कवींद्र

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कवींद्र
पूरा नाम उदयनाथ (वास्तविक नाम)
जन्म 1680 ई. के आसपास
पालक माता-पिता कालिदास त्रिवेदी
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र काव्य लेखन
मुख्य रचनाएँ 'रस-चन्द्रोदय', 'विनोद चन्द्रिका' तथा 'जोगलीला'
प्रसिद्धि कवि
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी 'रस चन्द्रोदय' शृंगार रस का एक अच्छा ग्रंथ है। इसमें लक्षण दोहों में तथा उदाहरण कवित्त, सवैया छन्दों में दिये गये हैं।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

कवींद्र (वास्तविक नाम- 'उदयनाथ', जन्म- 1680 ई. के आसपास) रीति काल के प्रसिद्ध कवि थे। ये कालिदास त्रिवेदी के पुत्र थे। इनका 'रस-चन्द्रोदय' नामक ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'विनोदचंद्रिका' और 'जोगलीला' नामक इनकी दो और पुस्तकों का भी ज्ञान है।

परिचय

कवींद्र बनपुरा के कालिदास त्रिवेदी के पुत्र थे। सन 1680 के आसपास इनका जन्म हुआ था। बहुत दिनों तक ये अमेठी के राजा हिम्मतसिंह तथा उनके पुत्र कवि तथा काव्यप्रेमी भूपति कवि (गुरूदत्त) के आश्रम में रहे। बूँदी, राजस्थान के राव बुद्ध सिंह तथा भगवंतराय खीची के यहाँ भी इनको काफ़ी सम्मान प्राप्त हुआ था।[1]

रचनाएँ

वैसे तो इनके द्वारा रचित तीन पुस्तकों- 'रस-चन्द्रोदय', 'विनोद चन्द्रिका' तथा 'जोगलीला' का नाम लेते हुए रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि "विनोद चन्द्रिका' संवत 1777 और 'रस चन्द्रिका' संवत 1804 में बनी।"[2] किंतु भगीरथ मिश्र का कहना है कि "रस चन्दोदय' और 'विनोद चन्द्रोदय' एक ही ग्रंथ है।" इस सम्बन्ध में उन्होंने एक उद्धरण दिया है- "संवत सतक ललित अट्ठारह चार। नाइक नाइकाहि, निरधार।। लिखी कविन्द रस ग्रंथ। कियो विनोद चन्दोदय ग्रंथ।।"

ज्ञातव्य यह है कि शुक्लजी ने 'रस-चन्द्रोदय' का जो रचना काल माना है, वही इस दोहे में 'विनोद चन्द्रोदय' का भी है। अंत: भगीरथ मिश्र का मत ठीक लगता है। इस ग्रंथ की एक हस्तलिखित प्रति 'सवाई महेन्द्र पुस्तकालय', ओरछा में है और एक संस्करण 'नवलकिशोर प्रेस', लखनऊ से सन फ़रवरी, 1882 में प्रकाशित हुआ था। 'रस चन्द्रोदय' शृंगार रस का एक अच्छा ग्रंथ है। इसमें लक्षण दोहों में तथा उदाहरण कवित्त, सवैया छन्दों में दिये गये हैं। उदाहरण बहुत ही रोचक और सुन्दर हैं, अस्तु इसका काव्यात्मक महत्त्व अधिक है, शास्त्रीय कम।[1]

कवित्त

कवींद्र की भाषा मधुर और प्रसादपूर्ण है। वर्ण्य विषय के अनुकूल कल्पना भी ये अच्छी करते थे। इनके दो कवित्त इस प्रकार हैं-

शहर मँझार ही पहर एक रागि जैहै,
छोर पै नगर के सराय है उतारे की।
कहत कविंद मग माँझ ही परैगी साँझ,
खबर उड़ानी है बटोही द्वैक मारे की
घर के हमारे परदेस को सिधारे,
या तें दया कै बिचारी हम रीति राहबारे की।
उतरौ नदी के तीर, बर के तरे ही तुम,
चौकौं जनि चौकी तहाँ पाहरू हमारे की

राजै रसमै री तैसी बरखा समै री चढ़ी,
चंचला नचै री चकचौंध कौंध बारै री।
व्रती व्रत हारै हिए परत फुहारैं,
कछु छोरैं कछू धारैं जलधार जलधारैं री
भनत कविंद कुंजभौन पौन सौरभ सों,
काके न कँपाय प्रान परहथ पारै री?
कामकंदुका से फूल डोलि डोलि डारैं, मन
औरै किए डारै ये कदंबन की डारैं री


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 78 |
  2. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 170- 71

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