिन्होंने इनके रचे पदों से प्रसन्न होकर इन्हें [[अष्टछाप]] में लिया।
*एक समय आंतरी ग्राम से कुछ परिचित व्‍यक्ति गोविंददास से मिलने आये। वे यशोदा घाट पर स्‍नान कर रहे थे। उन्‍होंने गांव वालों को पहचान लिया, पर वे नहीं जान सके कि गोविंदस्‍वामी वे ही हैं। उन्‍होंने गोविंददास से पूछा कि- "गोविंदस्‍वामी कहां हैं।" गोविंददास ने कहा- "वे मरकर गोविंददास हो गए।" गांव वालों ने उनका चरण स्‍पर्श किया। उनके पवित्र दर्शन से अपने सौभाग्‍य की सराहना की।
*ये [[गोवर्धन]] पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक ‘गोविन्दस्वामी की कदंबखडी’ कहलाता है।
==भैरव राग गायन==
*इनका रचनाकाल सन् 1543 और 1568 ई. के आसपास माना जा सकता है।
एक दिन गोविंददास यशोदा घाट पर बैठकर बड़े प्रेम से भैरव राग गा रहे थे। प्रात:काल के शीतल शान्‍त वातावरण में चराचर जीव तन्‍मय होकर भगवान की कीर्तिमाधुरी का पान कर रहे थे। बहुत-से यात्री एकत्र हो गये। [[भक्त]] भगवान के रिझाने में निमग्‍न थे। वे गा रहे थे-
*वे कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैये थे।  
*[[तानसेन]] कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे।


[[Category:साहित्य कोश]]
<blockquote><poem>"आओ मेरे गोविंद, गोकुल चंदा।
[[Category:कवि]]
भइ बड़ि बार खेलत जमुना तट, बदन दिखाय देहु आनंदा।।
गायन कीं आवन की बिरियां, दिन मनि किरन होति अति मंदा।
आए तात मात छतियों लगे, 'गोबिंद' प्रभु ब्रज जन सुख कंदा।।"</poem></blockquote>
 
[[भक्त]] के हृदय के वात्‍सल्‍य ने भैरव राग का माधुर्य बढ़ा दिया। श्रोताओं में बादशाह अकबर भी प्रच्‍छन्‍न वेष में उपस्थित थे। उनके मुख से अनायास "वाह-वाह" की ध्‍वनि निकल पड़ी। गोविंददास पश्‍चाताप करने लगे और उन्‍होंने उसी दिन से श्रीनाथ जी के सामने भैरव राग गाना छोड़ दिया। उनके हृदय में अपने प्राणेश्‍वर प्रेमदेवता ब्रजचन्‍द्र के लिये कितनी पवित्र निष्‍ठा थी।
==श्रीनाथ जी के साथ लीलाएँ==
*गोविंददास जी की भक्ति सख्‍य भाव की थी। श्रीनाथ जी साक्षात प्रकट होकर उनके साथ खेला करते थे। बाल-लीलाएं किया करते थे। गोविंददास सिद्ध महात्‍मा और उच्‍च कोटि के [[भक्त]] थे। एक बार रासेश्‍वर नन्‍दनन्‍दन उनके साथ खेल रहे थे। कौतुकवश गोविंददास ने श्रीनाथ जी को कंकड़ मारा। गोसाईं विट्ठलनाथ जी से पुजारी ने शिकायत की। गोविंददास ने निर्भयतापूर्वक उत्‍तर दिया कि आपके लाल ने तो तीन कंकड़ मारे थे। श्रीविट्ठलनाथ जी ने उनके सौभाग्‍य की सराहना की।
 
*भक्‍तों की लीलाएं बड़ी विचित्र होती हैं। उनको समझने के लिए प्रेमपूर्ण हृदय चाहिये। एक बार गोविंददास जी श्रीनाथ जी के साथ गुल्‍ली खेल रहे थे। राजभोग का समय हो रहा था। भगवान बिना दांव दिये ही मन्दिर में चले गये। गोविंददास ने पीछा किया। श्रीनाथ जी को गुल्‍ली मारी। प्रेमराज्‍य में रमण करने वाले सखा की भावना मुखिया और पुजारियों की समझ में न आयी। उन्‍होंने उनको तिरस्‍कारपूर्वक मन्दिर से बाहर निकाल दिया। गोविंददास रास्‍ते पर बैठ गये। उन्‍होंने सोचा कि श्रीनाथ जी इसी मार्ग से जायंगे। बदला लेने में सुविधा होगी। उधर भगवान के सामने राजभोग रखा गया। मित्र रूठकर चले गये। विश्‍वपति के दरवाजे से अपमानित होकर गये थे। भोग की थाली पड़ी रह गयी। भगवान भोग स्‍वीकार करें, असम्‍भव बात थी। मन्दिर में हाहाकार मच गया। [[ब्रज]] के रंगीले ठाकुर रूठ गये। उन्‍हें तो उनके सखा ही मना पायेंगे। विट्ठलनाथ जी ने गोविंददास की बड़ी मनौती की। वे उनके साथ मन्दिर आ गये। भगवान ने राजभोग स्‍वीकार किया। गोविंददास ने भोजन किया। मित्रता भगवान के पवित्र यश से धन्‍य हो गयी।
 
*एक बार पुजारी श्रीनाथ जी के लिये राजभोग की थाली ले जा रहा था। गोविंददास ने कहा कि- "पहले मुझे खिला दो।" पुजारी ने गोसाईं जी से कहा। गोविंददास ने सख्‍यभाव के आवेश में कहा कि- "आपके लाला खा-पीकर मुझसे पहले ही गाय चराने निकल जाते हैं।" गोसाईं जी ने व्‍यवस्‍था कर दी कि राजभोग के साथ ही साथ गोविंददास को भी खिला दिया जाय।
 
*भगवान को जो जिस भाव से चाहते हैं, वे उसी भाव से उनके वश में हो जाते हैं। एक समय गोविंददास को श्रीनाथ जी ने प्रत्‍यक्ष दर्शन दिया। वे श्‍यामढाक पर बैठकर वंशी बजा रहे थे। इधर मन्दिर में उत्‍थापन का समय हो गया था। गोसाईं जी स्‍नान करके मन्दिर में पहुंच गये थे। श्रीनाथ जी उतावली में वृक्ष से कूद पड़े। उनका बागा वृक्ष में उलझकर फट गया। श्रीनाथ जी का पट खुलने पर [[विट्ठलनाथ|गोसाईं विट्ठलनाथ]] ने देखा कि उनका बागा फटा हुआ है। बाद में गोविंददास ने रहस्‍योद्घाटन किया। गोसाईं जी को साथ ले जाकर वृक्ष पर लटका हुआ चीर दिखलाया। गोविंददास का सखा भाव सर्वथा सिद्ध था।
 
*कभी-कभी कीर्तन गान के समय श्रीनाथ जी स्‍वयं उपस्थित रहते थे। एक बार उन्‍हें श्रीनाथ जी ने [[राधा|राधारानी]] सहित प्रत्‍यक्ष दर्शन दिये। श्रीनाथ जी स्‍वयं पद गा रहे थे और श्रीराधा जी ताल दे रही थीं। गोविंददास ने श्रीगोसाईं जी से इस घटना का स्‍पष्‍ट वर्णन किया।
 
*श्रीनाथ जी उनसे प्रकट रूप से बात करते थे, पर देखने वालों की समझ में कुछ भी नही आता था। एक समय श्रृंगार दर्शन में श्रीनाथ जी की पाग ठीक रूप से नहीं बांधी गयी थी। गोविंददास ने मन्दिर में प्रवेश करके उनकी पाग ठीक की। भक्तों के चरित्र की विलक्षणता का पता भगवान के भक्‍तों को ही लगता है।
==मृत्यु==
गोविंदस्‍वामी ने [[गोवर्धन]] में एक कन्‍दरा के निकट संवत 1642 (1585 ई.) विक्रमी में लीला-प्रवेश किया। उन्‍होंने आजीवन [[राधा|श्रीराधा]]-[[कृष्ण]] की श्रृंगार-लीला के पद गाय। भगवान को अपनी संगीत और काव्‍य-कला से रिझाया।
 
==संबंधित लेख==
{{भारत के कवि}}
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Latest revision as of 09:55, 31 March 2016

गोविंदस्वामी
पूरा नाम गोविंदस्वामी
जन्म संवत 1562 (1505 ई.) विक्रमी
जन्म भूमि आंतरी ग्राम, ब्रज
मृत्यु संवत 1642 (1585 ई.) विक्रमी
मृत्यु स्थान गोवर्धन में एक कन्‍दरा के निकट।
कर्म भूमि मथुरा
भाषा ब्रजभाषा
प्रसिद्धि अष्टछाप कवि
नागरिकता भारतीय
दीक्षा गुरु गोसाईं विट्ठलनाथ
स्मृति-स्थल कदमखण्‍डी
अन्य जानकारी गोविंददास सरस पदों की रचना करके श्रीनाथ जी की सेवा करते थे। ब्रज के प्रति उनका दृढ़ अनुराग और प्रगाढ़ आसक्ति थी। उन्‍होंने ब्रज की महिमा का बड़े सुन्‍दर ढंग से बखान किया है।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

गोविंदस्वामी अंतरी के रहने वाले सनाढ्य ब्राह्मण थे। वे विरक्त की भाँति आकर ब्रजमण्डल के महावन में रहने लगे थे। बाद में वे विट्ठलनाथ जी के शिष्य हुए, जिन्होंने इनके रचे पदों से प्रसन्न होकर इन्हें 'अष्टछाप' में लिया और फिर 'गोविंददास' नाम दिया। ये एक कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैया भी थे। तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे।

परिचय

गोविंदस्वामी जी का जन्म ब्रज के निकट आंतरी नामक ग्राम में संवत 1562 (1505 ई.) विक्रमी में हुआ था। बाल्‍यावस्‍था से ही उनमें वैराग्‍य और भक्ति के अंकुर प्रस्‍फुटित हो रहे थे। कुछ दिनों तक गृहस्‍थाश्रम का उपभोग करने पर उन्‍होंने घर छोड़ दिया और वैराग्‍य ले लिया। महावन में जाकर भगवान के भजन और कीर्तन में समय का सदुपयोग करने लगे। महावन के टीले पर बैठकर शास्‍त्रोक्‍त विधि से वे कीर्तन करते थे। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गयी।

दीक्षा तथा गोवर्धन निवास

गोविंदस्वामी गानविद्या के आचार्य थे। काव्‍य एवं संगीत का पूर्ण रूप से उन्‍हें ज्ञान था। गोसाईं विट्ठलनाथ जी उनकी भक्ति-निष्‍ठा और संगीत-माधुरी से परिचित थे। यद्यपि दोनों का साक्षात्‍कार नहीं हुआ था तो भी दोनों एक दूसरे की ओर आकृष्‍ट थे। गोविंदस्‍वामी ने श्रीविट्ठलनाथ जी से संवत 1592 विक्रमी में गोकुल आकर ब्रह्मसम्‍बन्‍ध ले लिया। उनके परम कृपापात्र और भक्त हो गये। गोसाईं जी ने कर्म और भक्ति का तात्विक विवेचन किया। उनकी कृपा से वे गोविंदस्‍वामी से 'गोविंददास' हो गये। उन्‍होंने गोवर्धन को ही अपना स्‍थायी निवास स्थिर किया। गोवर्धन के निकट कदम्‍ब वृक्षों की एक मनोरम वाटिका में वे रहने लगे। वह स्‍थान 'गोविंददास की कदमखण्‍डी' नाम से प्रसिद्ध है।

ब्रज महिमा का बखान

गोविंददास सरस पदों की रचना करके श्रीनाथ जी की सेवा करते थे। ब्रज के प्रति उनका दृढ़ अनुराग और प्रगाढ़ आसक्ति थी। उन्‍होंने ब्रज की महिमा का बड़े सुन्‍दर ढंग से बखान किया है। वे कहते हैं- "वैकुण्‍ठ जाकर क्‍या होगा, न तो वहां कलिन्दगिरिनन्दिनी तट को चूमने वाली सलोनी लतिकाओं की शीतल और मनोरम छाया है, न भगवान श्रीकृष्‍ण की मधुर वंशीध्‍वनि की रसालता है, न तो वहां नन्द-यशोदा हैं और न उनके चिदानन्‍दघनमूर्ति श्‍यामसुन्‍दर हैं, न तो वहां ब्रजरज है, न प्रेमोन्‍मत्‍त राधारानी के चरणारविन्‍द-मकरन्‍द का रसास्‍वादन है।"

अष्टछाप के कवि

गोविंददास स्‍वरचित पदों को श्रीनाथ जी के सम्‍मुख गाया करते थे। भक्ति पक्ष में उन्‍होंने दैन्‍य-भाव कभी नहीं स्‍वीकार किया। जिनके मित्र अखिल लोकपति साक्षात नन्‍दनन्‍दन हों, दैन्‍य भला उनका स्‍पर्श ही किस तरह कर सकता है। गोविंददास का तो स्‍वाभिमान भगवान की सख्‍य-निधि में संरक्षित और पूर्ण सुरक्षित था। गोसाईं विट्ठलनाथ ने उन्‍हें कवीश्‍वर की संज्ञा से समलंकृत कर 'अष्‍टछाप' में सम्मिलित किया था। संगीत सम्राट तानसेन उनकी संगीत-माधुरी का आस्‍वादन करने के लिये कभी-कभी उनसे मिलने आया करते थे।

  • एक समय आंतरी ग्राम से कुछ परिचित व्‍यक्ति गोविंददास से मिलने आये। वे यशोदा घाट पर स्‍नान कर रहे थे। उन्‍होंने गांव वालों को पहचान लिया, पर वे नहीं जान सके कि गोविंदस्‍वामी वे ही हैं। उन्‍होंने गोविंददास से पूछा कि- "गोविंदस्‍वामी कहां हैं।" गोविंददास ने कहा- "वे मरकर गोविंददास हो गए।" गांव वालों ने उनका चरण स्‍पर्श किया। उनके पवित्र दर्शन से अपने सौभाग्‍य की सराहना की।

भैरव राग गायन

एक दिन गोविंददास यशोदा घाट पर बैठकर बड़े प्रेम से भैरव राग गा रहे थे। प्रात:काल के शीतल शान्‍त वातावरण में चराचर जीव तन्‍मय होकर भगवान की कीर्तिमाधुरी का पान कर रहे थे। बहुत-से यात्री एकत्र हो गये। भक्त भगवान के रिझाने में निमग्‍न थे। वे गा रहे थे-

"आओ मेरे गोविंद, गोकुल चंदा।
भइ बड़ि बार खेलत जमुना तट, बदन दिखाय देहु आनंदा।।
गायन कीं आवन की बिरियां, दिन मनि किरन होति अति मंदा।
आए तात मात छतियों लगे, 'गोबिंद' प्रभु ब्रज जन सुख कंदा।।"

भक्त के हृदय के वात्‍सल्‍य ने भैरव राग का माधुर्य बढ़ा दिया। श्रोताओं में बादशाह अकबर भी प्रच्‍छन्‍न वेष में उपस्थित थे। उनके मुख से अनायास "वाह-वाह" की ध्‍वनि निकल पड़ी। गोविंददास पश्‍चाताप करने लगे और उन्‍होंने उसी दिन से श्रीनाथ जी के सामने भैरव राग गाना छोड़ दिया। उनके हृदय में अपने प्राणेश्‍वर प्रेमदेवता ब्रजचन्‍द्र के लिये कितनी पवित्र निष्‍ठा थी।

श्रीनाथ जी के साथ लीलाएँ

  • गोविंददास जी की भक्ति सख्‍य भाव की थी। श्रीनाथ जी साक्षात प्रकट होकर उनके साथ खेला करते थे। बाल-लीलाएं किया करते थे। गोविंददास सिद्ध महात्‍मा और उच्‍च कोटि के भक्त थे। एक बार रासेश्‍वर नन्‍दनन्‍दन उनके साथ खेल रहे थे। कौतुकवश गोविंददास ने श्रीनाथ जी को कंकड़ मारा। गोसाईं विट्ठलनाथ जी से पुजारी ने शिकायत की। गोविंददास ने निर्भयतापूर्वक उत्‍तर दिया कि आपके लाल ने तो तीन कंकड़ मारे थे। श्रीविट्ठलनाथ जी ने उनके सौभाग्‍य की सराहना की।
  • भक्‍तों की लीलाएं बड़ी विचित्र होती हैं। उनको समझने के लिए प्रेमपूर्ण हृदय चाहिये। एक बार गोविंददास जी श्रीनाथ जी के साथ गुल्‍ली खेल रहे थे। राजभोग का समय हो रहा था। भगवान बिना दांव दिये ही मन्दिर में चले गये। गोविंददास ने पीछा किया। श्रीनाथ जी को गुल्‍ली मारी। प्रेमराज्‍य में रमण करने वाले सखा की भावना मुखिया और पुजारियों की समझ में न आयी। उन्‍होंने उनको तिरस्‍कारपूर्वक मन्दिर से बाहर निकाल दिया। गोविंददास रास्‍ते पर बैठ गये। उन्‍होंने सोचा कि श्रीनाथ जी इसी मार्ग से जायंगे। बदला लेने में सुविधा होगी। उधर भगवान के सामने राजभोग रखा गया। मित्र रूठकर चले गये। विश्‍वपति के दरवाजे से अपमानित होकर गये थे। भोग की थाली पड़ी रह गयी। भगवान भोग स्‍वीकार करें, असम्‍भव बात थी। मन्दिर में हाहाकार मच गया। ब्रज के रंगीले ठाकुर रूठ गये। उन्‍हें तो उनके सखा ही मना पायेंगे। विट्ठलनाथ जी ने गोविंददास की बड़ी मनौती की। वे उनके साथ मन्दिर आ गये। भगवान ने राजभोग स्‍वीकार किया। गोविंददास ने भोजन किया। मित्रता भगवान के पवित्र यश से धन्‍य हो गयी।
  • एक बार पुजारी श्रीनाथ जी के लिये राजभोग की थाली ले जा रहा था। गोविंददास ने कहा कि- "पहले मुझे खिला दो।" पुजारी ने गोसाईं जी से कहा। गोविंददास ने सख्‍यभाव के आवेश में कहा कि- "आपके लाला खा-पीकर मुझसे पहले ही गाय चराने निकल जाते हैं।" गोसाईं जी ने व्‍यवस्‍था कर दी कि राजभोग के साथ ही साथ गोविंददास को भी खिला दिया जाय।
  • भगवान को जो जिस भाव से चाहते हैं, वे उसी भाव से उनके वश में हो जाते हैं। एक समय गोविंददास को श्रीनाथ जी ने प्रत्‍यक्ष दर्शन दिया। वे श्‍यामढाक पर बैठकर वंशी बजा रहे थे। इधर मन्दिर में उत्‍थापन का समय हो गया था। गोसाईं जी स्‍नान करके मन्दिर में पहुंच गये थे। श्रीनाथ जी उतावली में वृक्ष से कूद पड़े। उनका बागा वृक्ष में उलझकर फट गया। श्रीनाथ जी का पट खुलने पर गोसाईं विट्ठलनाथ ने देखा कि उनका बागा फटा हुआ है। बाद में गोविंददास ने रहस्‍योद्घाटन किया। गोसाईं जी को साथ ले जाकर वृक्ष पर लटका हुआ चीर दिखलाया। गोविंददास का सखा भाव सर्वथा सिद्ध था।
  • कभी-कभी कीर्तन गान के समय श्रीनाथ जी स्‍वयं उपस्थित रहते थे। एक बार उन्‍हें श्रीनाथ जी ने राधारानी सहित प्रत्‍यक्ष दर्शन दिये। श्रीनाथ जी स्‍वयं पद गा रहे थे और श्रीराधा जी ताल दे रही थीं। गोविंददास ने श्रीगोसाईं जी से इस घटना का स्‍पष्‍ट वर्णन किया।
  • श्रीनाथ जी उनसे प्रकट रूप से बात करते थे, पर देखने वालों की समझ में कुछ भी नही आता था। एक समय श्रृंगार दर्शन में श्रीनाथ जी की पाग ठीक रूप से नहीं बांधी गयी थी। गोविंददास ने मन्दिर में प्रवेश करके उनकी पाग ठीक की। भक्तों के चरित्र की विलक्षणता का पता भगवान के भक्‍तों को ही लगता है।

मृत्यु

गोविंदस्‍वामी ने गोवर्धन में एक कन्‍दरा के निकट संवत 1642 (1585 ई.) विक्रमी में लीला-प्रवेश किया। उन्‍होंने आजीवन श्रीराधा-कृष्ण की श्रृंगार-लीला के पद गाय। भगवान को अपनी संगीत और काव्‍य-कला से रिझाया।

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