रघुनाथ (कवि): Difference between revisions

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*'''रघुनाथ''' '[[रीति काल]]' के एक प्रसिद्ध [[कवि]] हुए हैं, जो 'काशिराज महाराजा बरिबंडसिंह' की सभा को सुशोभित करते थे। [[काशी]] नरेश ने इन्हें 'चौरा' ग्राम दिया था। इनके पुत्र [[गोकुलनाथ]], पौत्र [[गोपीनाथ]] और गोकुलनाथ के शिष्य [[मणिदेव]] ने [[महाभारत]] का [[भाषा]] अनुवाद किया, जो काशिराज के पुस्तकालय में है।
'''रघुनाथ''' '[[रीति काल]]' के एक प्रसिद्ध [[कवि]] थे, जो [[काशी]] के महाराजा बरिबंडसिंह की सभा को सुशोभित करते थे। काशी नरेश ने इन्हें 'चौरा' ग्राम दिया था। इनके पुत्र [[गोकुलनाथ]], पौत्र [[गोपीनाथ]] और गोकुलनाथ के शिष्य [[मणिदेव]] ने '[[महाभारत]]' का [[भाषा]] अनुवाद किया था, जो काशिराज के पुस्तकालय में है।
 
==रचना कार्य==
*ठाकुर शिवसिंह ने रघुनाथ के चार ग्रंथों के नाम लिखे हैं -  
ठाकुर शिवसिंह ने रघुनाथ के चार ग्रंथों के नाम लिखे हैं-
#काव्यकलाधार
#काव्य कलाधार - 1802
#रसिकमोहन
#रसिक मोहन - 1796
#जगतमोहन
#जगत मोहन - 1807
#इश्कमहोत्सव
#इश्कमहोत्सव  


*'बिहारी सतसई' की एक [[टीका]] का भी उन्होंने उल्लेख किया है। इनका [[कविता]] काल [[संवत]] 1790 से 1810 तक पता चलता है।
*'बिहारी सतसई' की एक [[टीका]] का भी उन्होंने उल्लेख किया है। इनका [[कविता]] काल [[संवत]] 1790 से 1810 तक पता चलता है।
*'रसिकमोहन'<ref> संवत 1796</ref> [[अलंकार]] का [[ग्रंथ]] है। इसमें उदाहरण केवल [[शृंगार रस|शृंगार]] के ही नहीं हैं, [[वीर रस|वीर]] आदि अन्य  [[रस|रसों]] के भी बहुत हैं। विशेषता तो यह है कि इसमें अलंकारों के उदाहरणों में जो पद्य आए हैं, उनके प्राय: सब चरण प्रस्तुत [[अलंकार]] के सुंदर और स्पष्ट उदाहरण हैं।  
*'रसिकमोहन'<ref> संवत 1796</ref> [[अलंकार]] का [[ग्रंथ]] है। इसमें उदाहरण केवल [[श्रृंगार रस|श्रृंगार]] के ही नहीं हैं, [[वीर रस|वीर]] आदि अन्य  [[रस|रसों]] के भी बहुत हैं। विशेषता तो यह है कि इसमें अलंकारों के उदाहरणों में जो पद्य आए हैं, उनके प्राय: सब चरण प्रस्तुत [[अलंकार]] के सुंदर और स्पष्ट उदाहरण हैं।  
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*इनके [[कवित्त]] या [[सवैया|सवैये]] का सारा कलेवर अलंकार को उदाहृत करने में प्रयुक्त हो जाता है।  
*[[भूषण]] आदि बहुत से कवियों ने अलंकारों के उदाहरण में जो पद्य रखे हैं, उनका अंतिम या और कोई चरण ही वास्तव में उदाहरण होता है।  
*[[भूषण]] आदि बहुत से कवियों ने अलंकारों के उदाहरण में जो पद्य रखे हैं, उनका अंतिम या और कोई चरण ही वास्तव में उदाहरण होता है।  
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Latest revision as of 07:57, 7 November 2017

रघुनाथ 'रीति काल' के एक प्रसिद्ध कवि थे, जो काशी के महाराजा बरिबंडसिंह की सभा को सुशोभित करते थे। काशी नरेश ने इन्हें 'चौरा' ग्राम दिया था। इनके पुत्र गोकुलनाथ, पौत्र गोपीनाथ और गोकुलनाथ के शिष्य मणिदेव ने 'महाभारत' का भाषा अनुवाद किया था, जो काशिराज के पुस्तकालय में है।

रचना कार्य

ठाकुर शिवसिंह ने रघुनाथ के चार ग्रंथों के नाम लिखे हैं-

  1. काव्य कलाधार - 1802
  2. रसिक मोहन - 1796
  3. जगत मोहन - 1807
  4. इश्कमहोत्सव
  • 'बिहारी सतसई' की एक टीका का भी उन्होंने उल्लेख किया है। इनका कविता काल संवत 1790 से 1810 तक पता चलता है।
  • 'रसिकमोहन'[1] अलंकार का ग्रंथ है। इसमें उदाहरण केवल श्रृंगार के ही नहीं हैं, वीर आदि अन्य रसों के भी बहुत हैं। विशेषता तो यह है कि इसमें अलंकारों के उदाहरणों में जो पद्य आए हैं, उनके प्राय: सब चरण प्रस्तुत अलंकार के सुंदर और स्पष्ट उदाहरण हैं।
  • इनके कवित्त या सवैये का सारा कलेवर अलंकार को उदाहृत करने में प्रयुक्त हो जाता है।
  • भूषण आदि बहुत से कवियों ने अलंकारों के उदाहरण में जो पद्य रखे हैं, उनका अंतिम या और कोई चरण ही वास्तव में उदाहरण होता है।
  • उपमा के उदाहरण में इनका यह प्रसिद्ध कवित्त प्रसिद्ध है -

फूलि उठे कमल से अमल हितू के नैन
कहै रघुनाथ भरे चैन रस सियरे।
दौरि आए भौंर से करत गुनी गुनगान,
सिद्ध से सुजान सुखसागर सों नियरे
सुरभी सी खुलन सुकवि की सुमति लागी,
चिरिया सी जागी चिंता जनक के जियरे।
धानुष पै ठाढ़े राम रवि से लसत आजु,
भोर के से नखत नरिंद भए पियरे

काव्यकलाधर

'काव्यकलाधर' [2] रस का ग्रंथ है। इसमें प्रथानुसार भाव भेद, रस भेद थोड़ा बहुत कह कर नायिका भेद और नायक भेद का ही विस्तृत वर्णन है।

जगत मोहन

'जगत मोहन' [3] वास्तव में एक अच्छे प्रतापी और ऐवर्श्यवान राजा की दिनचर्या बताने के लिए लिखा गया है। इसमें कृष्ण भगवान की 12 घंटे की दिनचर्या कही गई है। इसमें ग्रंथकार ने अपनी बहुज्ञता अनेक विषयों, जैसे राजनीति, सामुद्रिक, वैद्यक, ज्योतिष, शालिहोत्रा, मृगया, सेना, नगर, गढ़ रक्षा, पशुपक्षी, शतरंज इत्यादि के विस्तृत और अरोचक वर्णनों को प्रदर्शित किया है। इस प्रकार पद्य में होने पर भी यह काव्य ग्रंथ नहीं है।

इश्कमहोत्सव'

'इश्कमहोत्सव' में आपने 'खड़ी बोली' की रचना का शौक़ दिखाया है। इससे पता चलता है कि खड़ी बोली की धारणा तब तक अधिकतर उर्दू के रूप में ही लोगों को थी -

ग्वाल संग जैबो ब्रज, गैयन चरैबो ऐबो,
अब कहा दाहिने ये नैन फरकत हैं।
मोतिन की माल वारि डारौं गुंजमाल पर,
कुंजन की सुधि आए हियो धारकत हैं
गोबर को गारो रघुनाथ कछु यातें भारो,
कहा भयो महलनि मनि मरकत हैं।
मंदिर हैं मंदर तें ऊँचे मेरे द्वारका के,
ब्रज के खरिक तऊ हिये खरकत हैं

कैधौं सेस देस तें निकसि पुहुमी पे आय,
बदन ऊचाय बानी जस असपंद की।
कैधौं छिति चँवरी उसीर की दिखावति है,
ऐसी सोहै उज्ज्वल किरन जैसे चंद की
जानि दिनपाल श्रीनृपाल नंदलाल जू को,
कहैं रघुनाथ पाय सुघरी अनंद की।
छूटत फुहारे कैधौं फूल्यो है कमल, तासों,
अमल अमंद मढ़े धार मकरंद की

सुधरे सिलाह राखैं, वायुवेग वाह राखैं,
रसद की राह राखैं, राखे रहै बन को।
चोर को समाज राखैं, बजा औ नजर राखैं,
खबरि के काज बहुरूपी हर फन को
आगम भखैया राखैं, सगुन लेवैया राखैं,
कहै रघुनाथ औ बिचार बीच मन को।
बाजी हारैं कबहूँ न औसर के परे जौन,
ताजी राखै प्रजन को, राजी सुभटन को

आप दरियाव, पास नदियों के जाना नहीं,
दरियाव पास नदी होयगी सो धावैगी।
दरखत बेलि आसरे को कभी राखता न,
दरखत ही के आसरे को बेलि पावैगी
मेरे तो लायक़ जो था कहना सो कहा मैंने,
रघुनाथ मेरी मति न्याव ही की गावैगी।
वह मुहताज आपकी है, आप उसके न,
आप क्यों चलोगे? वह आप पास आवैगी


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संवत 1796
  2. संवत 1802
  3. संवत 1807

सम्बंधित लेख