अयोध्या प्रसाद खत्री: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replacement - " जगत " to " जगत् ")
No edit summary
 
(One intermediate revision by the same user not shown)
Line 12: Line 12:
|पति/पत्नी=
|पति/पत्नी=
|संतान=
|संतान=
|कर्म भूमि=  
|कर्म भूमि=[[भारत]]
|कर्म-क्षेत्र=अध्यापक, पेशकार
|कर्म-क्षेत्र=अध्यापक, पेशकार
|मुख्य रचनाएँ='खड़ी बोली का पद्य' (1880)
|मुख्य रचनाएँ='खड़ी बोली का पद्य' ([[1880]])
|विषय=
|विषय=
|भाषा=[[हिंदी]]
|भाषा=[[हिंदी]]
Line 32: Line 32:
|अद्यतन=
|अद्यतन=
}}
}}
अयोध्या प्रसाद खत्री ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ayodhya Prasad Khatri'', जन्म: [[1857]] - मृत्यु: [[4 जनवरी]], [[1905]]) [[हिन्दी]] [[खड़ी बोली]] के आरम्भिक प्रबल समर्थक थे। यह मुजफ़्फ़रपुर ([[बिहार]]) में [[कचहरी]] में पेशकार थे।
'''अयोध्या प्रसाद खत्री''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ayodhya Prasad Khatri'', जन्म: [[1857]] - मृत्यु: [[4 जनवरी]], [[1905]]) [[हिन्दी]] [[खड़ी बोली]] के आरम्भिक प्रबल समर्थक थे। यह मुजफ़्फ़रपुर ([[बिहार]]) में [[कचहरी]] में पेशकार थे।
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
अयोध्या प्रसाद खत्री का जन्म 1857 ई. में सिकंदरपुर, ज़िला बलिया ([[उत्तर प्रदेश]]) में हुआ था। उत्तर प्रदेश 1857 के [[सिपाही विद्रोह]] के कारण अंग्रेज़ों के जुल्म का ज़्यादा शिकार हुआ, जिसके कारण इनके पिता श्री जगजीवन लाल खत्री अपने गाँव सिकंदरपुर से अन्य परिवारों की तरह विस्थापित होकर मुजफ़्फ़रपुर (बिहार) आकर बस गए और जीवन व्यतीत करने के लिए कल्याणी में किताबों की दुकान खोल ली। अयोध्या प्रसाद खत्री के पिता ने बचपन से ही इनको [[सूरदास]], [[तुलसी]] के दोहे सुनाए और इनकी माता ने इनको [[गीता]] कंठस्थ करा दी।   
अयोध्या प्रसाद खत्री का जन्म 1857 ई. में सिकंदरपुर, ज़िला बलिया ([[उत्तर प्रदेश]]) में हुआ था। उत्तर प्रदेश 1857 के [[सिपाही विद्रोह]] के कारण अंग्रेज़ों के जुल्म का ज़्यादा शिकार हुआ, जिसके कारण इनके पिता श्री जगजीवन लाल खत्री अपने गाँव सिकंदरपुर से अन्य परिवारों की तरह विस्थापित होकर मुजफ़्फ़रपुर (बिहार) आकर बस गए और जीवन व्यतीत करने के लिए कल्याणी में किताबों की दुकान खोल ली। अयोध्या प्रसाद खत्री के पिता ने बचपन से ही इनको [[सूरदास]], [[तुलसी]] के दोहे सुनाए और इनकी माता ने इनको [[गीता]] कंठस्थ करा दी।   
Line 43: Line 43:
===='खड़ी-बोली का पद्य'====
===='खड़ी-बोली का पद्य'====
अयोध्या प्रसाद खत्री ने गद्य और पद्य की भाषा के अलगाव को ग़लत मानते हुए इसकी एकरूपता पर जोर दिया। पहली बार इन्होंने साहित्य जगत् का ध्यान इस मुद्दे की तरफ खींचा। साथ ही इसे आंदोलन का रूप दिया। इसी क्रम में खत्री जी ने 'खड़ी-बोली का पद्य` दो खंडों में छपवाया। इन दोनों किताबों को तत्कालीन साहित्य-रसिकों के बीच नि:शुल्क बंटवाया। काबिलेगौर है कि इस किताब के छपने के बाद काव्य-भाषा का सवाल एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरा। हिन्दी-साहित्य के इतिहास में 'खड़ी बोली का पद्य` ऐसी पहली और अकेली किताब है, जिसकी वजह से इतना अधिक वाद-विवाद हुआ। इस किताब ने काव्य-भाषा के संबंध में जो विचार प्रस्तावित किया, उस पर क़रीब तीन दशकों तक बहसें होती रहीं। इस किताब के जरिए एक साहित्यिक आंदोलन की शुरूआत हुई। हिन्दी कविता की भाषा क्या हो, ब्रजभाषा अथवा खड़ीबोली हिन्दी? इसके संपादक ने खड़ीबोली हिन्दी का पक्ष लेते हुए ब्रजभाषा को खारिज किया। लिहाजा, इस आंदोलन की वजह से परिस्थितियां ऐसी बदलीं कि ब्रजभाषा जैसी साहित्यिक भाषा बोली बन गयी और खड़ी बोली जैसी बोली साहित्यिक भाषा के तौर पर स्थापित हो गई। 'खड़ी बोली का पद्य` के पहले भाग की भूमिका में खत्री जी ने खड़ी बोली को पांच भागों में बांटा-ठेठ हिन्दी, पंडित जी की हिन्दी, मुंशी जी की हिन्दी, मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी। उन्होंने मुंशी-हिन्दी को आदर्श [[हिन्दी]] माना। ऐसी हिन्दी जिसमें कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्द न हों। साथ ही [[अरबी भाषा|अरबी]]-[[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के कठिन शब्द भी नहीं हों। लेकिन आमफहम शब्द चाहे किसी भाषा के हों, उससे परहेज न किया गया हो। प्रसंगवश, इसी मुंशी हिन्दी को [[महात्मा गांधी]] सहित कई लोगों ने हिन्दोस्तानी कहा है।<ref name="JVB"/>
अयोध्या प्रसाद खत्री ने गद्य और पद्य की भाषा के अलगाव को ग़लत मानते हुए इसकी एकरूपता पर जोर दिया। पहली बार इन्होंने साहित्य जगत् का ध्यान इस मुद्दे की तरफ खींचा। साथ ही इसे आंदोलन का रूप दिया। इसी क्रम में खत्री जी ने 'खड़ी-बोली का पद्य` दो खंडों में छपवाया। इन दोनों किताबों को तत्कालीन साहित्य-रसिकों के बीच नि:शुल्क बंटवाया। काबिलेगौर है कि इस किताब के छपने के बाद काव्य-भाषा का सवाल एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरा। हिन्दी-साहित्य के इतिहास में 'खड़ी बोली का पद्य` ऐसी पहली और अकेली किताब है, जिसकी वजह से इतना अधिक वाद-विवाद हुआ। इस किताब ने काव्य-भाषा के संबंध में जो विचार प्रस्तावित किया, उस पर क़रीब तीन दशकों तक बहसें होती रहीं। इस किताब के जरिए एक साहित्यिक आंदोलन की शुरूआत हुई। हिन्दी कविता की भाषा क्या हो, ब्रजभाषा अथवा खड़ीबोली हिन्दी? इसके संपादक ने खड़ीबोली हिन्दी का पक्ष लेते हुए ब्रजभाषा को खारिज किया। लिहाजा, इस आंदोलन की वजह से परिस्थितियां ऐसी बदलीं कि ब्रजभाषा जैसी साहित्यिक भाषा बोली बन गयी और खड़ी बोली जैसी बोली साहित्यिक भाषा के तौर पर स्थापित हो गई। 'खड़ी बोली का पद्य` के पहले भाग की भूमिका में खत्री जी ने खड़ी बोली को पांच भागों में बांटा-ठेठ हिन्दी, पंडित जी की हिन्दी, मुंशी जी की हिन्दी, मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी। उन्होंने मुंशी-हिन्दी को आदर्श [[हिन्दी]] माना। ऐसी हिन्दी जिसमें कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्द न हों। साथ ही [[अरबी भाषा|अरबी]]-[[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के कठिन शब्द भी नहीं हों। लेकिन आमफहम शब्द चाहे किसी भाषा के हों, उससे परहेज न किया गया हो। प्रसंगवश, इसी मुंशी हिन्दी को [[महात्मा गांधी]] सहित कई लोगों ने हिन्दोस्तानी कहा है।<ref name="JVB"/>
==शैली==
==शैली==
ये खड़ी बोली पद्य की चार शैलियाँ मानते थे- मौलवी, मुंशी, पंडित और अध्यापक शैलियाँ। इन्होंने ''खड़ी बोली का पद्य'' ([[1880]] ई., दो भाग) में उक्त शैलियों की कविताओं का संकलन किया था।  
ये खड़ी बोली पद्य की चार शैलियाँ मानते थे- मौलवी, मुंशी, पंडित और अध्यापक शैलियाँ। इन्होंने ''खड़ी बोली का पद्य'' ([[1880]] ई., दो भाग) में उक्त शैलियों की कविताओं का संकलन किया था।  
Line 53: Line 52:
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{भारत के कवि}}
{{भारत के कवि}}
[[Category:कवि]][[Category:साहित्यकार]][[Category:हिन्दी साहित्यकार]]
[[Category:कवि]][[Category:साहित्यकार]][[Category:हिन्दी साहित्यकार]][[Category:साहित्य कोश]][[Category:चरित कोश]][[Category:आधुनिक साहित्यकार]][[Category:आधुनिक कवि]]
[[Category:साहित्य कोश]][[Category:चरित कोश]]
[[Category:आधुनिक साहित्यकार]][[Category:आधुनिक कवि]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__

Latest revision as of 05:34, 4 January 2018

अयोध्या प्रसाद खत्री
पूरा नाम अयोध्या प्रसाद खत्री
जन्म 1857 ई.
जन्म भूमि सिकंदरपुर, ज़िला बलिया (उत्तर प्रदेश)
मृत्यु 4 जनवरी, 1905
मृत्यु स्थान मुजफ़्फ़रपुर, बिहार
अभिभावक जगजीवन लाल खत्री
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र अध्यापक, पेशकार
मुख्य रचनाएँ 'खड़ी बोली का पद्य' (1880)
भाषा हिंदी
नागरिकता भारतीय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

अयोध्या प्रसाद खत्री (अंग्रेज़ी: Ayodhya Prasad Khatri, जन्म: 1857 - मृत्यु: 4 जनवरी, 1905) हिन्दी खड़ी बोली के आरम्भिक प्रबल समर्थक थे। यह मुजफ़्फ़रपुर (बिहार) में कचहरी में पेशकार थे।

जीवन परिचय

अयोध्या प्रसाद खत्री का जन्म 1857 ई. में सिकंदरपुर, ज़िला बलिया (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उत्तर प्रदेश 1857 के सिपाही विद्रोह के कारण अंग्रेज़ों के जुल्म का ज़्यादा शिकार हुआ, जिसके कारण इनके पिता श्री जगजीवन लाल खत्री अपने गाँव सिकंदरपुर से अन्य परिवारों की तरह विस्थापित होकर मुजफ़्फ़रपुर (बिहार) आकर बस गए और जीवन व्यतीत करने के लिए कल्याणी में किताबों की दुकान खोल ली। अयोध्या प्रसाद खत्री के पिता ने बचपन से ही इनको सूरदास, तुलसी के दोहे सुनाए और इनकी माता ने इनको गीता कंठस्थ करा दी।

शिक्षा

अयोध्या प्रसाद खत्री को पढ़ाने के लिए घर पर ही मौलवी आने लगे, फिर इनका दाखिला मुजफ़्फ़रपुर के ज़िला स्कूल में कराया गया। खत्री जी जब इंट्रेस में पढ़ रहे थे तो इनके पिता का देहांत हो गया।

कार्यक्षेत्र

खत्री जी को पिता के देहांत के बाद अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर दुकान संभालनी पड़ी, किंतु इस व्यवसाय में उनका मन न रमा और वे कुढ़नी माइनर स्कूल के शिक्षक हो गए। अपने स्कूल में हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकों का अभाव देख उन्हें सबसे पहले हिन्दी व्याकरण की रचना की तथा स्कूल की नौकरी त्यागकर मुजफ़्फ़रपुर में अंग्रेज़ों को हिन्दी पढ़ाने लगे। एक अंग्रेज़ अधिकारी ने उनसे प्रभावित होकर उन्हें लिपिक के पद पर बहाल कर लिया, जहाँ वे जल्द ही अपनी प्रतिभा के बल पर कलैक्टर के पेशकार हो गए जिस पर यह जीवनपर्यंत कार्यरत रहे। इसी पद पर रहते हुए खत्री जी ने खड़ी बोली हिन्दी के लिए अपना सर्वस्व होम किया।

खड़ी बोली का आंदोलन

भारतेन्दु युग से हिन्दी-साहित्य में आधुनिकता की शुरूआत हुई। उस दौर के रचनाकारों को आधुनिकता की शुरूआत करने का श्रेय दिया जाता है, जो वाजिब है। इसी दौर में बड़े पैमाने पर भाषा और विषय-वस्तु में बदलाव आया। खड़ी बोली हिन्दी गद्य की भाषा बनी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल सहित सभी इतिहासकार-आलोचकों ने विषय-वस्तु के साथ-साथ भाषा के रूप में खड़ी बोली हिन्दी के चलन को आधुनिकता का नियामक माना है। गौरतलब है कि इतिहास के उस कालखंड में, जिसे हम भारतेन्दु युग के नाम से जानते हैं, खड़ी बोली हिन्दी गद्य की भाषा बन गई लेकिन पद्य की भाषा के रूप में ब्रजभाषा का बोलबाला क़ायम रहा। इतना ही नहीं, कविताओं का विषय भक्ति और रीतिकालीन रहा। इस लिहाज से, कविता मध्यकालीन भाव-बोध तक सीमित रही।[1]

'खड़ी-बोली का पद्य'

अयोध्या प्रसाद खत्री ने गद्य और पद्य की भाषा के अलगाव को ग़लत मानते हुए इसकी एकरूपता पर जोर दिया। पहली बार इन्होंने साहित्य जगत् का ध्यान इस मुद्दे की तरफ खींचा। साथ ही इसे आंदोलन का रूप दिया। इसी क्रम में खत्री जी ने 'खड़ी-बोली का पद्य` दो खंडों में छपवाया। इन दोनों किताबों को तत्कालीन साहित्य-रसिकों के बीच नि:शुल्क बंटवाया। काबिलेगौर है कि इस किताब के छपने के बाद काव्य-भाषा का सवाल एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरा। हिन्दी-साहित्य के इतिहास में 'खड़ी बोली का पद्य` ऐसी पहली और अकेली किताब है, जिसकी वजह से इतना अधिक वाद-विवाद हुआ। इस किताब ने काव्य-भाषा के संबंध में जो विचार प्रस्तावित किया, उस पर क़रीब तीन दशकों तक बहसें होती रहीं। इस किताब के जरिए एक साहित्यिक आंदोलन की शुरूआत हुई। हिन्दी कविता की भाषा क्या हो, ब्रजभाषा अथवा खड़ीबोली हिन्दी? इसके संपादक ने खड़ीबोली हिन्दी का पक्ष लेते हुए ब्रजभाषा को खारिज किया। लिहाजा, इस आंदोलन की वजह से परिस्थितियां ऐसी बदलीं कि ब्रजभाषा जैसी साहित्यिक भाषा बोली बन गयी और खड़ी बोली जैसी बोली साहित्यिक भाषा के तौर पर स्थापित हो गई। 'खड़ी बोली का पद्य` के पहले भाग की भूमिका में खत्री जी ने खड़ी बोली को पांच भागों में बांटा-ठेठ हिन्दी, पंडित जी की हिन्दी, मुंशी जी की हिन्दी, मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी। उन्होंने मुंशी-हिन्दी को आदर्श हिन्दी माना। ऐसी हिन्दी जिसमें कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्द न हों। साथ ही अरबी-फ़ारसी के कठिन शब्द भी नहीं हों। लेकिन आमफहम शब्द चाहे किसी भाषा के हों, उससे परहेज न किया गया हो। प्रसंगवश, इसी मुंशी हिन्दी को महात्मा गांधी सहित कई लोगों ने हिन्दोस्तानी कहा है।[1]

शैली

ये खड़ी बोली पद्य की चार शैलियाँ मानते थे- मौलवी, मुंशी, पंडित और अध्यापक शैलियाँ। इन्होंने खड़ी बोली का पद्य (1880 ई., दो भाग) में उक्त शैलियों की कविताओं का संकलन किया था।

मृत्यु

अयोध्या प्रसाद खत्री जी का देहांत 4 जनवरी, 1905 ई. को मुजफ़्फ़रपुर, बिहार में हुआ था।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 और खडी बोली का आंदोलन (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) जन विकल्प (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 29 दिसम्बर, 2012।

संबंधित लेख